COVID-19 और मरीजों के अधिकार

  • COVID-19 और मरीजों के अधिकार

    डॉ अनीता यादव & राकेश मिश्रा

    भारत जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में दूसरे स्थान पर आता है, जहां लगभग 1.36 अरब लोग निवास करते हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार देता है तथा जीने के लिए अच्छे स्वास्थ्य का होना बेहद जरूरी है। हर व्यक्ति की यही कामना होती है कि वह और उसका परिवार सेहतमंद रहें लेकिन कई बार चाहे-अनचाहे उन्हें बीमारियां घेर लेती हैं। समकालीन समय में कोविड-19 के कारण स्थिति और भयावह होती जा रही है।

    भारत में लगभग 1.9 लाख के करीब कोविड-19 के मरीज हो चुके हैं तथा रोज लगभग 8171 पॉजिटिव केस दर्ज किए जा रहे हैं। दिल्ली एम्स के निदेशक के अनुसार कोविड-19 की शीर्ष स्थिति अभी आनी बाकी है, जिसकी संभावना जून-जुलाई में व्यक्त की जा रही है। अतः एक मरीज के तौर पर यदि कोई व्यक्ति अस्पताल जाता है, चाहे वह सरकारी अस्पतालों या निजी अस्पताल, वहां उस मरीज की क्या अधिकार हैं? यह जानना अत्यंत आवश्यक है।

    डॉक्टर-मरीज संबंध Uberrima Fides के सिद्धांत पर आधारित है, जो 'उत्तम आस्था का विचार' है। डॉक्टर को भगवान का दर्जा प्राप्त है किंतु कालांतर में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुई जिसने इस आस्था को धूमिल किया। उदाहरणस्वरूप ऑपरेशन के दौरान डॉक्टरों द्वारा की गई उपेक्षाएं सामने आने लगी जैसे कि अंगों में सर्जिकल उपकरण छोड़ना, टावेल छोड़ना, ग्रसित अंग के बजाय स्वास्थ्य अंग का ऑपरेशन कर देना आदि। सामान्य नागरिक के लिए इन उपेक्षाओं का अर्थ किसी काम को ठीक ढंग से न करना हो सकता है किंतु कानून की नजर में जब कोई डॉक्टर जो मरीज के प्रति सावधानी बरतने का कर्तव्य धारण करता हो तथा उसके द्वारा उस कर्तव्य का उल्लंघन किया गया हो, जिसके परिणामस्वरूप मरीज को क्षति पहुंची हो, तो कानूनी दृष्टि से इसे उपेक्षा माना जाता है।

    उपेक्षा से संबंधित प्रावधान अपकृत्य विधि और भारतीय दंड संहिता, 1860 दोनों में निहित है। अपकृत्य विधि के अंतर्गत क्षतिपूर्ति के लिए सिविल अदालतों में मुकदमे दायर किए जा सकते हैं जबकि भारतीय दंड संहिता में सजा दिलाने हेतु फौजदारी अदालतों में ऐसा किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी कई मामलों में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 21 के अधीन प्राण के अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार भी सम्मिलित है। सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराएं अतः यह कहा जा सकता है कि इनके अतिक्रमण को लेकर अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय एवं अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत कर प्रतिकर पाया जा सकता है।

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 का अधिनियमितिकरण, देश के उपभोक्ता आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इस अधिनियम को उपभोक्ता अधिकारों के बेहतर संरक्षण और संवर्धन हेतु बनाया गया था। इस अधिनियम के लागू होने के पश्चात उपभोक्ता न्यायालयों ने चिकित्सा सेवा में की गई उपेक्षाओं के संबंध में मरीजों से शिकायतें प्राप्त करना शुरू कर दी। वसंता पी० नय्यर बनाम बी० पी० नय्यर के वाद में राष्ट्रीय आयोग ने कहा कि मरीज 'उपभोक्ता' है तथा चिकित्सकीय सहायता 'सेवा' है अतः जहां सेवा में कोई कमी हो, वहां उपभोक्ता फोरमों को अधिकार प्राप्त हो जाते है।

    चिकित्सा व्यवसाय को उपभोक्ता न्यायालय की परिधि में लाने पर इससे जुड़े लोगों द्वारा आपत्ति जताई गई तथा तर्क दिया गया कि उपभोक्ता न्यायालयों के पास विशेषज्ञता नहीं है। यह भी कहा गया कि डॉक्टर मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया/स्टेट मेडिकल काउंसिलो के अनुशासनात्मक नियंत्रण में कार्य करते हैं और उन पर कार्रवाई करने का अधिकार इन्हीं काउंसिलो के पास है ना कि उपभोक्ता न्यायालयों के पास। इस विषय पर जो विवाद चल रहा था, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम बी॰ पी० शान्था एवं अन्य के वाद में इसे तर्कसंगत ढंग से नामंजूर कर दिया। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार, उपभोक्ता फोरम में मामला दर्ज कराने हेतु शिकायतकर्ता का उपभोक्ता होना आवश्यक है अतः यह कहा जा सकता है कि उपभोक्ता फोरम में वही व्यक्ति शिकायत दर्ज करा सकता है, जो मूल्य अदा करके चिकित्सा सेवा प्राप्त किया हो।

    इसमें निम्नलिखित दो शामिल हैं:

    • जहां हर मरीज पैसा खर्च करके चिकित्सकीय सेवाएं प्राप्त करता है।

    • जहां सेवाएं निशुल्क प्रदान की जाती हैं, किंतु उन सेवाओं के लिए कोई अन्य संस्था या व्यक्ति दान स्वरूप शुल्क देता है।

    जहां सेवाएं निशुल्क प्रदान की जाती हैं, वहाँ मरीज चिकित्सा सेवा में उपेक्षा की शिकायत नहीं दर्ज करा सकते हैं।

    उपेक्षा हेतु अन्य विधियों में प्रावधानों के रहते हुए भी वर्तमान समय में मरीजों द्वारा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को ही अधिक महत्व दिया जा रहा है। इसका कारण यह है कि जहां यह अधिनियम मरीजों को सस्ता एवं शीघ्र न्याय उपलब्ध कराता है, वहीं कई मामलों में क्षतिपूर्ति की रकम भी अधिक होती है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में क्षतिपूर्ति की रकम को और बढ़ा दिया गया है।

    10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वजनीन घोषणा अंगीकार की। इस घोषणा में पल्लवित मानवाधिकारों की सूची "सभी जन-समाजों और सभी राष्ट्रों के लिए उपलब्धि" का एक सामान्य मापदंड प्रस्तुत करती है। सार्वजनीन घोषणा सभी मनुष्यों की मौलिक गरिमा और समानता पर जोर देती है। घोषणा का अनुच्छेद 25(1) निम्नलिखित बातें कहता है:

    "प्रत्येक व्यक्ति को एक ऐसे जीवन- स्तर का अधिकार है जो स्वयं उसके और उसके परिवार के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए उपयुक्त हो, जिसमें भोजन, वस्त्र, आवास और चिकित्सा संबंधी देखरेख की उचित सुविधा तथा आवश्यक सामाजिक सेवाओं की व्यवस्था का, और बेरोजगारी, बीमारी, शारीरिक अक्षमता, वैधव्य, बुढ़ापा या उसके बस से बाहर की अन्य ऐसी परिस्थितियों में, जिसमें वह अपनी जीविका अर्जित करने में असमर्थ हो जाए, सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था का समावेश है।"

    इस अवधारणा के आधार पर दुनिया भर में मरीजों के अधिकारों को विकसित करने का प्रयास किया गया है। भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में मरीजों को विभिन्न प्रावधानों के तहत अधिकार दिए गए हैं, जो बिखरे हुए दिखते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21, भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम (व्यवसायिक नियमावली 2002), उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2002, औषधि एवं रसायन अधिनियम 1940, चिकित्सकीय परीक्षण अधिनियम 2010 एवं माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए विभिन्न निर्णयो के तहत मरीजों से संबंधित अधिकार को सुरक्षित रखा गया। इसके साथ ही भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र के व्यवसायीकरण ने स्वास्थ्य सेवा प्रदाता और मरीजों के बीच विषमता को और बढ़ा दिया। चिकित्सा क्षेत्र में नैतिक आचार संहिता होने के बावजूद मरीजों को पर्याप्त रूप से संरक्षण नहीं मिल पाया। इन्हीं कारणों को देखते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मरीजों के अधिकारों संबंधी चार्टर को प्रस्तावित किया। यह चार्टर वास्तव में अंतरराष्ट्रीय चार्टर से ही प्रेरित है। इस चार्टर के तहत मरीजों को 17 अधिकार दिए गए हैं।

    यद्यपि ये 17 अधिकार मरीजों हेतु मूलभूत अधिकार हैं परंतु हम यहां उन्ही अधिकारों की चर्चा कर रहे है जो आज कोविड-19 व्याधि के दौरान महत्वपूर्ण प्रतीत हो रहे हैं:

    1) चार्टर का पहला प्रावधान यह बताता है कि प्रत्येक मरीज को अपनी बीमारी के बारे में जानने का अधिकार है। इसके साथ ही मरीज की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी तथ्यात्मक जानकारी एवं उपचार संबंधी प्रमाण प्राप्त करने का अधिकार है। कोविड-19 के दौर में यदि किसी व्यक्ति को आशंका होती है कि उसे रोग के लक्षण है तो उसे यह अधिकार प्राप्त होना चाहिए कि वह अपनी शंका के समाधान हेतु डॉक्टर से सलाह लें तथा यथोचित स्थान से जांच कराकर संतुष्ट हो जाए। यदि ऐसा नहीं होता तो मरीज स्वयं के साथ- साथ समाज एवं उसकी देखरेख करने वाले को भी संक्रमित कर सकता है। सरकार द्वारा इस स्थिति से निपटने के लिए सरकारी जांच केंद्रों के साथ- साथ कई निजी जांच केंद्रों में भी कोविड जाँच हेतु सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर मरीजों हेतु विशेष कोविड अस्पतालो का भी सृजन किया गया है। इस संदर्भ में गुजरात हाई कोर्ट का फैसला अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहां निजी चिकित्सकों एवं आम जनता को राहत देते हुए कहा गया कि यदि डॉक्टर कोविड टेस्ट कराने को कहते हैं तो सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है।

    2) मरीज को अपने रिकॉर्ड और रिपोर्ट रखने का अधिकार होगा। साथ ही मरीजों के संबंधी को अपने मरीज के अस्पताल से सेवा मुक्ति होने के बाद, सेवा मुक्ति विवरण तथा मृत्यु संबंधी विवरण की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने का अधिकार होगा। कोविड-19 के दौर में इस महत्वपूर्ण माना जा सकता है। कोविड-19 के मरीज को समाज हेय दृष्टि से देखता है क्योंकि इनसे संक्रमण का खतरा रहता है। किंतु एक बार जब कोविड मरीज को अस्पताल से सेवा मुक्ति का प्रमाण पत्र मिल जाता है तो यह भ्रांति भी मिट जाती हैI सरकार एवं अस्पतालों की विशेष पहल जिसमें कोविड से ठीक हुए मरीजों को 'कोरोना योद्धा' नाम से निरूपित किया जा रहा है तथा अस्पतालों से विदाई के समय तालियों की गूंज से इन्हें विदा किया जा रहा है, विशेष रूप से प्रशंसनीय है।

    3) मरीज को स्वास्थ्य आपात की समस्या के दौरान चिकित्सकीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार होगा। अस्पताल चाहे वह सरकारी हो या निजी का कर्तव्य होगा कि आपात सुविधा प्रदान करने हेतु उचित चिकित्सक एवं स्टाफ की व्यवस्था करें। ज्ञातव्य है कि कोविड-19 के दौर में केवल अल्पमात्र के ही निजी अस्पताल कार्य कर रहे हैं तथा सरकारी कोविड अस्पताल मरीजों से भरे हुए हैं। यहाँ सरकार को नियामक की भूमिका निभानी होगी ताकि ऐसी आपात स्थिति उत्पन्न होने पर चाहे वह कोविड-19 का मरीज हो या अन्य किसी गंभीर बीमारी का मरीज, उसे समुचित चिकित्सकीय सहायता मिल सके। सरकार इस दिशा में तेजी से कार्य कर रही है। चिकित्सकों एवं स्टाफ को अनिवार्य प्रशिक्षण विभिन्न मंचों से दिया जा रहा है तथा निजी अस्पतालों एवं स्टाफो की संख्या में इजाफा किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार को कहा है कि वह ऐसे निजी अस्पतालों को चिन्हित करें, जहां कम लागत या निशुल्क कोविड चिकित्सकिय सुविधा उपलब्ध कराई जा सकें।

    4) प्रत्येक मरीज को किसी भी जोखिमपूर्ण उपचार या परीक्षण करने से पहले संभावित सूचनाएं पूर्व में देनी होगी तथा वह इनसे उत्पन्न होने वाले जोखिमो के प्रति देखभाल संबंधी सूचना को भी प्राप्त करने का अधिकारी होगा। जैसा कि कोविड-19 का अभी तक कोई वैध इलाज नहीं है अतः कोई भी उपचार अपनाने से पहले मरीज को इसकी सूचना देनी चाहिए, चाहे वह हाइड्रोक्लोरोक्वीन आधारित पद्धति से उपचार हो या प्लाज्मा पद्धति से।

    5) प्रत्येक मरीज को अपनी निजता को बनाए रखने का अधिकार होगा और डॉक्टर को मरीज के रोग संबंधी जानकारी को गोपनीय रखना होगा ताकि उसकी गरिमा का हनन न हो। कोविड-19 के दौर में इस अधिकार का सबसे ज्यादा उल्लंघन होता दिख रहा है जैसे कोविड संदिग्धों के नाम, पते, फोन नंबर, पासपोर्ट आदि सार्वजनिक किए जा रहे हैं, होम क्वॉरेंटाइन किए गए संदिग्ध लोगों के घर के आगे स्टीकर लगा दिए गए हैं और इसे सोशल साइट पर भी शेयर किया गया है। कोविड से संक्रमित और प्रभावित मरीजों की निजता को ध्यान में रखते हुए उड़ीसा सरकार की पहल विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसमें प्रभावित या संक्रमित व्यक्ति, उसके परिजन, रिश्तेदार, इलाज कर रहे डॉक्टर और इनके पते को गुप्त रखने का निर्देश है। साथ ही मीडिया संस्थानों को भी ऐसी निजी जानकारी छापने से प्रतिबंधित किया गया है।

    6) मरीज को अपने रोग के लिए द्वितीयक परामर्श लेने का अधिकार होगा।

    7) मरीज को अस्पताल द्वारा दी जा रही सेवाओं के लिए निर्धारित मूल्य की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार होगा। सरकार ने इस विषय पर स्पष्ट राय रखी है, अगर जाँच की बात करें तो प्रारंभ में इसके लिए अधिकतम ₹4500 निर्धारित थे लेकिन वर्तमान में राज्यों को यह अधिकार दे दिया गया है कि वे निजी प्रयोगशालाओं से बातचीत करके आपसी सहमति से जांच की कीमत तय करें। सरकार की सबसे अहम स्वास्थ्य योजनाओं में से एक आयुष्मान भारत योजना कोविड-19 से जंग में बेहद प्रभावी साबित हो रही है। इस योजना के तहत आने वालों हेतु इस बीमारी की जांच व इलाज निशुल्क है।

    8) मरीज को किसी भी भेदभाव के बिना उपचार प्राप्त करने का अधिकार होगा। कोविड-19 के मरीज को उसकी धर्म, जाति, लिंग, भाषाई या भौगोलिक उत्पत्ति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त बीमारियों के आधार पर भी विभेद नहीं होना चाहिए। हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को समीक्षा हेतु कहा है, जहां एक हृदय के मरीज को गैर कोविड मरीज के आधार पर एक मेडिकल कालेज अस्पताल ने इलाज से मना कर दिया था।

    9) मरीज को अस्पताल में सुरक्षित एवं गुणवत्ता युक्त वातावरण प्राप्त करने का अधिकार होगा जैसे सफाई, स्वच्छ पानी, संक्रमण से नियंत्रित करने वाले उपाय आदि। कोविड-19 के समय अस्पताल हो या क्वेरेंटाइन केंद्र सभी जगह अनियमितताएं सामने आ रही हैं जैसे- लोगों को खाना नहीं मिल पा रहा है, कोविड व गैर-कोविड मरीजो को एक साथ रखा जा रहा है, विद्युत के साथ-साथ सफाई की व्यवस्था कमजोर दिख रही हैं। दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में सरकार को यह आदेश दिया है कि क्वॉरेंटाइन केंद्रों में कोविड संक्रमित और गैर-कोविड व्यक्तियों को भोजन एवं पानी की अलग-अलग व्यवस्था सुनिश्चित करे।

    10) मरीज को वैकल्पिक उपचार को चुनने का अधिकार होगा जो उस रोग के लिए उपलब्ध हो।

    11) मरीज को चिकित्सक द्वारा निर्धारित दवा या जाँच किसी भी फार्मेसी या पंजीकृत मेडिकल स्टोर से लेने का अधिकार होगा। ज्ञातव्य है कि कोविड की जांच केवल सरकार द्वारा निर्देशित जांच केंद्रों पर ही संभव है।

    12) मरीज को लगातार स्वास्थ्य संबंधी देखभाल पाने के लिए स्थानांतरण का अधिकार होगा।

    13) नैदानिक परीक्षण में भाग लेने के लिए संपर्क करने वाले प्रत्येक मरीज को उचित सुरक्षा का अधिकार है। सभी नैदानिक परीक्षण केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन, स्वास्थ्य महानिदेशालय द्वारा जारी किए गए प्रोटोकाल और अच्छे नैदानिक अभ्यास दिशा-निर्देशों के अनुपालन में किए जाएंगे। कोविड-19 के संदर्भ में वैक्सीन अभी प्रायोगिक दौर में है। विश्व के समस्त देश इस वैक्सीन के निर्माण हेतु प्रतिस्पर्धा में है, ऐसे में अच्छे नैदानिक अभ्यास दिशा-निर्देशों की महत्ता परिलक्षित होती है।

    14) प्रत्येक मरीज जो बायोमेडिकल अनुसंधान में भागीदार के रूप में भाग ले रहा है, उसे सुरक्षा का अधिकार होगा।

    15) किसी मरीज को प्रक्रियागत विवादों के कारण छुट्टी लेने से नहीं रोका जा सकता। इसी प्रकार मृत शरीर को भी प्रक्रियागत विवादों के कारण उसके संबंधियों को लेने से नहीं रोका जा सकता। इन सबके अतिरिक्त जब तक मृत शरीर अस्पताल प्रशासन की निगरानी में है, वह उसे गरिमा पूर्वक रखेगा। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने अखबार में प्रकाशित खबरों के आधार पर स्वत: संज्ञान लिया, जहां दिल्ली के एक प्रतिष्ठित अस्पताल में मृत शरीर एक दूसरे के ऊपर पड़े हुए थे क्योंकि शव गृह में सिर्फ 80 शवों को रखने की जगह थी।

    16) मरीजों को स्वयं के संदर्भ में प्रासंगिक तथ्यों को जानने का अधिकार होगा जिससे वह स्वस्थ जीवन शैली जी सकें। सरकार इस मुद्दे पर उल्लेखनीय कार्य कर रही है, चाहे वह कोविड मरीज हो या गैर कोविड मरीज, सरकार इस संक्रमण से बचाव हेतु सभी को शिक्षित कर रही है जैसे सामाजिक दूरी की बात करना, मास्क पहनना, निरंतर हाथ साबुन या सैनिटाइजर से धोते रहना, बिना काम के घर से बाहर न निकलना आदि।

    17) मरीज को उनके स्वास्थ्य देखभाल पर शिकायत दर्ज करने का अधिकार होगा। इस चार्टर में उपयुक्त अधिकारों में से किसी एक के उल्लंघन के कारण परेशान होने पर निवारण का अधिकार है।

    अधिकार प्राप्त करने के लिए सभी को कर्तव्य का पालन भी करना होता है। महात्मा गांधी का कथन कि 'अधिकार का स्रोत कर्तव्य है। यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, अधिकार हमसे दूर नहीं रहेंगे। यदि कर्तव्यो को पूर्ण किए बिना ही हम अधिकारों के पीछे दौड़गे, तो वे हमसे दूर होते चले जाएंगे।' कोविड-19 संक्रमण के दौर में यह कथन महत्वपूर्ण है। मरीजों से भी कुछ कर्तव्यों के पालन की अपेक्षा की जानी चाहिए जैसे- डॉक्टर को स्वास्थ्य संबंधी प्रत्येक जानकारी दी जानी चाहिए, चिकित्सा के दौरान पूरा सहयोग देना चाहिए, निर्देशों का पालन करना चाहिए, चिकित्सक एवं स्टाफ की गरिमा का सम्मान रखना चाहिए आदि।

    (ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैंं)

    डॉ अनीता यादव, केंपस लॉ सेंटर, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और राकेश मिश्रा कैंपस लॉ सेंटर, दिल्ली विश्वविद्यालय एलएलबी छात्र प्रथम वर्ष के छात्र हैं।

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