नफरत फैलाना, अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है

Adv Shadan Farasat

27 May 2020 12:18 PM GMT

  • नफरत फैलाना, अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है


    19 मई, 2020 को सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने अर्नब गोस्वामी के खिलाफ रिपब्‍लिक भारत के 21 अप्रैल और 29 अप्रैल को दो प्रसारणों के संबंध में महाराष्ट्र में दर्ज दो अलग-अलग एफआईआर के मामलों को या तो रद्द करने या सीबीआई को जांच स्थानांतरित करने की मांग नहीं मानी। एफआईआर में हेट स्पीच से संबं‌धित आईपीसी के विभिन्न दंडात्मक प्रावधानों के साथ-साथ आपराधिक मानहानि का भी आरोप लगाया गया है। 21 अप्रैल के प्रसारण के संबंध में कहा गया है कि याचिकाकर्ता ने सुश्री सोनिया गांधी के खिलाफ बयान दिया और आरोप लगाए थे। जिसके बाद भारत के विभिन्न राज्यों में लगभग एक जैसी कई एफआईआर दर्ज की गईं।

    सुप्रीम कोर्ट इस प्रसारण के संबंध में दर्ज एफआईआर में एक को छोड़कर सभी को रद्द कर दिया, क्योंकि एक ही अधिनियम के संबंध में कई एफआईआर दर्ज करना पूर्वाग्रही और अवैध है। जिस एफआईआर को छोड़ा गया, वह महाराष्ट्र में दर्ज की गई थी।

    सुप्रीम कोर्ट ने इस एफआईआर से मानहानि का अपराध भी हटा दिया क्योंकि तय कानून के अनुसार, मानहानि के मामले में आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत पीड़ित व्यक्ति (इस मामले में सुश्री गांधी) ही कर सकता है और वह भी एक निजी शिकायत के जर‌िए मजिस्ट्रेट के सामने, न कि पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कर।

    इस मामले में दोनों स्थितियों में से कोई भी संतुष्ट नहीं हो रही थी।

    हालांकि, 21 अप्रैल के प्रसारण के संबंध में दायर शेष एफआईआर और 29 अप्रैल के प्रसारण के संबंध में दायर पूरी एफआईआर पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई राहत देने से इनकार कर दिया।

    यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ऐसे समय आया है, जबकि बीते कुछ वर्षों से कई अंग्रेजी और हिंदी समाचार चैनल कमजोर धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगभग हर हफ्ते हेट स्पीच का प्रसारण कर रहे हैं। भले इसे पत्रकारिता का नाम दिया जा रहा हो, मगर इसमें न जमीनी स्तर की रिपोर्टिंग होती है और न वास्तविक खोजी पत्रकारिता। यहां तक ​​लोकतंत्र के ‌लिए जरूरी बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मसलों का भी इन कार्यक्रमों में अभाव होता है। इसके बजाय, इन कार्यक्रमों में दोनों पक्षों के बीच एक घिनौना मैच होता है, जहां हमेशा बहुसंख्यक दृष्टिकोण की ही जीत होती है, जो कि जो स्टार एंकर का भी पक्ष होता है। इन प्रसारणों में आक्रामक तरीके सफेद झूठ, पक्षपातपूर्ण दावों, बिना किसी सबूत के कुत्सित बयान को प्रसार किया जाता है। इनका मॉडरेशन पक्षपातपूर्ण होता है, और दूसरे पक्ष का प्रतिनिधित्व करने के लिए ऐसे लोगों को बुलाया जाता है, जो उनके प्रति अपमानजनक रवैया रखते हैं। सा‌थ में टिकर पर नफरत भरे हैशटैग चलते रहते हैं। इन कार्यक्रमों में या तो किसी धार्मिक समूह पर हमला किया जाता है, या कभी-कभी धार्मिक समूह के साथ-साथ व‌िपक्ष पर हमला किया जाता है।

    कुछ साल पहले तक दबी जुबान में ‌नफरत की बात होती थी, मगर अब यह इतनी आम हो गई है कि कुछ समाचार चैनलों ने यह तक कहना शुरु कर दिया है कि वो "केवल समाचार देते हैं, पैसे कमाने के लिए नफरत नहीं बेचते।"

    हालांकि चौंकाने वाली बात यह है कि तथ्य के बावजूद कि भारतीय कानून हेट स्पीच को अपराध मानता है, और संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत दंडात्मक कानूनों की अनुमति है, भारत में नफरत का कारोबार बढ़ा है। हेट स्पीच को दो अलग-अलग कारणों से नि‌षिद्घ किया गया है।

    पहला यह कि हेट स्पीच प्रभावित व्यक्तियों की गरिमा का हनन करती है और उन्हें दिए गए अपने जैसा न मानकार उनका अमानवीकरण करती है। दूसरा, इसके जरिए विभिन्न समुदायों और धार्मिक समूहों के बीच संघर्ष को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाता है, जो किसी भी बहुसांस्कृतिक देश के लिए विशेष रूप से हानिकारक हो सकता है।

    अमेरिका के लॉ प्रोफेसर जेरेमी वाल्ड्रॉन ने कहा था कि हेट स्पीच "एक तरह का धीमा जहर है।" हेट स्पीच का चरम नाजियों द्वारा यहूदियों का

    आमानुषिकरण था, जिसमें जर्मनी में गैर-यहूदी जनता सामूहिक विनाश की मौन भागीदार बनी रही।

    श्री गोस्वामी के मामले पर वापस आते हुए, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया कि 21 अप्रैल के प्रसारण में उन्होंने 16 अप्रैल को महाराष्ट्र के पालघर में हुई घटना, जहां तीन व्यक्तियों को भीड़ ने मार डाला था, की "जांच के मुद्दे उठाए" थे। हालांकि इस प्रसारण की जांच में हुए खुलासे इस दावे के विपरीत है।

    अपने निर्णय की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने 21 अप्रैल के 52 मिनट के प्रसारण का एक यूट्यूब लिंक दिया है, जिसमें इस बात की बिल्कुल चर्चा नहीं की गई है कि घटना के बाद, पुलिस की क्या जांच की थी, अपराधियों की पहचान और अगर वे गिरफ्तार किए गए थे तो उनके परीक्षण की बात प्रसारण में नहीं की गई थी। प्रसारण में लिंचिंग के पीछे की मंशा की जांच भी नहीं होती है, जो कि कथित तौर पर व्हाट्सएप द्वारा बच्चा चोरी की अफवाह थी। यह जानने की कोशिश नहीं होती है कि पीड़ित और आरोपी एक ही धर्म के हैं या नहीं।

    इसके बजाय यह प्रसारण मुख्य रूप से इस तथ्य पर केंद्रित रहता है कि मारे गए दो व्यक्ति साधु थे, जबकि तीसरे पीड़ित की पहचान को नजरअंदाज किया जाता है, और प्रसारण में पूछा जाता है कि "मोमबत्ती गैंग", "अवार्ड वापसी गैंग" और "धर्मनिरपेक्ष गिरोह" जो एक विशिष्ट समुदाय के लोगों की हत्या पर अपनी छाती पीटते थ है, अब चुप क्यों है। प्रसारण में आक्रमक तरीके से यह कई बार दोहराया जाता है, कि भारत 80 प्रतिशत हिंदू आबादी वाला देश है। एक पैनलिस्ट बताता है और दूसरा दावा करता है कि अपराध का उद्देश्य "सांप्रदायिक" था, इस तरह के दावे के संबंध में कोई सामग्री पेश नहीं की जाती।

    सोनिया गांधी को एंटोनिया माइनों के रूप में संबोधित किया जाता है और कहा जाता है कि वो रोम के निर्देश पर काम कर रही हैं। हिंदुओं से बोलने का आह्वान किया जाता है और कहा जाता है कि चुप रहने का समय खत्म हो गया है। इन सभी के बीच टिकर पर कई उत्तेजक और सांप्रदायिक सवाल चल रहे होते हैं।

    यह बिल्कुल आश्चर्य की बात नहीं है कि इस वीडियो को देखने वाले सुप्रीम कोर्ट एफआईआर को रद्द नहीं करने का फैसला किया क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष और निहित दोनों तरह की हेट स्पीच शामिल है।

    द्वेषपूर्ण घृणा, जिसे न केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है, बल्कि भाषण, पृष्ठभूमि के दृश्य, ग्राफिक्स आदि के रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है, पर मुकदमा चलाया जा सकता है, क्योंकि IPC के ‌हेट स्पीच से जुड़े अधिकांश प्रावधानो में "शब्दों, या तो लिखित या संकेत द्वारा और दृश्य, या तो प्रत्यक्ष या अन्य तरीके से" व्यक्त हेट स्पीच को शामिल किया गया है।

    सुप्रीम कोर्ट ने काफी हद तक सही ही किया है कि प्रसारण की सामग्री, या मामले की खूबियों पर टिप्पणी नहीं की है, क्योंकि इससे निचली अदालतों की कार्यवाही प्रभावित होगी। हालांकि, तथ्य यह है कि एफआईआर रद्द न करके, सुप्रीम कोर्ट ने प्रसारण को "भाषण और अभिव्यक्ति" के अधिकारों के अनुरूप नहीं पाया है।

    सुप्रीम कोर्ट के नतीजों से यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत दिए गए मौलिक अधिकार का प्रयोग निरपेक्ष नहीं है और अनुच्छेद 19 (2) के प्रावधानों के संदर्भ में लागू कानूनी व्यवस्था के लिए जवाबदेह है। साथ ही "याचिकाकर्ता, अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत प्रदत्त अपने अधिकार के बदले एफआईआर की जांच से बच नहीं सकता है ..."।

    जैसे श्री गोस्वामी के कार्यक्रम में जैसे प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से बाते कही जाती हैं, वैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने श्री गोस्वामी के लिए प्रत्यक्ष रूप से प्रक्रियात्मक निष्पक्षता को सुनिश्चित किया है और परोक्ष रूप से स्पष्ट किया है कि नफरत फैलाना अभिव्य‌क्ति की स्वतंत्रता नहीं है।

    ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

    (लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं।)

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