पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई का राज्यसभा जाना : न्यायपालिका और विधायिका का बेमेल मिलन एवं अन्य असहमतियां

SPARSH UPADHYAY

19 March 2020 6:36 AM GMT

  • पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई का राज्यसभा जाना : न्यायपालिका और विधायिका का बेमेल मिलन एवं अन्य असहमतियां

    यह बात समझ से परे है कि जो व्यक्ति, उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में न्याय की मूर्ती के तौर पर पद ग्रहण करते हुए, संविधान एवं विभिन्न कानूनों की व्याख्या करते हुए न्याय कर रहे होते हैं, और सवा सौ करोंड़ लोगों का भाग्य तय कर रहे होते हैं, वो लोग अपनी सेवानिवृत्ति के बाद स्वयं के हित को क्यों अपनी प्रामाणिकता एवं सत्यनिष्ठा से ऊपर रख देते हैं?

    आज सुबह 11 बजे, तारीख 19-03-2020। इस क्षण को किसी डायरी में नोट किया जाना चाहिए और हमेशा-हमेशा के लिए स्मृति (अच्छी या बुरी, आप स्वयं तय कीजिए) के रूप में रख लिया जाना चाहिए।

    आज भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश (जो 4 महीने पहले ही अपने पद सेवानिवृत्त हुए हैं) न्यायपालिका के मजबूत दरवाजे को खोलकर, शायद एक अनकही मर्यादा की सीमा को लांघ कर, विधायिका के विशाल महल में प्रवेश कर चुके हैं (सरकार के समर्थन से)। देश-दुनिया, आप और हम देखेंगे।

    शायद आज के बाद कुछ भी नहीं बदलेगा, एक व्यक्ति जो सेवानिवृत्ति प्राप्त कर चुका है, एक सर्वोच्च संवैधानिक पद पर रहा है, अनुभवी है, वो राज्यसभा का सदस्य बन जायेगा। इससे शायद देश का, और आम जनता का भला ही होगा, लेकिन शायद इन सबके साथ ही हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि यह व्यक्ति कौन है, और इसका इतिहास क्या रहा है।

    भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई के कथन से ही शुरुआत करते हैं। उन्होंने कहा था,

    "कड़वी सच्चाई स्मृति में बनी रहनी चाहिए।" यह कहते हुए हालाँकि उन्होंने इस सच्चाई की कड़वाहट की सीमा तय नहीं की थी, और बेशक आज वह सच्चाई हम सबके सामने है, जब वह राज्यसभा के सदस्य के रूप में शपथ ले रह होंगे, वह भी उसी सरकार द्वारा भेजे जाने के फलस्वरूप, जिस सरकार ने अनगिनत मामलों में उनके समक्ष पैरवी की होगी।

    लेकिन जैसा कि कहा जाता है, सच्चाई अक्सर कड़वी होती है, लेकिन यह कड़वी सच्चाई हमेशा सेहतमंद भी हो, ऐसा कत्तई नहीं हो सकता। हमारे जनतंत्र के लिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई का राज्यसभा में सदस्य के रूप में जाना (राष्ट्रपति द्वारा नामित किये जाने के फलस्वरूप), एक अच्छा संकेत नहीं है।

    और जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जस्टिस, कुरियन जोसेफ ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई द्वारा राज्यसभा सीट स्वीकार करने पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लाइव लॉ से बातचीत करते हुए कहा;

    "हमारा महान राष्ट्र बुनियादी संरचनाओं और संवैधानिक मूल्यों पर मजबूती से टिका हुआ है, मुख्य रूप से स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए धन्यवाद। जिस पल लोगों का यह विश्वास हिल गया है, उस पल यह धारणा है कि न्यायाधीशों के बीच एक वर्ग पक्षपाती हो रहा है।"

    इस लेख के केंद्र बिंदु में एक ही व्यक्ति रहने वाले हैं, और वो हैं भारत के 46वें मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई, जिन्हें हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने राज्यसभा के मनोनीत सदस्य के रूप में नामित किया है।

    दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार, 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा काउंसिल ऑफ स्टेट्स में नामित किया जाता है, जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा के रूप में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव हो।

    भारत के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति गोगोई को नामित सदस्य में से एक, के. टी. एस. तुलसी के सेवानिवृत्त होने के कारण रिक्त स्थान को भरने के लिए नामित किया गया है।

    पूर्व सीजेआइ रंजन गोगोई: शोर मचाने की उम्मीद देकर शांत रहने वाले मुख्य न्यायाधीश

    मुझे याद है, वर्ष 2018 में जब इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप द्वारा सुप्रीम कोर्ट के उस समय के दूसरे वरिष्ठतम जज, रंजन गोगोई को रामनाथ गोयनका मेमोरियल लेक्चर के लिए बतौर वक्ता चुना गया था, तो मुझे इस बात को लेकर काफी उम्मीद थी कि यह लेक्चर कई मायनों में उनके आने वाले कार्यकाल (बतौर मुख्य न्यायाधीश) के रोडमैप की कहानी बयान करेगा और हुआ भी यही। हालाँकि, यह बस बातों तक सीमित था।

    उन्होंने अपने लेक्चर में यह कहा था कि, "न केवल स्वतंत्र न्यायाधीश और शोरगुल करने वाले पत्रकार, बल्कि यहां तक कि स्वतंत्र पत्रकार और कभी-कभार शोरगुल करने वाले न्यायाधीश भी समय की मांग हैं।"

    उनका इशारा साफ़ था कि शायद मौजूदा वक़्त में तमाम प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता थी। हालाँकि, यह बात और है कि वो परिवर्तन की ओर इंगित अवश्य कर रहे थे, पर वे स्वयं परिवर्तन करने के इच्छुक नहीं थे।

    लाइव लॉ के मैनेजिंग एडिटर, मनु सेबेस्टियन के इस लेख में तमाम ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जिनमे यह साफ़ तौर पर जाहिर होता है कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई के पास ऐसे बहुत से स्वर्णिम अवसर थे जब वे अपने फैसलों के जरिये शोर मचा सकते थे, लेकिन उन्होंने शांत रहना चुना।

    मैं इन तमाम उदाहरण में कुछ अन्य मामलों को जोड़ना चाहूँगा। यहाँ यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि शोर मचाने का तात्पर्य केवल यह ही नहीं होता की बहुत कुछ, बहुत जोर से बोला ही जाए, यह ठीक उस प्रकार है कि शान्ति का मतलब, चुप ही रहना नहीं होता।

    आप या तो अपनी संस्था और आम-जन के हित में कुछ बहुत प्रभावशाली कदम उठा कर शोर मचा सकते हैं (या तो मुखर रूप से बोलते हुए अथवा अन्यथा), या तो आप उसी संस्था और आम-जन के हितों से मुंह फेर कर शांत रह सकते हो (या तो मुखर रूप से बोलते हुए अथवा अन्यथा)।

    इसलिए शोर मचाने और शांत रहने के प्रत्येक मामले को उसके सन्दर्भ के अनुसार समझा जाना चाहिए। चलिए, अब मै कुछ उदाहरण पेश करता हूँ।

    अयोध्या मामला

    भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई द्वारा अयोध्या मामला सुनने के लिए 5 जजों की बेंच गठित करना भी हैरानी भरा फैसला था जबकि मूल रूप से इस मामले को 3 जजों की बेंच को भेजा गया था। इस समबन्ध में उनकी ओर से सुप्रीम कोर्ट नियमों का हवाला अवश्य दिया गया लेकिन तमाम लोगों को यह तर्क पचा नहीं।

    अभिजीत अय्यर-मित्रा मामला

    अक्टूबर 2018 में एक टिप्पणीकार, अभिजीत अय्यर-मित्रा, जो कोणार्क सूर्य मंदिर वास्तुकला और उड़ीसा संस्कृति पर कथित अपमानजनक टिप्पणी के आरोपों का सामना कर रहे थे उन्होंने शीर्ष अदालत में अपनी हैबियस कॉर्पस याचिका दायर की जब वो जेल में थे।

    राहत देने से मना करते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह रिकॉर्ड पर टिपण्णी की थी: " यदि आप कहते हैं कि आपको खतरों का सामना करना पड़ता है, तो आपके लिए सबसे सुरक्षित स्थान जेल में होगा। आपका जीवन सुरक्षित हो जाएगा। आपने धार्मिक भावनाओं को भड़काया है।"

    सर्वोच्च अदालत द्वारा हैबियस कॉर्पस याचिका में एक बंदी को यह कहा जाना कि वह जेल में ही सुरक्षित है, जबकि वह बंदी, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर रहा है, यह हैरान भरा एवं मजाक से भरा आदेश जान पड़ता है। पर कश्मीर से सम्बंधित हैबियस कॉर्पस याचिका के अलावा इस मामले में भी हमने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) रंजन गोगोई के दौर में ऐसे ही कुछ आदेश देखे।

    महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती का मामला

    जब एक याचिकाकर्ता, जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने श्रीनगर में अबाध संचरण (Movement) के अधिकार का दावा करना चाहती थी, तो उनसे सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि वह श्रीनगर में अबाध संचरण (Movement) की स्वतंत्रता क्यों चाहती हैं।

    "तुम क्यों घूमना चाहती हो? श्रीनगर में बहुत ठंड है," भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने पूछा था। यह मौखिक टिपण्णी न्यायाधीश गोगोई द्वारा तब की गयी थी जब इल्तिजा की वकील, नित्या रामकृष्णन ने उनके द्वारा स्वतंत्र रूप से यात्रा करने की अनुमति मांगी थी।

    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं तत्कालीन सीजेअई रंजन गोगोई की सुप्रीम कोर्ट में मुलाकात

    25 नवम्बर, 2018 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को को बिम्सटेक देशों - बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, नेपाल और थाईलैंड के न्यायाधीशों के लिए आयोजित एक रात्रिभोज में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था।

    प्रधानमंत्री मोदी इस कार्यक्रम में पहुंचे और वहां मौजूद लोगों के अनुसार, उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को आश्चर्यचकित करते हुए यह मांग की कि वह उन्हें कोर्ट नंबर 1 दिखाएँ जहाँ वह स्वयं बैठते हैं।

    यह तब की बात है जब वर्ष 2002 में गुजरात को हिला देने वाली सांप्रदायिक हत्याओं के लिए प्रधानमंत्री मोदी (तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात सरकार) के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग करने वाली ज़किया जाफ़री की याचिका शीर्ष अदालत (सीजेआई के अलावा किसी अन्य पीठ) के समक्ष लंबित थी। जानकारी के लिए बता दें कि यह मामला आज भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।

    न्यायमूर्ति अकिल कुरैशी मामला

    सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने न्यायमूर्ति अकिल कुरैशी को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति करने की सिफारिश 10 मई, 2019 को की थी। केंद्र द्वारा 10 मई के बाद न्यायिक नियुक्तियों की 18 फाइलों को मंजूरी दी गई (हालाँकि न्यायमूर्ति अकिल कुरैशी की फ़ाइल को मंजूरी नहीं मिली)।

    27 अगस्त को केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को अपना जवाब भेजा। सूत्रों के मुताबिक केंद्र सरकार ने न्यायमूर्ति अकिल कुरैशी को प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने में असमर्थता जताई थी।

    फिर सितम्बर, 2019 में एक आश्चर्यजनक कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने त्रिपुरा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति अकील कुरैशी के नाम की सिफारिश करदी और अंततः नवम्बर, 2019 में केंद्र की अधिसूचना के बाद, उन्होंने त्रिपुरा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की शपथ ली।

    वो क्या परिस्थितियां थीं जिनमे कॉलेजियम को अपना निर्णय बदलना पड़ा या साफ़ नहीं पर यह जरुर तय है कि इस निर्णय को बदलने के काफी गंभीर एवं दूरगामी संकेत एवं परिणाम हैं। इससे न्यायपालिका का कार्यपालिका के समक्ष झुकना सबके सामने साफ़ तौर पर दिखा वो भी बिना किसी कारण के, जबकि ऐसी परिस्थिति में, जबकि कॉलेजियम, कार्यपालिका के निर्णय के बाद अपना निर्णय बदल रहा था, कॉलेजियम को अपने निर्णय को बदलने का कारण देना चाहिए था

    रंजन गोगोई के नामित होने से मेरी असहमति

    हाल ही में पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई ने असमिया न्यूज़ एजेंसी पार्टिडिन से बात करते हुए यह कहा कि मैंने इस दृढ़ विश्वास के कारण राज्यसभा में नामांकन की पेशकश को स्वीकार किया है कि विधायिका और न्यायपालिका को इस समय एक साथ काम करना चाहिए।

    (संभवतः) अपने बचाव में बोलते हुए जस्टिस गोगोई ने कहा, "संसद में मेरी उपस्थिति विधायिका के समक्ष न्यायपालिका के विचारों को प्रस्तुत करने का एक अवसर होगी। ...भगवान मुझे संसद में एक स्वतंत्र आवाज़ देने की शक्ति दें।"

    मुझे लगता है कि यदि पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति गोगोई की विधायिका के समक्ष न्यायपालिका की आवाज़ बनने की आकांक्षा थी तो वह एक पॉलिटिकल पार्टी (या स्वयं की पार्टी बनाते) की सदस्यता लेते और लोगों के द्वारा चुन कर लोक-सभा (या विधान-सभा, आगामी 2021 असम चुनाव) के जरिये आते और सीधे तौर पर लोगों का लोगों का प्रतिनिधित्व करते। इससे न केवल उनके ऊपर किसी प्रकार का प्रश्न चिन्ह नहीं लगने पाता बल्कि उनकी बात भी सार्थक सिद्ध हो जाती।

    वो एक स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर भी चुनाव लड़कर लोक-सभा (या विधान-सभा) के जरिये आ सकते थे, इससे उनकी विधायिका एवं न्यायपलिका के बीच की कड़ी बनने की इच्छा को और अधिक बल मिलता और शायद वो इससे अधिक सम्मानजनक भी होता बजाय इसके कि वो एक ऐसे रूट से विधायिका में प्रवेश करें, जहाँ उन्हें प्रवेश दिलाने वाली संस्था के लिए वे अनगिनत मामलों में निर्णायक की भूमिका निभा चुके हैं।

    राष्ट्रपति द्वारा नामित होने और सीधे तौर पर सत्तारूढ़ दल द्वारा राज्यसभा भेजे जाना उतनी साधारण बात नहीं जितनी शायद लग रही हो। यदि गौर किया जाए तो हमे यह समझ में आएगा कि न्यायपालिका में ज्यादातर मामले सरकार के विरुद्ध होते हैं, अर्थात सरकार के विरुद्ध लडे जाते हैं, जाहिर है इनमे से कई मामले सरकार के विरुद्ध तय किये जाते हैं और कई फैसले पक्ष में।

    यदि न्यायाधीश यह सोच कर फैसले लेने लगें कि उन्हें सेवानिवृत्त होने के पश्च्यात सरकार के जरिये ही किसी पद की प्राप्त होनी है, तो क्या वे सरकार के पक्ष में फैसले देने की शुरआत नहीं करेंगे? और पूर्व में ऐसे उदाहरण रहे भी हैं जहाँ सरकार के पक्ष में फैसले लेने वाले न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त होने के पश्च्यात सरकार की ओर से पद दिया गया है (पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई ताज़ा उदाहरण हैं)।

    इसलिए, इस पूरे लेख में मेरा सवाल यह नहीं कि एक पूर्व न्यायमूर्ति, विधायिका में प्रवेश कर सकते हैं अथवा नहीं, बल्कि चिंता यह है कि उनके द्वारा सरकार से किसी भी प्रकार के लाभ को प्राप्त नहीं किया जाना चाहिए। हालाँकि, जिस प्रकार से पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई विधायिका में प्रवेश कर रहे हैं, उससे मेरी असहमति है और इसीलिए मै इसे न्यायपालिका और विधायिका का बेमेल मिलन करार देता हूँ (पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई प्रकरण के सन्दर्भ में)।

    इसके अलावा, उनपर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों के चलते भी वो विवादों में रहे, हालाँकि इस मामले पर अधिक इसलिए नहीं कहा जाना चाहिए कि वे सभी किसी प्रकार से सिद्ध नहीं हुए। पर जिस प्रकार से उन्होंने स्वयं ही अपने मामले में न्यायाधीश बनने का प्रयास किया (जोकि सफल रहा) उसपर प्रश्न उठाना लाज़मी है।

    सेवानिवृत्ति के बाद सरकार से पद लेने का मोह स्वयं त्यागना बेहतर

    यह बात समझ से परे है कि जो व्यक्ति, उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में न्याय की मूर्ती के तौर पर पद ग्रहण करते हुए, संविधान एवं विभिन्न कानूनों की व्याख्या करते हुए न्याय कर रहे होते हैं, और सवा सौ करोंड़ लोगों का भाग्य तय कर रहे होते हैं, वो लोग अपनी सेवानिवृत्ति के बाद स्वयं के हित को क्यों अपनी प्रामाणिकता एवं सत्यनिष्ठा से ऊपर रख देते हैं?

    क्यों वो लोग यह जोखिम लेते हैं कि उनके द्वारा तय किये मामलों को किसी भी प्रकार के शक के दायरे में रख कर देखा जाये या उसके अलग-अलग मायने निकाले जाएँ? न्यायिक व्यवस्था पूर्ण रूप से आम-जन की आस्था एवं विश्वास के बल पर फलती एवं फूलती है, यदि इसी आधार को नष्ट कर दिया जायेगा तो क्या शेष रह जायेगा?

    हालाँकि, इसे सभी न्यायमूर्तियों के लिए समान रूप से लागू नहीं किया जाना चाहिए। ज्यादातर ऐसे न्यायमूर्ति हैं जो अपनी सेवानिवृत्ति के बाद किसी प्रकार के पद में कोई रूचि नहीं दिखाते हैं। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के कई जजों ने पूर्व में ही कहा है कि वो किसी भी पोस्ट रिटायरमेंट पद को ग्रहण नहीं करेंगे, इनमे जस्टिस आर. एम. लोढा, जस्टिस जे. एस. खेहर, जस्टिस जस्ती चेलामेश्वर, और जस्टिस एस. एच. कपाड़िया शामिल हैं।

    लेकिन, अफ़सोस कि पूर्व सीजेआइ गोगोई इस सूची में जगह नहीं बना सके, खैर, उनका नाम आज से राज्यसभा की सदस्य सूची में हुआ करेगा। हम यहाँ से अब यही उम्मीद कर सकते हैं कि वो जनता के हितों को सर्वोपरि रखते हुए एक अच्छे सांसद के तौर पर पाने कर्तव्यों का निर्वहन करें और वह सबकुछ करें जो एक आदर्श सांसद को करना चाहिए।

    हालाँकि, बात यहीं खत्म नहीं होती है। यह जरुरी है कि जहाँ एक ओर वो एक अच्छे सांसद के तौर पर मिसाल बनें, वहीँ वे मौजूदा न्यायमूर्तियों के लिए एक सीख बनें कि क्यों उन्हें सरकार से फायदा लेने हेतु न्यायपालिका की पावन चौखट को लांघने से पहले खुद को रोकने का हर संभव प्रयास करना चाहिए और क्यों अपनी सत्यनिष्ठा और प्रामाणिकता को दांव पर लगने से बचाना चाहिए।

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