13th डॉक्यूमेंट्री : लॉ और लीगल सिस्टम द्वारा भेदभाव पर सबक
सुरभि करवा
13 March 2020 7:03 PM IST
"Neither slavery nor involuntary servitude, except as a punishment for crime whereof the party shall have been duly convicted, shall exist within the United States, or any place subject to their jurisdiction।"
यह अमेरिकन संविधान का 13वां संशोधन है। इस संशोधन के साथ ही दिसंबर,1865 में अमेरिका से दास प्रथा को समाप्त कर दिया गया था। लेकिन आज 150 सालों बाद भी अफ्रीकन-अमेरिकी समुदाय के विरुद्ध भेदभाव समाप्त नहीं हुआ है। अफ्रीकन-अमेरिकी समुदाय कई स्तरों पर भेदभाव झेलता है- शिक्षा में, रोजगार के अवसरों में, अन्य आर्थिक सेवाओं में।
13th डॉक्यूमेंट्री का फोकस है लॉ और लीगल सिस्टम द्वारा भेदभाव की निरंतरता बनाए रखना। डॉक्यूमेंट्री यह दर्शाती है कि किस तरह क्रिमिनल लॉ एक समुदाय के विरुद्ध शोषण का स्त्रोत बन सकता है।
13th, 2016 में आई फिल्म है जिसे अफ्रीकन अमेरिकी फिल्म मेकर Ava DuVernay ने बनाया है। फिल्म अमेरिकन क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के साथ काम करने वाले कई एक्सपर्ट व्यक्तियों (सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, शिक्षकों) के इंटरव्यू और विचारों को एक साथ पेश करती है।
नए प्रकार के भेदभाव पूर्ण कानून ?
बहुत जानकार लॉ को 'सोशल इंजीनियरिंग' और 'सोशल चेंज' का टूल मानते हैं, लेकिन क्रिटिकल लीगल स्टडीज मूवमेंट ने दर्शाया है कि कानून समाज से अलग कार्य नहीं करता है। लॉ और लीगल सिस्टम भी समाज और उसके भेदभावों, पूर्वाग्रहों के साथ कार्य करता है। जाति, लिंग, वर्ग, धर्म, नस्ल आदि भेदभाव लीगल सिस्टम का हिस्सा है। फिल्म रेस और लीगल सिस्टम पर सूक्ष्म और गहरा प्रकाश डालती है।
फिल्म यह दर्शाती है कि अफ्रीकन अमेरिकी समुदाय के विरुद्ध भेदभाव संवैधानिक भाषा का सीधा नतीजा है। अपराध की सजा के तौर पर दासता की संवैधानिक स्वीकृति ने अफ्रीकी अमेरिकन समुदाय के विरुद्ध भेदभावपूर्ण जिम क्रो कानूनों को सिलसिलावार चलने दिया है।
(जिम क्रो उन कानूनों को कहते हैं जिनके तहत नस्ल के आधार पर समुदायों को बांटा जाता है। 'Separate but equal' की विचारधारा पर आधारित ये कानून सार्वजानिक सेवाओं जैसे शिक्षा, पब्लिक ट्रांसपोर्ट आदि में नस्लीय पृथक्किरण को मान्यता देता है। सीधे तौर पर कहें तो जिम क्रो कानून उन कानूनों को कहते है जिनके तहत नस्ल आधारित भेदभाव किया जाता है )
दास प्रथा को अवैध घोषित करने के तुरंत बाद से ही अफ्रीकी अमेरिकन समुदाय के लोगों पर मामूली छोटे-मोटे चार्ज लगा कर उन्हें बड़ी संख्या में गिरफ्तार किया जाने लगा। लिंचिंग, अफ्रीकीअमेरिकन समुदाय के लिए कार्य करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को टारगेट करना- अमेरिकी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का इतिहास अफ्रीकी अमेरिकन समुदाय के विरुद्ध कानून के अतिशय प्रयोग का इतिहास है।
जिम क्रो कानून समाप्त नहीं हुए हैं। 1970 के दशक से तीन अमेरिकन राष्ट्रपतियों (रिचर्ड निक्सन, रोनाल्ड रीगन और बिल क्लिंटन) ने 'war on drugs', 'tough on crime' के नाम पर नए जिम क्रो कानूनों को इज़ाद किया है।
ड्रग विरोधी इन कानूनों ने अफ्रीकी अमेरिकन समुदाय को असम्यक रूप से टारगेट किया और बड़ी संख्या में उन्हें गिरफ्तार किया गया। सतही तौर पर निष्पक्ष दिखने वाले इस कानून ने वास्तव में नस्ल भेदभाव को बढ़ावा दिया है। नतीज़तन जेल कैदियों की संख्या जो 1972 में 3,57,292 थी, वह 2000 में बढ़कर 1,179, 200 हो गयी।
जेल में कैदियों की संख्या अफ्रीकी अमेरिकन समुदाय के लोग जनसंख्या में अपने हिस्से से ज्यादा है। हर तीसरे अफ्रीकी अमेरिकन पुरुष की अपने जीवन काम में जेल जाने की संभावना है। इन तीनों राष्ट्रपतियों ने अफ्रीकी अमेरिकन समुदाय की इस सेलेक्टिव टार्गेटिंग के लिए भाषा, बुनियादी ढांचा और राजनैतिक माहौल बनाया।
यह डॉक्यूमेंट्री दास प्रथा से लेकर इस नई प्रकार की दास प्रथा के इतिहास का एक टाइम लाइन के रूप में अकाउंट है। यह डॉक्यूमेंट्री क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को मुख्य फोकस रखते हुए अमेरिकी नस्ल भेदभाव के इतिहास पर पुनर्विचार करते हुए स्पष्ट करती है कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम ने किस तरह नस्ल भेदभाव को बढ़ावा दिया है।
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम- भेदभाव का एक साधन
फिल्म नस्ल आधारित भेदभाव में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम ने किस प्रकार सहयोग किया है और उसके क्या साधन है, इस बात को भी स्पष्ट करती है। 1994 में बिल क्लिंटन ने अपनी नीति के तहत फ़ेडरल क्रिमिनल जस्टिस बिल को पेश किया जिसमें हमें इन साधनों की छाप मिलती है।
हमारे सिस्टम के लिए सीख
हालाँकि यह डॉक्यूमेंट्री अमेरिका और नस्ल भेदभाव के सन्दर्भ में बनाई गयी है फिर भी हमारे सिस्टम के लिए भी यह डॉक्यूमेंट्री आंखे खोलने वाली है। फिल्म देखते हुए कई जगह मुझे महसूस हुआ कि हमारा सिस्टम भी ऐसे अन्याय कर रहा है। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के समाज के कमजोर तबके पर पड़ने वाले प्रभाव के सन्दर्भ में फिल्म का सन्देश सार्वभौमिक है।
अफ्रीकी अमेरिकन कम्युनिटी के विरुद्ध होने वाले शोषण का मुख्य कारण अमेरिकी संविधान की भाषा स्वयं है। भारत में भी क्रिमिनल लॉ का 'संवैधानीकरण' नहीं हुआ है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी के कुछ प्रावधानों के अलावा, जिनकी संवैधानिकता को कोर्ट में चैलेंज किया गया है, सम्पूर्ण सिस्टम औपनिवेशिक ढांचे के तह, एक औपनिवेशिक नैतिकता के तहत कार्यरत है।
सम्पूर्ण क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को पुर्नविचार करने की आवश्यकता है ताकि वह संविधान के ट्रांस्फॉर्मटिवे विज़न के अनुरूप कार्य कर सके।
आज भी हमारे कानून गरीबी को अपराध के तौर पर परिभाषित करते है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय भेदभाव झेलता है, अमेरिका की ही तरह भारत में भी ड्रग एब्यूज को सार्वजनिक स्वास्थय के मुद्दे के बजाय लॉ एंड आर्डर का मुद्दा मान जाता है जिसका प्रभाव सीधे तौर पर शोषित समाज पर पड़ता है।
महंगे जमानती कानून और एक अकुशल लीगल ऐड मशीनरी के चलते भारतीय जेलों में कमजोर तबके का अधिक प्रतिनिधित्व है। मृत्यु दंड की सजा वाले अपराधों की लॉ में वृद्धि ये पैटर्न हमारे सिस्टम में भी देखने को मिल रहे है।
इस डॉक्यूमेंट्री का सबसे बड़ा संदेश यही है कि शोषित तब के का उत्पीड़न कभी समाप्त नहीं होता है, वह नए-नए रूपों में अपने आपको बार-बार पेश करता है और कानून उसका एक टूल हो सकता है। यह डॉक्यूमेंट्री अमेरिका और वहां के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के संस्थागत नस्ल भेद को समझने के लिए ही जरुरी नहीं है बल्कि यह हमारे अपने सिस्टम को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण फिल्म है।
(लेखिका सुरभि फिल्म पर चर्चा करने और लेख में सहयोग करने के लिए अनुराग भास्कर, अध्यापक, जिन्दल ग्लोबल लॉ स्कूल को धन्यवाद देती हैं। अनुराग ने यह फिल्म अपने सेमीनार कोर्स 'लॉ, सोशल मूवमेंट एंड पॉलिटिक्स' के दौरान नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में 2019 में दिखाई थी।)
(क्रीमिनल जस्टिस सिस्टम की संवैधानिकता की बात प्रोफेसर बीबी पांडे ने राष्ट्रीय विधि विद्यालय दिल्ली में 2018 के अपने लेक्चर के दौरान कही थी।)