किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के रोग की सूचना किसी अन्य व्यक्ति को देना अपराध नहीं है अपितु लोक नीति के पक्ष में

Shadab Salim

11 July 2020 6:59 AM GMT

  • किसी संक्रमित बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के रोग की सूचना किसी अन्य व्यक्ति को देना अपराध नहीं है अपितु लोक नीति के पक्ष में

    इस समय विश्व भर में कोरोना वायरस जैसी गंभीर संक्रमित बीमारी चल रही है। इस बीमारी ने भारत भर को भी अपने चपेट में ले रखा है। यह एक संक्रामक रोग है तथा एक से दूसरे में संक्रमित होता है। आम जनसाधारण के भीतर इस बीमारी को लेकर एक बड़ा प्रश्न वैधानिक दृष्टिकोण से पैदा होता है कि यदि किसी व्यक्ति को इस प्रकार का कोई संक्रमित रोग है, जिस से वह संक्रमण दूसरों में भी फैल सकता है तो ऐसी परिस्थिति में क्या ऐसे व्यक्ति की पहचान को अभिव्यक्त करना अपराध है।

    किसी की बीमारी को सार्वजनिक करना अपराध हो सकता है, परंतु यदि वह बीमारी को सार्वजनिक करना लोक हित में है तो ऐसी परिस्थिति में संक्रमित रोग से पीड़ित व्यक्ति को एकान्तता का अधिकार नहीं मिलता है।

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण दिया गया है। इस अधिकार के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को एकान्तता का अधिकार भी उपलब्ध है परंतु एकान्तता का अधिकार आत्यंतिक अधिकार नहीं है अपितु इस अधिकार पर निर्बंधन हो सकते हैं। राज्य द्वारा इस अधिकार पर यथेष्ट और युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं।

    कोई भी संक्रमित रोग यदि एक व्यक्ति से होकर दूसरे व्यक्ति को होने की प्रबल संभावना है तो ऐसे रोग का सार्वजनिक उल्लेख कर दिया जाना ही लोक हित में होगा। इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक बहुत महत्वपूर्ण मुकदमा है, जिसे मिस्टर एक्स बनाम हॉस्पिटल जेड एआईआर 1999 एसी 495 के नाम से जाना जाता है।

    इस मुकदमे में यही बहस की गयी थी कि किसी संक्रमित रोग का सार्वजनिक उल्लेख कर दिया जाना क्या अपराध की श्रेणी में रखा जाएगा? या फिर ऐसे उल्लेख से आहत व्यक्ति प्रतिकार मांग सकता है?

    इस महत्वपूर्ण निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है की संविदा अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार में एकान्तता का अधिकार भी है किंतु या आत्यंतिक अधिकार नहीं है और उस पर अपराध को रोकने अव्यवस्था या स्वास्थ्य या नैतिकता का संरक्षण करने दूसरे व्यक्तियों की स्वतंत्रता और अधिकारों के संरक्षण के लिए निर्बंधन लगाया जा सकता है।

    एक बार इस संबंध में इस महत्वपूर्ण मुकदमे मिस्टर एक्स बनाम हॉस्पिटल जेड के तथ्यों को विस्तारपूर्वक समझने का प्रयास किया जाना चाहिए-

    इस मामले में अपीलार्थी नागालैंड राज्य मेडिकल सेवा में सहायक सर्जन के रूप में कार्यरत था। राज्य का एक कर्मचारी किसी रोग से पीड़ित था। उसे मद्रास के चिकित्सालय जिसका नाम 'जेड' था भेजने की सलाह दी गयी। सरकार ने अपीलार्थी को कर्मचारी के साथ मद्रास जाने का निर्देश दिया। रोगी के ऑपरेशन के लिए खून की आवश्यकता पड़ी। अपीलार्थी को खून देने के लिए कहा गया। डॉक्टरों ने जब खून की जांच की तो पता चला कि उसमें एड्स के कटाणु है। इस बीच अपीलार्थी ने मिस 'आई' से अपना विवाह तय कर लिया था तथा सगाई हो गयी थी।

    अस्पताल के डॉक्टरों की इस बात के प्रकटीकरण से कि अपीलार्थी के खून में एड्स के कीटाणु पाए गए हैं मिस 'आई' से उसका विवाह टूट गया।

    इससे समाज में उसकी प्रतिष्ठा पर काफी ठेस पहुंची। वह नागालैंड छोड़कर मद्रास चला गया। अपीलार्थी ने मद्रास के 'जेड' अस्पताल के डॉक्टरों के विरुद्ध में याचिका फाइल की जिसमें यह कहा गया कि प्रत्याशी डॉक्टरों ने इस बात का प्रकटीकरण करके उसके खून में एड्स के कीटाणु थे अनुच्छेद 21 के अधीन प्राप्त एकान्तता का अधिकार का उल्लंघन किया है अतः वह नुकसानी देने के लिए दायी है।

    उसने कहा कि डॉक्टर और रोगी का संबंध विश्वास पर आधारित होता है। डॉक्टरों का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे रोगी के बारे में सही जानकारी का सार्वजनिक रूप से प्रकटीकरण करें और ऐसा करके चिकित्सकों ने उसके एक आम जनता के अधिकार पर आक्रमण किया है।

    उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस सगीर अहमद और जस्टिस वीएन कृपाल सिंह की खंडपीठ ने निर्णय दिया कि प्रत्यर्थीयों ने अपीलार्थी के बारे में इस बात का प्रकटीकरण करके कि उसके खून में एड्स के वायरस पाए गए हैं, उसके एकान्तता के अधिकार का उल्लंघन नहीं किया है।

    न्यायालय ने कहा कि यद्यपि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एकान्तता अधिकार एक मूल अधिकार है, किंतु व पूर्ण अधिकार नहीं है तथा उसे आत्यंतिक नहीं समझा जाए। इस अधिकार के ऊपर निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। जब भी लोकहित तथा नैतिकता, लोक स्वास्थ्य का प्रश्न आएगा तब इस पर निर्बंधन हो सकते हैं।

    विवाह करना एक अधिकार है परंतु इस अधिकार का उपयोग तभी किया जा सकता है, जब व्यक्ति पूरी तरीके से निरोगी हो। अपीलार्थी के रोग के बारे में चिकित्सकों द्वारा प्रकटीकरण से उस महिला का जीवन बर्बाद होने से बच गया। वह उससे विवाह करने जा रही थी, क्योंकि विवाह के उपरांत वह महिला भी एचआईवी एड्स से पीड़ित हो जाती और जीवन में विवाह से भी बड़ी प्राथमिकता जीवन का होना है। जीवन से अमूल्य इस धरती पर कुछ नहीं होता क्योंकि प्राण के अधिकार में एक स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार भी आता है।

    न्यायाधीशों ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही तथा कहा कि जब दो मूल अधिकारों में आपस में टकराव हो और विरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाए तो ऐसी दशा में न्यायालय द्वारा केवल उसी मूल अधिकार को लागू किया जाएगा जिससे लोक हित और नैतिकता को बढ़ावा मिलता हो।

    अपीलार्थी को एकान्तता का अधिकार प्राप्त है तो अपीलार्थी की प्रस्तावित पत्नी को भी जीवन में स्वास्थ्य जीवन जीने का अधिकार प्राप्त है। किसी भी तरीके से हम यह नहीं कह सकते कि उसकी पत्नी के स्वस्थ जीवन के अधिकार को नष्ट कर दिया जाए।

    वर्तमान में कोरोना वायरस के संदर्भ में इस निर्णय को मील का पत्थर माना गया है तथा कोराना वायरस से पीड़ित होने वाले मरीजों का सार्वजनिक उल्लेख कर दिया जाना कोई अपराध नहीं है।

    हालांकि इसके बाद के मुकदमे में जब इस के संदर्भ में कुछ प्रश्न किए गए तो न्यायालय ने मामले में थोड़ी उदारता रखते हुए यह कहा कि- जितना संभव हो जितनी आवश्यकता हो उतना ही व्यक्ति की बीमारी का उल्लेख किया जाए। यदि उसकी बीमारी के उल्लेख किए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, उसके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है तो ऐसा उल्लेख किया जाना अवैध अवैध होगा।

    कोई ना कोई वैज्ञानिकता होनी चाहिए तथा यथेष्ट उल्लेख ही किया जाए तथा जब व्यक्ति निरोगी हो जाए तो उसके पास विवाह करने का अधिकार उपलब्ध है तथा विवाह कर सकता है।

    बाद में इसी मामले से आधार कार्ड के संबंध में तथा मुस्लिम महिलाओं का तीन तलाक से संरक्षण के संबंध में सहायता ली गयी तथा हॉस्पिटल जेड वाद इन मामलों में मील का पत्थर बनाया गया है।

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