भारत में लोकपाल को लेकर चर्चा, वर्ष 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा सिफारिश किए जाने से शुरू हुई, और वर्ष 2011 तक कानून बनाने के 8 असफल प्रयासों के बाद भी खत्म नहीं हुई। वर्ष 2011 में ही, अन्ना हजारे की भूख-हड़ताल ने संसद को इस कानून के प्रति प्रथम बार सोचने को मजबूर किया और अंततः जनवरी, 2014 में यह कानून अस्तित्व में आ सका।
वर्ष 2011 और 2014 के बीच प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों के एक समूह ने इस विधेयक का प्रस्ताव रखा, जिसमें संसद की स्थायी समिति ने पर्याप्त संशोधन किए। लोकपाल और लोकायुक्त बिल, 2013 के रूप में संशोधित विधेयक, सभी प्रमुख राजनीतिक दलों (समाजवादी पार्टी को छोड़कर) के समर्थन से संसद द्वारा पारित किया गया था, और इस प्रकार वर्ष 2013 का लोकपाल अधिनियम बनाया गया और यह कानून पूर्ण रूप से 2014 में हमारे सामने आया।
हालांकि उसके बाद भी लगभग 5 वर्ष तक शीर्ष अदालत में जूझने के बाद, अंततः बीते शनिवार को भारत को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष के रूप में अपना पहला लोकपाल अध्यक्ष मिला और अब उम्मीद है कि इस लोकपाल कानून को प्रभावी रूप भी मिल सकेगा।
दरअसल, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने 7 मार्च को अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल से जैसे ही यह अनुरोध किया कि यह सुनिश्चित किया जाए कि चयन समिति की बैठक तुरंत बुलाई जाए, लोकपाल पैनल के गठन को अंतिम रूप दिया गया और लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने से केवल कुछ सप्ताह पहले हमे अपना पहला लोकपाल अध्यक्ष मिला।
आइये इस लोकपाल पैनल और कानून के बारे में हर वो चीज़ आपको समझते हैं जो आपको जानना और समझना चाहिए।
दरअसल लोकपाल की परिकल्पना एक राष्ट्रीय भ्रष्टाचार-विरोधी एजेंसी के रूप में की गई है, जिसके पास किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने का अधिकार है, जो प्रधानमंत्री, या केंद्र सरकार में मंत्री, या संसद सदस्य, और साथ ही समूह A, B, C, D के तहत केंद्र सरकार के अधिकारी हैं या रहे हैं।
इसमें किसी भी बोर्ड, निगम, समाज, ट्रस्ट या स्वायत्त निकाय के अध्यक्ष, सदस्य, अधिकारी और निदेशक जो या तो संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित किए जाते हैं या पूरी तरह से केंद्र द्वारा वित्त पोषित होते हैं, भी शामिल हैं। इसमें कोई भी सोसाइटी या ट्रस्ट या निकाय भी शामिल हैं जो 10 लाख से ऊपर का विदेशी धन प्राप्त करते हैं।
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, जो केंद्र में लोकपाल की नियुक्ति की परिकल्पना करता है और राज्यों में लोकायुक्तों की कुछ श्रेणियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को देखता है यह कानून 2013 में पारित किया गया था। हालाँकि सशस्त्र बल लोकपाल के दायरे में नहीं आते हैं।
इसकी अपनी जांच टीम और अभियोजन पक्ष होंगे और इसके पास सीबीआई द्वारा जांच की निगरानी करने की शक्तियां होंगी। अधिनियम में अपराध का ट्रायल करने के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान भी हैं।
अधिनियम में अभियोजन लंबित होने पर भी भ्रष्ट साधनों द्वारा अर्जित संपत्ति की कुर्की और जब्ती के प्रावधान शामिल हैं। राज्यों को इस अधिनियम के प्रारंभ होने के 1 वर्ष के भीतर लोकायुक्त का गठन करना होगा।
लोक सेवकों के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि वे अपने पति या पत्नी और आश्रित बच्चों के साथ अपनी संपत्ति और देनदारियों की घोषणा करें। अधिनियम यह भी सुनिश्चित करता है कि सार्वजनिक कर्मचारी जो व्हिसलब्लोअर के रूप में कार्य करते हैं, वे सुरक्षित हैं। इस उद्देश्य के लिए एक अलग व्हिसल ब्लोअर संरक्षण अधिनियम पारित किया गया था।
यदि ऐसे लोक सेवकों के कब्जे में पाई गई कोई भी संपत्ति घोषित नहीं की गई है, या यदि इन के बारे में भ्रामक जानकारी दी गई है, तो इससे यह निष्कर्ष निकल सकता है कि संपत्ति भ्रष्ट साधनों द्वारा हासिल की गई थी। राज्य सरकारों के तहत लोक सेवकों के लिए, राज्यों को अपने स्वयं के अधिकारियों के खिलाफ आरोपों से निपटने के लिए लोकायुक्त की स्थापना करनी होगी।
लोकपाल समिति एवं नियुक्ति?
नियमों के अनुसार, लोकपाल पैनल में एक अध्यक्ष और अधिकतम 8 सदस्यों के लिए प्रावधान है। इनमें से 4 को न्यायिक सदस्य बनाने की जरूरत है। लोकपाल में कम से कम 50% सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों और महिलाओं से संबंधित व्यक्तियों में से होंगे।
चयन होने पर, अध्यक्ष और सदस्य 5 वर्ष की अवधि तक या 70 वर्ष की आयु तक पद पर रहेंगे। अध्यक्ष के वेतन और भत्ते भारत के मुख्य न्यायाधीश के समान ही होंगे। अन्य सदस्यों को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समान वेतन और भत्ते का भुगतान किया जाएगा।
पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष को लोकपाल में अध्यक्ष बनाये जाने के अलावा 4 न्यायिक और 4 गैर न्यायिक सदस्य भी नियुक्त किए गए हैं। न्यायिक सदस्यों में जस्टिस दिलीप बी. भोसले, जस्टिस प्रदीप कुमार मोहंती, जस्टिस अभिलाषा कुमारी और जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी हैं।
एस. एस. बी. की पूर्व प्रमुख अर्चना रामसुंदरम और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव दिनेश कुमार जैन, महेन्द्र सिंह और इंद्रजीत प्रसाद गौतम को समिति का गैर न्यायिक सदस्य बनाया गया है।
प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रपति द्वारा नामित एक प्रसिद्ध न्यायविद, एक 5 सदस्यीय पैनल का निर्माण करते हैं, जो लोकपाल का चयन करता है। जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष एवं अन्य सदस्यों की नियुक्ति भी ऐसे ही एक पैनल ने की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी (राष्ट्रपति द्वारा नामित एक प्रसिद्ध न्यायविद के रूप में) की प्रख्यात हस्ती की क्षमता वाली चयन समिति ने ये नियुक्तियां की हैं।
हालाँकि कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, जो सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता हैं, वो इस चयन पैनल की बैठकों का लगातार बहिष्कार करते रहे हैं। उन्होंने इस तथ्य का विरोध करते हुए बैठक में भाग लेने से इनकार कर दिया था कि उन्हें सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता की क्षमता में शामिल होने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया बल्कि उन्हें "विशेष आमंत्रित" के रूप में बुलाया गया।
लोकपाल की शक्तियाँ क्या हैं?
अधिनियम के अनुसार, लोकपाल किसी भी लोक सेवक को समन कर सकता है या उससे पूछताछ कर सकता है, यदि किसी व्यक्ति के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला चल रहा है, भले ही जांच एजेंसी (जैसे सतर्कता या सीबीआई) ने उस मामले में जांच शुरू कर दी हो। सीबीआई का कोई भी अधिकारी जो लोकपाल द्वारा संदर्भित मामले की जांच कर रहा है, उसे लोकपाल की मंजूरी के बिना स्थानांतरित नहीं किया जाएगा।
6 महीने के भीतर किसी भी मामले की जांच पूरी होनी चाहिए। हालांकि, लोकपाल या लोकायुक्त एक बार में 6 महीने के एक्सटेंशन की अनुमति दे सकते हैं, बशर्ते कि इस तरह के एक्सटेंशन की आवश्यकता लिखित रूप में दी गई हो।
लोकपाल के विभिन्न अंग क्या होंगे?
लोकपाल अपने विभिन्न अंग (branch) के बारे में निर्णय करेगा। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 के तहत दण्डित एवं एक लोक सेवक द्वारा किये गए किसी भी अपराध की प्रारंभिक जांच करने के उद्देश्य से, यह एक "इंक्वायरी विंग" स्थापित करेगा, जो कि पूछताछ के निदेशक की अध्यक्षता में कार्य करेगा।
इस अधिनियम के तहत लोकपाल द्वारा किसी भी शिकायत के संबंध में लोकसेवकों पर मुकदमा चलाने के उद्देश्य से, अभियोजन निदेशक की अध्यक्षता में "अभियोजन विंग" भी स्थापित होगा।
जब तक इन अधिकारियों को नियुक्त नहीं किया जाता है, तब तक सरकार को प्रारंभिक जांच करने और अभियोजन को आगे बढ़ाने के लिए अपने मंत्रालयों और विभागों से अधिकारियों और कर्मचारियों को उपलब्ध कराना होगा। लोकपाल का एक सचिव होगा, जिसे केंद्र सरकार द्वारा तैयार नामों के एक पैनल में से लोकपाल अध्यक्ष द्वारा नियुक्त किया जाएगा। इस सचिव का पद भारत सरकार के सचिव के पद के समान होगा।
लोकपाल के अन्य सदस्यों को नियुक्त किए जाने के बाद, अधिक नियुक्तियों के लिए प्रक्रिया शुरू होगी: जिनमे सचिव, जांच निदेशक और अभियोजन निदेशक और लोकपाल के अन्य अधिकारी और कर्मचारी जैसे पद शामिल हैं।
लोकपाल द्वारा प्रधानमंत्री के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच
लोकपाल प्रधानमंत्री के खिलाफ किसी भी भ्रष्टाचार के आरोप में पूछताछ नहीं कर सकता है यदि वह आरोप अंतरराष्ट्रीय संबंधों, बाहरी और आंतरिक सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष से संबंधित हैं, जब तक कि लोकपाल की एक पूर्ण पीठ, इसके अध्यक्ष और सभी सदस्य मिलकर, एक जांच शुरू करने पर विचार नहीं करते हैं।
इसके पश्च्यात समस्त सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा इस जांच के पक्ष में अनुमोदन भी आवश्यक है। इस तरह की सुनवाई कैमरे में होनी चाहिए, और अगर शिकायत खारिज हो जाती है, तो कोई भी रिकॉर्ड प्रकाशित नहीं किया जाएगा या न ही इसे किसी को भी उपलब्ध कराया जाएगा।
लोकपाल द्वारा मिली शिकायत पर कार्य करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया
A - अधिनियम के अंतर्गत शिकायत की प्राप्ति
लोकपाल अधिनियम के तहत की गयी शिकायत, निर्धारित प्रपत्र में होनी चाहिए और एक लोक सेवक के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध से संबंधित होनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति इस तरह की शिकायत कर सकता है।
जब एक शिकायत प्राप्त होगी, तो लोकपाल (अगर उसे प्रथम दृष्टया मामला जांच लायक लगता है) अपनी जांच विंग द्वारा प्रारंभिक जांच का आदेश दे सकता है, या किसी भी एजेंसी द्वारा (सीबीआई सहित) जांच के लिए संदर्भित कर सकता है।
हालाँकि एजेंसी द्वारा जांच के आदेश देने से पहले, लोकपाल, लोक सेवक से स्पष्टीकरण मांगेगा जिससे उसके द्वारा यह निर्धारित किया जा सके कि क्या उस शिकायत में एक प्रथम दृष्टया मामला मौजूद है। यह प्रावधान, अधिनियम कहता है, किसी भी खोज और जब्ती के साथ हस्तक्षेप नहीं करेगा जो जांच एजेंसी द्वारा किया जा सकता है।
लोकपाल, केंद्र सरकार के सेवकों के संबंध में शिकायतों को केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) को भेज सकता है। CVC समूह A और B के अंतर्गत आने वाले अधिकारियों के बारे में लोकपाल को एक रिपोर्ट भेजेगा; और ग्रुप सी और डी में उन लोगों के खिलाफ सीवीसी अधिनियम के अनुसार कार्यवाही आगे बढ़ाएगा।
B - प्रारंभिक जांच की प्रक्रिया
इंक्वायरी विंग या किसी अन्य एजेंसी को इसकी प्रारंभिक जांच पूरी करनी होगी और 60 दिनों के भीतर लोकपाल को अपनी एक रिपोर्ट देनी होगी। अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले इस एजेंसी या विंग को लोक सेवक और "सक्षम प्राधिकारी" दोनों से टिप्पणियां लेनी होंगी।
लोक सेवक की प्रत्येक श्रेणी के लिए एक 'सक्षम प्राधिकारी' होगा। उदाहरण के लिए, प्रधान मंत्री के लिए, यह लोकसभा है, और अन्य मंत्रियों के लिए, यह प्रधानमंत्री होगा। और विभाग के अधिकारियों के लिए, यह संबंधित मंत्री होगा।
एक लोकपाल बेंच जिसमें 3 से कम सदस्य नहीं होंगे, प्रारंभिक जांच रिपोर्ट पर विचार करेगा, और लोक सेवक को एक अवसर देने के बाद, यह तय करेगा कि उसे जांच के साथ आगे बढ़ना चाहिए या नहीं। यह बेंच एक पूर्ण जांच का आदेश दे सकती है, या विभागीय कार्यवाही शुरू कर सकती है या कार्यवाही को बंद कर सकती है।
यदि शिकायतकर्ता का आरोप झूठा पाया जाता है तो यह बेंच शिकायतकर्ता के खिलाफ कार्यवाही भी कर सकती है। यह भी आवश्यक है की शिकायत की प्राप्ति के 90 दिनों के भीतर प्रारंभिक जांच सामान्य रूप से पूरी की जानी चाहिए।
C - जांच के बाद की प्रक्रिया
जांच का आदेश प्राप्त करने वाली एजेंसी को उचित न्यायालय में अपनी जांच रिपोर्ट दर्ज करनी होगी, और लोकपाल के समक्ष उस रिपोर्ट की एक प्रति देनी होगी। कम से कम 3 सदस्यों की एक बेंच उस रिपोर्ट पर विचार करेगी और उसके पश्च्यात यह बेंच अभियोजन विंग को एजेंसी की चार्जशीट के आधार पर लोक सेवक के खिलाफ आगे बढ़ने की मंजूरी दे सकती है।
यह सक्षम अधिकारी से विभागीय कार्रवाई करने या रिपोर्ट को बंद करने का निर्देश देने के लिए भी कह सकती है। इससे पहले, एक लोक सेवक को नियुक्त करने या हटाने की शक्ति के साथ निहित अधिकार वह था, जो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के तहत मंजूरी देने वाला था।
अब इस शक्ति का प्रयोग लोकपाल, एक न्यायिक निकाय द्वारा किया जाएगा। किसी भी स्थिति में, लोकपाल को "सक्षम प्राधिकारी" की टिप्पणियों के साथ-साथ सार्वजनिक सेवक की टिप्पणियों को भी इस तरह की मंजूरी देने से पहले लेनी होगी।
लोकपाल के सापेक्ष लोकायुक्त क्या हैं?
लोकायुक्त, केंद्रीय लोकपाल के राज्य में समकक्ष हैं। अधिनियम के सेक्शन 63 में वर्णित है, "किसी सार्वजनिक पदाधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार से संबंधित शिकायतों से निपटने के लिए इस अधिनियम के प्रारंभ होने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर, प्रत्येक राज्य को राज्य के लिए लोकायुक्त के रूप में जाने जाने वाले एक निकाय की स्थापना करनी होगी, यदि राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा, ऐसे किसी निकाय की नियुक्ति या स्थापना नहीं की गयी है।"
इसका अर्थ यह है कि लोकायुक्त की संस्था की स्थापना जिसमें कोई भी नियुक्ति शामिल है, राज्यों के क्षेत्र में आती है। वर्ष 2013 के अधिनियम के पारित होने पर कुछ राज्यों में लोकायुक्त पहले से ही कार्यरत थे। हालांकि, अधिकांश राज्य लोकायुक्त के बिना कार्यशील हैं।
पिछले साल, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "ऐसा लगता है कि...जम्मू और कश्मीर, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, पुदुचेरी, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और अरुणाचल प्रदेश ने लोकपाल, लोकायुक्त या उप-लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की है।
अदालत ने इन राज्यों के मुख्य सचिवों से पूछा "क्या लोकायुक्त / उप-लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए कदम उठाए गए हैं और यदि ऐसा है तो वो कदम क्या हैं...लोकायुक्त/उप-लोकायुक्त की नियुक्ति न करने के कारणों को भी अदालत के समक्ष रखा जाए।"
अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम विधानसभाओं ने वर्ष 2014 में लोकायुक्त बिल पारित किए थे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुदुचेरी विधानसभाओं ने पिछले साल जुलाई में लोकायुक्त संबंधित विधेयकों को पारित किया था।