सीलबंद कवर के जर‌िए सेंसरशिप: केरल हाईकोर्ट का मीडिया वन 'निर्णय'

LiveLaw News Network

10 Feb 2022 2:30 AM GMT

  • केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट की सिंगल जज बेंच ने मीडिया वन समाचार चैनल पर केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने के प्रश्न पर जब अपना फैसला सुरक्षित रख, तब यह अपेक्षा थी कि कोर्ट एक तर्कसंगत आदेश देगा, जिसमें कार्यकारी की कार्रवाई कठोर न्यायिक समीक्षा के अधीन हो सकती है।

    जैसा कि एक टीवी चैनल पर प्रतिबंध भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के मूल पर हमले के जैसा है, यह उम्मीद थी कि स्व-घोषित 'प्रहरी' आक्षेपित कार्यकारी आदेश को चतुर्मुखी आनुपातिकता मानक की कसौटी पर परखेगा और यह कि यदि कोर्ट प्रतिबंध को जारी रखने का इच्छुक था तो वह- आनुपातिकता मानक के अनुसार - कैसे यह दिखाएगा कि एक पूर्ण प्रतिबंध 'कम से कम प्रतिबंधात्मक उपाय' है, जो सरकार के लिए उपलब्ध है, और कैसे खतरे की सीमा सरकारी उपाय (यानी, पूर्ण प्रतिबंध) की कठोरता के लिए 'आनुपातिक' है।

    हालांकि हाईकोर्ट अपने 'निर्णय', जिसे जस्टिस एन नागरेश ने लिखा था, में प्रतिबंध को बरकरार रखा, मगर उसमें उपरोक्त अपेक्षाओं में से एक भी पूरी नहीं हो सकी।

    मैंने 'निर्णय' शब्द को उद्धरण चिह्नों के बीच रखा है। ऐसा इसलिए कि जब एक संवैधानिक अदालत, जिसे 'निर्णय' कहती है, उससे हम उम्मीद करते हैं कि उसमें (ए) कुछ कानूनी तर्क होंगे, (बी) एक परिणाम होगा, और (सी) ) कुछ ऐसा जो कानूनी तर्क को परिणाम से जोड़ता हो, होगा।

    जब (ए) न्यायालय द्वारा लिखे गए पाठ से गायब है तो यह समझना मुश्किल है कि कैसे, एक उद्देश्यपूर्ण तरीके से, न्यायालय ने जो दिया है उसे 'निर्णय' कहा जा सकता है।

    न्यायालय के 'निर्णय' में कानूनी तर्क रूप में जो दिया गया है, उसे संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है-

    -"राष्ट्रीय सुरक्षा" के मामलों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत और न्यायालयों के हस्तक्षेप की "बहुत सीमित भूमिका है (पैराग्राफ 32)।

    -वैदिक काल के एक पाठ, "अत्रिसंहिता" ने कहा गया है कि "राष्ट्रीय सुरक्षा" बहुत महत्वपूर्ण है। (पैराग्राफ 33)।

    -कुछ सामग्रियों को एक सीलबंद लिफाफे में न्यायालय को प्रस्तुत किया गया था, और इन सामग्रियों की जांच करने के बाद, न्यायालय ने पाया कि "सिफारिशें" "पूरी तरह से उचित" हैं (पैराग्राफ 37)।

    मुद्दा यह है, जब एक सरकारी वकील खड़ा होकर "राष्ट्रीय सुरक्षा" कहता है, तब क्या अदालतें पूरी तरह स्टार-चेंबर मोड में चली जा रही हैं। फिर वे खुद को बंद कर सकती हैं क्योंकि एक लोकतांत्रिक गणराज्य में उनका जो भी उद्देश्य था, वह पूरा हो गया (यह केरल हाईकोर्ट के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट पर भी लागू होता है, जिसके डिजी केबल नेटवर्क में दिए गए निर्णय को इस मामले में केरल हाईकोर्ट ने कमोबेश कॉपी-पेस्ट किया है।)

    एक स्वतंत्र निकाय के रूप में - एक न्यायालय के अस्तित्व का बहुत कम प्रयोजन दिखता है, जब वह यह मानता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन उचित है। ऐसा इसलिए कि सरकार ने सीलबंद लिफाफे में कुछ सामग्री जमा की है, अदालत ने उसे देखा है, और सब कुछ ठीक है।

    यह एक न्यायालय की जिम्‍मेदारी है कि जब वह स्वतंत्र भाषण पर पूर्ण प्रतिबंध को बरकरार रखता है तो किसी तरह से कम से कम जनता को यह समझाए कि यह प्रतिबंध कैसे उचित है और कोर्ट ने चार-चरणीय आनुपातिकता परीक्षण को कैसे संतुष्ट किया है (और अगर केरल हाईकोर्ट ने संविधान का अध्ययन करने में उतना ही समय बिताया होता जितना कि अत्रिसंहिता का अध्ययन करने में तो शायद वह इस बिंदु को थोड़ा बेहतर समझ सकता था)।

    संक्षेप में: केरल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने 1985 के यूके हाउस ऑफ लॉर्ड्स के एक फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल अदालत के दायरे से बाहर है।

    पहले बता दूं, जीसीएचक्यू निर्णय - जैसा कि यह आमतौर पर जाना जाता है- मुख्य रूप से ब्रिटिश विशेषाधिकार शक्ति के दायरे के बारे में था, यह कुछ ऐसा है, जिसका भारतीय संवैधानिक कानून में समकक्ष नहीं है।

    हालांकि, इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यह पूरी तरह रहस्यमय है कि एक ब्रिटिश निर्णय, जो संसदीय संप्रभुता का पालन करने वाले क्षेत्राधिकार के संदर्भ में दिया गया है, एक ऐसे संविधान की व्याख्या करने में कैसे प्रासंगिक है, जो मौलिक अधिकारों की कसौटी पर कार्यकारी कार्रवाई की न्यायिक समीक्षा का स्पष्ट रूप से प्रावधान करता है और जहां न्यायालयों ने यह निर्धारित करने के लिए एक स्पष्ट आनुपातिकता मानक विकसित किया है कि राज्य की कार्रवाई कब मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है।

    थोड़ी जांच करने पर यह समझ आता है कि जीसीएचक्यू मामले का उपयोग सुप्रीम कोर्ट के 2015 के फैसले तक जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस मामले में माननीय न्यायाधीश ने संभवत: अपने लॉ एसिस्टेंट को एक ऐसे मामले को खोजने के लिए कहा, जिससे कार्यपालिका को हर बार "राष्ट्रीय सुरक्षा" कहते ही यथासंभव छूट देता हो। और (अनुमानित रूप से) ब्रिटेन से एक ऐसा मामला मिल गया, और उन्होंने उसमें अपना निर्णय डाल दिया, इस पर विचार किए बिना कि न्यायिक समीक्षा और मौलिक अधिकारों के संदर्भ में, यूके और भारत बिल्कुल समान हैं या नहीं।

    2015 के उस फैसले के बाद के कई फैसलों में प्रासंगिकता या उपयुक्तता पर विचार किए बिना, उसी अवलोकन, और उसी अंश, और प्रोफेसर विलियम वेड के उसी संदर्भ को कॉपी-पेस्ट किया गया है। इस प्रकार इस न्यायशास्त्र का विकास हुआ है।

    किसी भी स्‍थ‌िति में केरल हाईकोर्ट का "निर्णय" ने सीलबंद कवर के रूप में विकसित भारतीय न्यायशास्त्र में एक और मूल्यवान योगदान को चिह्नित किया है, जहां सरकार और जज के बीच पास हुई गुप्त सामग्री की वेदी पर मौलिक अधिकारों का बलिदान किया जाता है। न तो याचिकाकर्ता और न ही जनता को यह पता चल पाया कि किसी नागरिक के अधिकारों को क्यों समाप्त किया गया है। ऐसा लगता है कि स्टार चैंबर को वास्तव में एक योग्य उत्तराधिकारी मिल गया है।

    गौतम भाटिया सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं। लेख पहली बार यहां प्रकाशित हुआ था।

    विचार व्यक्तिगत हैं।

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