अयोध्या का फैसला ऐतिहासिक गलतियों में सुधार के लिए नज़ीर नहीं बना सकता
LiveLaw News Network
15 Nov 2019 8:49 AM IST
मनु सेबेस्टियन
राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट की कुछ टिप्पणियों पर गौर करें तो ये नहीं कहा जा सकता कि ये फैसला मौजूदा दौर के उन मालिकाना दावों के समर्थन में कानूनी नजीर बन सकता, जिनमें किसी मौजूदा इमारत पर कथित तौर पर पुराने दौर के शासकों की ऐतिहासिक गलतियों के आधार दावा किया जा रहा हो।
1045 पृष्ठ के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारतीय संविधान द्वारा निर्मित मौजूदा कानूनी तंत्र में पुराने शासकों की गई ऐतिहासिक गलतियों का सुधार नहीं किया जा सकता। पांच जजों की बेंच ने अपने फैसले में कहा है कि कानून प्राचीन शासकों के कतृत्व का उत्तर नहीं है।
फैसले के पैराग्राफ 652 में कहा गया हैः
ये अदालत उन दावों पर विचार नहीं कर सकती, जिनका आधार हिंदू पूजा स्थलों के खिलाफ मुगल शासकों द्वारा की गई कार्रवाइयां रहीं। मौजूदा कानूनी तंत्र ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए उत्तरदायी नहीं है, जो पुराने शासकों, वो एक हों या कई, के कार्यों के खिलाफ सांत्वना या कानूनी राहत की अपेक्षा रखता है। हमारा इतिहास ऐसी कार्रवाइयों से भरा पड़ा है, जिन्हें आज नैतिक रूप से गलत माना जाएगा और जिन पर भयंकर वैचारिक बहसें छिड़ जाएंगी।
अगले वाक्य में सर्वोच्च न्यायालय ने जोड़ा है कि संविधान को अंगीकार करने के बाद लोगों के अधिकार और दायित्व उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के आधार नहीं तय की जा सकते। आदालत ये मशविरा देती हुई भी मालूम पड़ती है कि मौजूदा हिंदुस्तानी कई ऐस समूहों की संतान हैं, जो इस मुल्क में इतिहास के अलग-अलग कालखंडों में आकर बसते रहे हैं।
हालांकि संविधान का अंगीकरण वो ऐतिहासिक क्षण था, जब भारत के लोगों ने विचारधारा, धर्म, रंग अथवा उन कालखंडों, जबकि हमारे पूर्वज इस धरती पर आ बसे, के आधार पर अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों को तय करना समाप्त कर दिया और कानून के राज को स्वीकार कर लिया ।
एक दूसरी जगह कोर्ट ने कहा कि कानून भूत काल में जाकर इतिहास से असहमत लोगों का सहायता नहीं उपलब्ध करवा सकता।
इतिहास शासकों और शासन तंत्रों के उत्थान और पतन का वसीयतनामा है। कानून का इस्तेमाल, ऐसे यंत्र के रूप में नहीं किया जा सकता कि समय की यात्रा कर इतिहास में जाए और जो इतिहास से असहमत हैं, उन्हें कानूनी सहायता उपलब्ध करवाए। अदालत इतिहास की उचित अथवा अनुचित कार्रवाइयों का कतई संज्ञान नहीं ले सकती, जब तक ये नहीं दिखाया जाता कि उनके कानूनी परिणाम मौजूदा दौर में लागू करने योग्य हैं। (पैराग्राफ 633)
कोर्ट की ऐसी टिप्पणी से सहज ही एक सवाल उठता है किः फिर कोर्ट ने विवादित जमीन पर मंदिर के निर्माण का आदेश कैसे दे दिया, जहां 1528 से 6 दिसंबर, 1992 को ढहाए जाने तक मस्जिद मौजूद थी?
इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने से पहले मौजूदा आदेश के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश उन निष्कर्षों पर आधारित नहीं है, जिनमें दावा किया गया था कि मस्जिद का निर्माण मंदिर गिराकर किया गया था। कोर्ट ने कहा कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपनी जांच में निर्णायक रूप से ये नहीं कहा है कि मस्जिद को बनाने के लिए मंदिर को ढहाया गया था। एएसआई की रिपोर्ट में संकेत किया गया था कि मस्जिद का निर्माण किसी हिंदू मूल के ढांचे के ऊपर किया गया है, जो कि 12वीं सदी का है। हालांकि एएसआई की रिपोर्ट ये नहीं स्पष्ट करती कि मस्जिद के नीचे का ढांचा मंदिर है और क्या इसे किसी इंसानी कार्रवाई में गिराया गया है?
कोर्ट ने कहा है कि मस्जिद निर्माण और उस ढांचे के गिरने के बीच 400 सालों का लंबा अंतराल है, इससे ये संभव है कि वो ढांचा प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो गया हो।
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के पृष्ठ 907 पर कहा है कि-
विवादित भूमि का मालिकाना पुरातात्विक निष्कर्षों के आधार पर नहीं, बल्कि दीवानी मामलों के मानकों और कानूनी सिद्धांतों के आधार किया जाना चाहिए। कोर्ट ने आगे कहा कि यदि ये मान भी लिया जाए कि मस्जिद के नीचे मंदिर का ढांचा था, तब भी हिंदू पुजारियों का विवादित भूमि पर दावा मजबूत नहीं होता। ऐसे नतीजे का आधार, वो कानूनी सिद्घांत है, जिसमें कहा कि गया है कि न्यायालय पिछले शासकों के कार्यों के आधार पर किए गए दावों पर फैसला नहीं दे सकती, जब तक ऐसे दावों को बाद के संप्रभु शासक स्पष्ट रूप से मान्यता न देते हों।
पैराग्राफ 649 में कहा गया है किः
"हिंदुस्तानी भूखंडों पर मुग़लों की विजय दो संप्रभु शासकों के बीच का एक अति-राष्ट्रीय कार्य था और बाद में नए संप्रभु शासक द्वारा पूर्ववर्ती अधिकारों को मान्यता नहीं दी गई। जिसके बाद किसी भी विवादित संपत्ति पर दावे मात्र इस आधार पर लागू नहीं किया जा सकता कि शासन में बदलाव हो चुका है। ये न्यायालय ऐसे किसी दावे को स्वीकार नहीं कर सकती या लागू नहीं करवा सकती, जिसका आधार मात्र ये हो कि विवादित भूमि के नीचे 12 वीं सदी में एक मंदिर था।"
कोर्ट का ये मत प्रमोद चंद्रा बनाम स्टेट ऑफ ओडिसा (1961) के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के उस फैसले के आधार पर दिया गया है, जिसमें कहा गया था कि कोर्ट केवल आधिकार और दायित्वों के उन मामलों में ही फैसला देगी, जिन्हें नए शासकों ने साक्ष्य द्वारा स्थापित आचरण के माध्यम से स्पष्ट रूप से या निहित रूप से स्वीकार किया हो।
कोर्ट ने कहा कि अंग्रेजों ने 1856 में विवादित संपत्ति को जब्त करने बाद दोनों की समुदायों को अपनी धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक पूजा की इजाजत दी थी। इस प्रकार अंग्रेजों ने दोनों की समुदायों के दावों को स्वीकार किया था। चूंकि संविधान ब्रिटिश शासन और भारतीय गणराज्य को निरंतरता प्रदान करता है (अनुच्छेद 372 और 296), इसलिए ब्रिटिश शासन के दौरान मौजूद निजी दावों को स्वतंत्रता के बाद भी लागू किया जा सकता है।
फैसले में कहा गया हैः
भारतीय संविधान ब्रिटिश शासन और भारतीय गणराज्य के बीच वैधानिक निरंतरता संभव बनाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय गणराज्य का आचरण ब्रिटिश शासन काल में मौजूद निजी संपत्ति के दावों को बनाए रखने के लिए था। इसलिए वर्तमान उद्देश्यों के लिए, व्यक्त और निहित दोनों मान्यताएं हैं कि स्वतंत्र भारतीय संप्रभु राज्य ने ब्रिटिश संप्रभु राज्य के तहत मौजूद संपत्ति के दावों को निजी दावों के रूप में मान्यता दी है, और ये मान्यता तब तक मौजूद है कि जब तक कि स्पष्ट रूप से इसके विरोध में सबूत नहीं दिया गया हो। इसलिए मौजूदा विवाद में, जो कि औपनिवेशिक दौर में हुआ था, सभी पक्षों के अधिकारों को अदालत द्वार आज भी लागू कराया जा सकता है। (पैरा 651)
दूसरे शब्दों में कोर्ट ने कहा है कि वो इतिहास की यात्रा कर सकती है हालांकि मात्र ब्रिटिशों द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकारों और दावा की खतिर ही वो ऐसा कर सकते हैं क्योंकि मौजूदा संविधान केवल ब्रिटिश शासन को मौजूदा शासन तंत्र से जोड़ता है, नकि ब्रिटिश शासन से पहले की राज व्यवस्थाओं को।
कोर्ट ने स्पष्ट किया हैः
1856 में अवध के ब्रिटिश राज में शामिल होने के बाद सभी पक्षों के कार्य वर्तमान मुकदमें में उन पक्षों के कानूनी अधिकारों का निरंतर आधार का निर्माण करते हैं और यही वो कृत्य है, जिनका वर्तमान विवाद को तय करने के लिए न्यायालय का मूल्यांकन करना चाहिए। (पैरा 652)
यहां पर एक और आशंका खड़ी होती हैः
यह देखते हुए कि 1856 के बाद सभी पक्षों के कृत्यों ने दावों का आधार बनाया, अदालत ने इस आधार पर कि सुन्नी वक्फ बोर्ड 1528 और 1856 की संपत्ति पर निर्बाध कब्जा साबित नहीं कर सका, हिंदू पुजारियों के कब्जे के दावे का पक्ष कैसे ले लिया?
अदालत को 1528 और 1856 के बीच कब्जे के सवाल पर जाना पड़ा क्योंकि सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा मुकदमा इस दावे पर आधारित था कि बाबरी मस्जिद मुसलमानों के लिए 1528 में नमाज की जगह के रूप में चिन्हित थी।
कोर्ट ने कहा कि वक्फ बोर्ड 1528 से निरंतर उपयोग के अपने स्वयं के दावे को स्थापित नहीं कर पाया और कोर्ट ने पाया कि हिंदू पक्ष ने विवादित स्थल के ऐतिहासिक कब्जे और उपयोग का दावा बेहतर तरीके से स्थापित किया।
हालांकि इस बिंदु पर न्यायालय द्वारा साक्ष्यों के मूल्यांकन पर सवाल भी उठे हैं। स्क्रॉल में के लेख में बहुत ही खूबसूरत तर्क दिया गया है कि कोर्ट ने ऐतिहासिक कब्जे के मुद्दे पर हिंदू पुजारियों और सुन्नी बोर्ड पर भिन्न तरीके का प्रूफ ऑफ बर्डेन डाला।
मौजूदा आलेख मकसद सक्ष्यों के मूल्यांकन पर ध्यान देना नहीं है। हमारा मकसद ये ध्यान दिलाना है कि हिंदू पक्ष को इस आधार पर राहत नहीं दी गई कि मस्जिद के नीचे मंदिर था। कोर्ट ने नहीं माना है कि मस्जिद के नीचे मंदिर था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला विवादित भूमि पर कब्जे के प्रतियोगी दावों पर आधारित है, हालांकि यहां दावों के पक्ष में पेश सबूतों की मूल्यांकन प्रक्रिया पर सवाल है।
कोर्ट ने समय की ये पश्चगामी यात्रा केवल कब्जे के दावों के परीक्षण के लिए की है, ना कि किसी ऐतिहासिक गलती को सुधारने के लिए। इसलिए ये फैसला इस बात की नजीर नहीं बनता कि कोर्ट पुराने शासकों द्वारा कथित रूप से गिराए गए ऐतिहासिक ढांचों के मामलों में कोई सुधार कर सकता है।
कानून पूजा स्थल में बदलाव की इजाजत नहीं देता
इस मामले ये बताना जरूरी है कि संसद द्वारा बनाया गया एक कानून सांप्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए किसी भी पूजा स्थल में बदलाव की इजाजत नहीं देता।
यह पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 है, जिसे संसद द्वारा पूजा स्थलों के जबरन परिवर्तन पर रोक लगाने के उद्देश्य से पारित किया गया था। अधिनियम की धारा 3 किसी भी धार्मिक संप्रदाय पूजा स्थल में बदलकर किसी अन्य धार्मिक संप्रदाय की पूजा स्थल बनाने पर रोक लगााती है। इस धारा के मुताबिक, किसी भी पूजा स्थल को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बरकरार रखना होगा। इस प्रावधान का उल्लंघन एक दंडनीय अपराध है, जिसके तहत तीन साल की अवधि के लिए कारावास और जुर्माना हो सकता है।
ये कानून राम जन्मभूमि आंदोलन की पृष्ठभूमि में बनाया गया था। हालांकि, इस अधिनियम अयोध्या विवाद पर लागू नहीं किया गया। अधिनियम की धारा 5 में इसके प्रावधानों को "राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद" स्थल और इससे संबंधित किसी भी वाद, अपील या कार्यवाही के मामले में, लागू करने को लेकर छूट दी गई है।
अधिनियम का उद्देश्य 15 अगस्त, 1947 को मौजूद किसी भी पूजा स्थल की धार्मिक पहचान की रक्षा करना है। इस संबंध में, धारा 4 (1) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र, जैसा 15 अगस्त 1947 को था, वैसे ही बरकरार रखा जाएगा।
धारा 4 (2) विशेष रूप से इस बात पर विचार करती है कि पूजा स्थल कानून के शुरू होने के दिन मौजूद सभी मुकदमें, अपील और कानूनी कार्यवाही, जिन्हें 15 अगस्त 1947 को मौजूद धार्मिक स्थल के चरित्र को बदलने में मामले दायर किया गया था और जो किसी भी अदालत, ट्रिब्यूनल या प्राधिकरण के समक्ष लंबित हैं, उन्हें समाप्त किया जाता है, और पूजा स्थल कानून पारित हो जाने के बाद इस तरह के मामलों में कोई मुकदमा, अपील या कार्यवाही नहीं की जाएगी। इस मामले में एक मात्र अपवाद सेक्शन (2) है, जहां इस आधार पर कि धार्मिक स्थल का चरित्र 15 अगस्त1947 के पहले बदला जा चुका, मुकदमे, अपील या कार्यवाही को स्थापित किया जाता है।
अयोध्या का फैसला इस अधिनियम का समर्थन करते हुए कहता है कि यह संविधान की एक बुनियादी विशेषता धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए लागू किया गया था।
फैसले में कहा गया है कि:
"राज्य ने कानून बनाकर, एक संवैधानिक प्रतिबद्धता को लागू किया है और सभी धर्मों की समानता और धर्मनिरपेक्षता को बरकरार रखने के अपने संवैधानिक दायित्वों का संचालन किया है जो संविधान की मूल विशेषताओं का एक हिस्सा है। भारतीय संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को लागू करने के लिए पूजा स्थल अधिनियम एक गैर-अपमानजनक दायित्व है, तात्पर्य ये कि कम से कम सैंद्घातिक रूप से इसे खत्म नहीं किया जा सकता। इसलिए यह कानून भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी औजार है, जो संविधान की मूल विशेषताओं में से एक है। "
न्यायालय ने कहा कि अधिनियम इस बात पर जोर देता है कि "इतिहास और उसकी गलतियों का इस्तेमाल वर्तमान और भविष्य पर अत्याचार करने के उपकरणों के रूप में नहीं किया जाएगा"।
"पूजा स्थल अधिनियम आंतरिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के दायित्वों से संबंधित है। यह सभी धर्मों की समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इन सबसे ऊपर, पूजा स्थल अधिनियम उस पवित्र कर्तव्य का पुष्टिकरण है, जिसके तहत राज्य पर सभी धर्मों की समानता को संरक्षित और सुरक्षित करने का दायित्व है और जो एक आवश्यक संवैधानिक मूल्य है, एक ऐसा आदर्श जिसे संविधान की मूल विशेषता होने का दर्जा प्राप्त है।
पूजा स्थल अधिनियम को पारित करने का एक उद्देश्य है। ये कानून हमारे इतिहास और राष्ट्र के भविष्य के लिए बात करता है।
जैसा कि हम अपने इतिहास को जानते हैं और राष्ट्र की आवश्यकता के रूप में जैसे कि इसका समाना करने की जरूरत है, स्वतंत्रता हमारे अतीत के घावों को भरने का निर्णायक क्षण थी, ऐतिहासिक गलतियों को लोग कानून अपने हाथ में लेकर ठीक नहीं कर सकते।
सार्वजनिक पूजा के स्थानों के चरित्र को संरक्षित करने में, संसद ने बिना किसी दुविधा के आदेश दिया है कि इतिहास और इसके गलत इस्तेमाल को वर्तमान और भविष्य पर अत्याचार करने के लिए उपकरणों के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।"
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस डीवी शर्मा द्वारा की गई टिप्पणियों को खारिज कर दिया था।
जस्टिस शर्मा ने कहा था कि अधिनियम उन मामलों को अलग नहीं करता है, जहां अधिनियम के लागू होने से पहले उन मामलों की घोषणा हो चुकी थी और जो अधिनियम के लागू होने से पहले घोषित किए गए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कि जस्टिस शर्मा द्वारा दी गई टिप्पणियां धारा 4 (1) के तहत वैधानिक योजना और "संवैधानिक मूल्य" के खिलाफ हैं। शीर्ष अदालत के शब्दों में: जस्टिस डीवी शर्मा द्वारा पूजा स्थल अधिनियम कानून पर की गई टिप्पणियां कानून की योजना के विपरीत हैं क्योंकि वे संवैधानिक मूल्यों के ढांचे के अनुरूप हैं। (पैराग्राफ 84)
उक्त अधिनियम का सख्त और त्वरित से कार्यान्वयन। उन आंदोलनों की हवा निकाल सकता है जो कथित ऐतिहासिक गलतियों के आधार बनाकर मौजूदा ढांचों पर स्वामित्व का दावा करते हैं और सांप्रदायिक अशांति पैदा करते हैं।