क्या नाबालिग जेजे एक्ट, 2015 के तहत अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकता है? जानिए प्रावधान
Lakshita Rajpurohit
3 April 2022 1:27 PM IST
A person's a person, no matter how small." Dr. Seuss
किशोर न्याय(बालकों की देखरेख और संरक्षण)अधिनियम,2015 के संशोधन का मुख्य उद्देश्य बालकों के सामाजिक कल्याण, व्यक्तिगत विकास और उनमें सुधारात्मक परिवर्तन लाने का है, न कि उन्हें सज़ा इत्यादि से दंडित करने का।
इसके पश्चात भी यदि सामान्य दृष्टि से देखा जाए तो इस अधिनियम के अंतर्गत ऐसा कोई स्पष्ट अभिव्यक्त प्रावधान [Expressed Provision] नहीं है, जो की किशोर [ Juvenile] द्वारा अंतरिम जमानत [Anticipatory Bail] के लिए आवेदन करने की बात करता हो। तो क्या यह अधिकार मात्र वयस्क व्यक्तियों के लिए है?
इस अधिनियम की धारा–12 में केवल सामान्य जमानत के संबंध में ही उपचार उपलब्ध है। हां, लेकिन ऐसा प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता,1973(CRPC) की धारा-438 में जरूर है।
सर्वप्रथम हमारा यह जानना आवश्यक है कि अंतरिम जमानत है क्या। आखिर क्यों भारतीय विधिक तंत्र [Indian Legal System] में इसे इस विशिष्ट नाम से बुलाया जाता है जबकि यदि सीआरपीसी की धारा 438 तो ऐसी कोई चर्चा नहीं करता। इसके लिए धारा–438 का अवलोक आवश्यक हैl
• धारा 438CRPC अनुसार – जब किसी व्यक्ति के पास यह विश्वास करने का कारण हो कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है, तो वह इस धारा के तहत जमानत के लिए उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
उपरोक्त प्रावधान को पढ़ कर यह कहा जा सकता है कि, यह एक प्रकार की "प्री अरेस्ट" बेल है। जिसके लिए उस व्यक्ति को आशंका होनी चाहिये कि उसे पुलिस एजेंसी द्वारा किसी अजमानतीय मामले [Non bailable matter] में गिरफ्तार किया जा सकता है और यह भी आवश्यक है कि, इसके संबंध में उस व्यक्ति की उसी मामले में पहले कभी गिरफ्तारी न हुई हो। तभी वह व्यक्ति धारा–438 में आवेदन करने कर सकेगा अन्यथा नही, क्योंकि ऐसी अन्य परिस्थितियों के लिए CRPC की धाराओं 436, 437, 439 के प्रावधान भी मौजूद है।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इस जमानत के नियम मात्र गिरफ्तारी की आशंका [Anticipation] वाली परिस्थितियों पर ही लागू होती है। यही कारण है की इसे Anticipatory Bail कहा जाता है तथा यह एक "ज्यूडिशियली कोइन्ड" शब्द है। इसीलिए इसे अभिव्यक्त रूप से सहिंता में परिभाषित नही किया गया है बाकी जनसाधारण में यह अग्रिम जमानत [Advance bail] इत्यादि नामों से भी प्रचलित है, परन्तु अर्थ सब के समान है।
अब वर्तमान में मुख्य प्रश्न या मुद्दा यह है कि क्या किशोर न्याय बालकों का संरक्षण अधिनियम,2015 के अंतर्गत कोई विधि का उलंघन करने वाला बालक ऐसी जमानत के लिए इस अधिनियम के अधीन आवेदन कर सकता है या नहीं?
इस विषय में विभिन्न उच्च न्यायलयों के अपने भिन्न मत है। इस लेख द्वारा उचित प्रयास किया जाएगा कि इन मतों के पक्ष और विपक्ष दोनों को ही समान रूप से इस पटल [penal] पर रखा जाए। क्योंकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक इस विषय में कोई प्रभावी टिप्पणी नहीं की है ना ही कोई निर्णय आया है।
• अग्रिम जमानत के विपक्ष में न्यायलयों के मत
तेजराम नागराची किशोर बनाम छत्तीसगढ़,2019 मामले में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने इस बात पर अपना मत देते हुए कहा कि JJ Act,2015 में ऐसा को प्रावधान नहीं है जो यह दर्शित होता हो कि कोई किशोर व्यक्ति इसके अंतर्गत अंतरिम जमानत के लिए आवेदन दे सकता है। साथ ही धारा-10 JJ Act,2015 "Apprehended" शब्द प्रयुक्त किया गया है ना कि "Arrested" (गिरफ्तारी भी धारा-46CRPC के अनुरूप होनी चाहिए) और जमानत उसी व्यक्ति को मिलती है जिसे गिरफ्तार किया जा सकता हो या किया गया हो। इस कारण ऐसा आवेदन सुनवाई योग्य [Maintainable] नहीं है।
वही ज़ैद@मोहम्मद ज़ैद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में संबंधित उच्च न्यायालय ने इसके पीछे का कारण बताया कि, JJ Act,2015 अपने आप में एक व्यापक विधि है तथा इस अधिनियम की धारा-1[4] को पढ़ कर भी यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धारा-438CRPc के नियम इस पर लागू नहीं होंगे।
पूर्व में भी चुमकी घोष और एनआर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2009 मामले कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपनी बात रखते हुए कहा था कि यदि कोई व्यक्ति जिस पर इस अधिनियम के अंतर्गत कोई कार्यवाही हो रही है और उसके द्वारा ऐसा आवेदन प्रस्तुत किया जाता है परंतु पाया जाता है कि वह व्यक्ति किशोर [juvenile] नही है तब अवश्य उसका यह आवेदन न्यायालय के समक्ष विचार करने योग्य है।
और तेलंगाना उच्च न्यायालय- ने इस बात पर जोर देते हुए यह भी कहा कि, अनुच्छेद 226 में रिट याचिका दायर कर के भी अग्रिम जमानत का लाभ नही उठाया जा सकता और न ही रिवीजन करवाया जा सकता।
इसीलिए मानना उचित होगा कि, एक्ट ऐसा कोई अभिव्यक्त उपबंध नहीं बताता है जिससे इस मुद्दे का निष्कर्ष निकाला जा सके। क्योंकि धारा-438CRPC के अंतर्गत अग्रिम जमानत केवल उच्च न्यायालय या सेशन न्यायलय द्वारा ही प्रदत्त की जा सकती है और धारा12 JJACT,2015 में वर्णित किशोर न्यायिक बोर्ड [Juvenile Justice Bord] को यह विशेष विधि ऐसा क्षेत्राधिकार प्रदान नही करती है और साथ ही यदि धारा-12JJACT,2015 की शाब्दिक व्याख्या [literal interpretation] की जाए तो यह एक " Non Obstante Clause" है।
यानि जो कुछ भी CRPC की प्रक्रियाओं में वर्णित है उसका प्रभाव किशोर की जमानत के संदर्भ में नही पड़ेगा। इससे पता चलता है कि, विधायिका ने स्वयं इसे ऐसे ड्राफ्ट किया है कि जमानत के लिए मात्र धारा12 वाले उपबंध ही लागू होंगे और जमानत भी मात्र किशोर न्यायिक बोर्ड द्वारा दी जाएगा। शायद विधायिका का ऐसा कोई आशय रहा ही नही था कि, किशोरों के संबंधों में ऐसी जमानत के नियम लागू हो।
• अग्रिम जमानत के पक्ष में न्यायलयों का मत
गुजरात उच्च न्यायालय ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा- यदि किशोर व्यक्ति को आशंका है कि उसे गिरफ्तार किया जा सकता है तो वह अग्रिम जमानत हेतु आवेदन कर सकता है। क्योंकि जमानत का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वत्रंता सुनिश्चित करना है ना कि प्रक्रिया संबंधी जटिलता में पड़ कर हितों की हानि करना। इलाबाद उच्च न्यायलय ने भी समान रुख अपनाते हुए अपना मत रखा कि- "Lex Specialis Derogat Legi Generali" यानी विशेष विधि सामान्य विधि को निरसित कर देती है, के नियम को लागू करते हुए व्याख्या की एक्ट का कोई प्रोविजन यह शर्त अधिरोपित नही करता कि अग्रिम जमानत हेतु किशोर आवेदन नही कर सकता। आगे चलकर केरल उच्च न्यायालय ने भी वर्ष 2021 में दिए एक निर्णय में इसी संकल्पना [Concept] को ध्यान में रखा और जमानत प्रदान की।
अतः कहना उचित होगा उपरोक्त न्यायालयों ने अपने अनुरूप और तथ्य या परिस्थितियों के आधार पर विधि की व्याख्या करते हुए निर्णय दिये। परन्तु यह मुद्दा आगे भी अनसुलझा रहेगा जबतक सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोई प्रभावी निर्णय नही आता। इस विषय मे उनकी विशेष टिप्पणी या आदेश इस समय की आवश्यकता है।
• निष्कर्ष
काफी सारे विरोधाभाषी निर्णयों के कारण अग्रिम जमानत का JJ Act,2015 में वास्तविक स्वरूप इस अधिनियम के संदर्भ में सामने नहीं आ पा रहा है। कुछ न्यायलयों का मानना है कि यदि ऐसे ही जमानत प्रदान की जाएगी, तो बोर्ड अपना कार्य नहीं कर पायेगा, क्योंकि apprehended juvenile सदैव बोर्ड के समक्ष ही पेश किया जाता है और बिना प्रक्रिया से गुजरे मामले का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा तथा आदतन अपराधी बालकों के लिए तो यह और भी निरर्थक है। वही कुछ न्यायालयों का मानना है की, अवयस्क बच्चों को यह अधिकार वयस्कों के भांति मिलना चाहिए। जिससे उनकी दैहिक स्वतंत्रता को संरक्षित किया जाए ताकि उन्हें स्वस्थ वातावरण में रहने का फिर से एक प्राथमिक अवसर [Primary Opportunity] उपलब्ध हो और साथ ही प्रक्रियात्मक बाधाओं से मुक्ति भी दिलाई जाए। अब भविष्य में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के प्रभावी निर्णय से ही इस जटिलता को कम किया जा सकेगा।
Note:- इस लेख के संबंध में लेखक के विचार निजी हैं।