किसी हाई-प्रोफ़ाइल मामले में बरी होना.. और आपराधिक न्याय प्रणाली का ढांचागत संकट
LiveLaw Network
10 Dec 2025 9:15 AM IST

मलयालम फ़िल्म अभिनेता दिलीप को एक बेहद चर्चित अपहरण और यौन उत्पीड़न साजिश मामले में हाल ही में मिले बरी होने के आदेश ने एक बार फिर भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को तीखी सार्वजनिक और कानूनी समीक्षा के केंद्र में ला खड़ा किया है। पूरा विस्तृत फ़ैसला अभी अपलोड भी नहीं हुआ है, लेकिन केरल और उसके बाहर जन-प्रतिक्रियाएं गहराई से बंटी हुई हैं। एक वर्ग इस फ़ैसले को आरोपी की पूर्ण जीत के रूप में देख रहा है, जबकि दूसरा मानता है कि न्याय पीड़िता के साथ खड़ा होने में विफल रहा है। यह ध्रुवीकरण टीवी डिबेट, सोशल मीडिया टिप्पणियों और संदेह, विश्वास एवं भावनाओं से बुनी प्रतिस्पर्धी कथाओं के कारण और तीखा हुआ है।
लेकिन इस बहस में जो चीज़ सबसे अधिक अनुपस्थित दिखती है, वह है यह समझना कि आपराधिक न्यायशास्त्र के ढांचे में “बरी” होने का वास्तविक अर्थ क्या है। अदालतें जनमानस या नैतिक धारणाओं के आधार पर काम नहीं करतीं। आपराधिक न्याय प्रणाली प्रमाण, प्रक्रिया और संवैधानिक सुरक्षा सिद्धांतों पर खड़ी है—और ये सारी चीज़ें जन आक्रोश या लोकप्रिय भावना से स्वतंत्र होकर संचालित होती हैं।
निर्दोष मानने का सिद्धांत और अभियोजन का बोझ
आपराधिक कानून के केंद्र में यह बुनियादी सिद्धांत है कि हर आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसका अपराध सिद्ध न हो जाए। यह सिद्धांत प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 से प्रवाहित एक ठोस कानूनी अधिकार है। अपराध साबित करने का पूरा दायित्व अभियोजन पर होता है, और वह भी “संदेह से परे” की कठोरतम कसौटी पर।
इसलिए, बरी होना नैतिक निर्दोषता की न्यायिक घोषणा नहीं है। इसका सीधा अर्थ यह होता है कि अभियोजन पक्ष कानूनी मानक के अनुरूप आरोप सिद्ध नहीं कर सका। यह अंतर विशेष रूप से हाई-प्रोफ़ाइल मामलों में महत्वपूर्ण है, जहां जनता अक्सर बरी होने को या तो पूरी बेगुनाही मान लेती है या फिर न्यायिक विफलता। लेकिन अदालतें केवल उन्हीं साक्ष्यों पर निर्भर कर सकती हैं जो विधिसम्मत, विश्वसनीय और प्रक्रिया के अनुरूप प्रस्तुत किए गए हों।
जब बरी होना सिस्टम की कमजोरी को उजागर करता है
इस कानूनी दृष्टिकोण से देखें तो यह बरी होना केवल एक मुकदमे की परिणति नहीं, बल्कि आपराधिक न्याय प्रणाली की गहरी ढांचागत विफलताओं की ओर भी संकेत करता है। कई वर्षों तक चला यह मुकदमा, लगातार कानूनी विवादों और प्रक्रियात्मक लड़ाइयों से भरा रहा, और इसने जांच की दक्षता, अभियोजन की निरंतरता तथा संस्थागत तैयारी की गंभीर समीक्षा को आमंत्रित किया है।
विलंब आपराधिक न्याय में सबसे विनाशकारी तत्वों में से एक है। समय बीतने के साथ गवाहों की यादें धूमिल होती हैं, वे मुकर जाते हैं, साक्ष्य कमजोर पड़ता है और अभियोजन का पूरा ढांचा बिखरने लगता है। यह कमी विशेष रूप से यौन अपराधों के संवेदनशील मामलों और प्रभावशाली आरोपियों वाले मामलों में और अधिक खतरनाक हो जाती है, जहां गवाह अधिक असुरक्षित होते हैं। पर्याप्त संस्थागत सुरक्षा न होने पर गवाही की शुचिता पर लगातार खतरा बना रहता है।
गवाह पलटने की समस्या—और कड़ी जवाबदेही की अनिवार्यता
इस चुनौती को और भयावह बना देता है गवाहों का यह चलन कि वे बिना किसी उचित कारण के पुलिस को दिए अपने बयान अदालत में जाकर बदल देते हैं। जब कोई गवाह स्वेच्छा से दिए गए बयान से मुकदमे के दौरान मुकर जाता है, तो वह पूरे आपराधिक न्याय ढांचे को कमजोर करता है। ऐसी स्थितियां कठोर जांच, त्वरित अभियोजन और सख्त दंडात्मक कार्रवाई की मांग करती हैं—क्योंकि इन अनियंत्रित पलटनों से अदालतों की सच की खोज करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है और न्यायिक विफलताएं जन्म लेती हैं।
जांच की खामियां और प्रक्रियागत कमजोरियां
जांच की गुणवत्ता भी एक गंभीर चिंता का क्षेत्र है। आधुनिक आपराधिक मुकदमों में वैज्ञानिक साक्ष्यों, फॉरेंसिक विश्वसनीयता और तकनीकी डेटा की प्रमुख भूमिका होती है। बयान दर्ज करने में देरी, चेन-ऑफ़-कस्टडी में कमजोरी, फॉरेंसिक कड़ियों का टूटना और पर्यवेक्षण के अभाव जैसी खामियां साक्ष्यों की मजबूती को कमजोर कर देती हैं।
इतना ही नहीं, अभियोजन में निरंतरता का अभाव, अभियोजकों में बदलाव, रणनीतियों का बदलना और गवाहों की परीक्षा में असंगतियां ऐसी भौतिक कमजोरियां पैदा करती हैं जिनका लाभ अंततः बचाव पक्ष उठा लेता है। अदालतें 'भारतीय साक्ष्य अधिनियम' (अब 'भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023') के कड़े नियमों से बंधी हैं—वे अनुमान या नैतिक दृष्टि से किसी भी तथ्य की रिक्तता की पूर्ति नहीं कर सकतीं।
हाई-प्रोफ़ाइल मामलों में शक्ति का असंतुलन
प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े मामलों में हमेशा एक संरचनात्मक असंतुलन दिखता है—जहां आरोपी के पास संसाधन, कानूनी ताकत, मीडिया प्रभाव और आर्थिक शक्ति होती है, वहीं पीड़ित सामाजिक कलंक, पेशेवर अलगाव, असुरक्षा और लंबे मुकदमे से पैदा होने वाली मानसिक थकान का सामना करता है। अदालतें तटस्थ रहने का प्रयास करती हैं, लेकिन जब तक राज्य गवाह सुरक्षा, स्वतंत्र जांच और प्रक्रियात्मक संरक्षण सुनिश्चित नहीं करता, वास्तविक समानता संभव नहीं हो पाती।
जनता का दृष्टिकोण बनाम विधिक प्रक्रिया
यौन अपराधों में जन आक्रोश स्वाभाविक है। लेकिन जब भावना कानूनी तर्क का स्थान ले लेती है, तो विधिक प्रक्रिया को नुकसान होता है। मीडिया ट्रायल और सार्वजनिक राय अदालतों का स्थान नहीं ले सकतीं। अदालतें केवल रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों के आधार पर ही निर्णय कर सकती हैं—चाहे आरोपी कितना लोकप्रिय हो या कितना अलोकप्रिय।
लेकिन बार-बार होने वाली हाई-प्रोफ़ाइल बरी से जनता का संस्थाओं पर भरोसा जरूर कमजोर होता है। जब समाज की अपेक्षाओं और अदालतों के निर्णयों के बीच की खाई गहराती जाती है, तो यह केवल न्यायिक संयम का नहीं, बल्कि संभावित प्रणालीगत संकट का संकेत भी हो सकता है।
फ़ैसले का व्यापक संदेश
ये बरी होना मात्र एक व्यक्ति की किस्मत का मामला नहीं है—यह भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के गहरे ढांचागत संकट को सामने लाता है। यह स्पष्ट संकेत है कि केवल प्रतीकात्मक विधायी बदलाव पर्याप्त नहीं हैं; व्यापक और ठोस सुधारों की अत्यंत आवश्यकता है।
गंभीर और संवेदनशील आपराधिक मामलों में समयबद्ध जांच और त्वरित मुकदमे की अपरिहार्य जरूरत है। विलंब साक्ष्य को कमजोर करता है, पीड़ितों को थका देता है और आपराधिक कानून के निवारक प्रभाव को कम कर देता है। इसके समानांतर, जांच को वैज्ञानिक और तकनीकी तरीकों से सुदृढ़ करना आवश्यक है ताकि साक्ष्य विश्वसनीय और प्रक्रिया-सम्मत हो।
सबसे महत्वपूर्ण सुधार एक प्रभावी और लागू करने योग्य गवाह संरक्षण प्रणाली का निर्माण है। इसके बिना, गवाहों को धमकी, दबाव और प्रलोभन से बचाना संभव नहीं और मुकदमे अपनी साक्ष्य-रीढ़ खो देते हैं। जांच एजेंसियों की संस्थागत स्वतंत्रता भी मजबूत कानूनी सुरक्षा से सुनिश्चित करनी होगी।
गंभीर अपराधों में निरंतर ट्रायल प्रणाली से विलंब को कम किया जा सकता है और गवाहों की थकान रोकी जा सकती है। इसके अलावा, जांच अधिकारियों की पेशेवर जवाबदेही को कड़ा करना जरूरी है ताकि लापरवाही और प्रक्रियागत चूक बिना परिणाम के न बच सके। न्यायिक अवसंरचना और न्यायाधीशों की पर्याप्त संख्या इस सुधार यात्रा का मूलभूत आधार है।
इस बरी होने को न तो अंधाधुंध उत्सव की तरह मनाया जाना चाहिए और न ही इसे पूरे सिस्टम की विफलता घोषित किया जाना चाहिए। इसे एक गंभीर याद दिलाने वाली घटना की तरह देखना चाहिए—जहां आपराधिक न्याय व्यवस्था 'साक्ष्य और संरक्षण', 'विलंब और निवारण', तथा 'शक्ति और असुरक्षा' के बीच एक बेहद नाजुक संतुलन पर टिकी है।
यह फ़ैसला मूल सवाल आरोपी की संलिप्तता तक सीमित नहीं है।
बड़ा सवाल यह है —क्या भारत की मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली जटिल, गंभीर और हाई-स्टेक्स मुकदमों में तेज, निर्भीक और वैज्ञानिक रूप से मजबूत न्याय देने में सक्षम है?
यही वह प्रश्न है जिसे यह फ़ैसला पूरे देश के सामने रखता है।
लेखक- पी सुरेशन सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड हैं। विचार निजी हैं।

