पुरानी योजना के तहत पेंशन लाभ के लिए अंशकालिक सेवा को मान्यता दी गई: बॉम्बे हाईकोर्ट
Amir Ahmad
17 Dec 2024 11:43 AM IST
बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जस्टिस नितिन डब्ल्यू. साम्ब्रे और वृषाली वी. जोशी की खंडपीठ ने माना कि महाराष्ट्र सिविल सेवा (पेंशन) नियम 1982 के तहत अंशकालिक शिक्षण सेवा को पेंशन लाभ में गिना जाना चाहिए। इसने पुष्टि की कि याचिकाकर्ता जो अंशकालिक से पूर्णकालिक शिक्षण में चले गए 1999 में अपनी पहली नियुक्ति से पेंशन लाभ के हकदार थे। इसने माना कि अंशकालिक शिक्षक के रूप में सेवा की गई आधी अवधि साथ ही पूर्णकालिक व्याख्याता के रूप में बिताई गई पूरी अवधि को पेंशन गणना के लिए माना जाना चाहिए। अदालत ने राज्य को तदनुसार लाभ प्रदान करने का आदेश दिया।
पूरा मामला
राजेंद्र विश्वनाथ मून ने जुलाई 1999 से जुलाई 2007 तक श्री शिवाजी कला, वाणिज्य और विज्ञान महाविद्यालय, राजुरा में अंशकालिक शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया। उनकी नियुक्तियों को शिक्षा विभाग द्वारा प्रतिवर्ष अनुमोदित किया जाता था। जुलाई, 2007 में उन्हें पूर्णकालिक व्याख्याता बनाया गया।
जून 2024 में रिटायर होने के बाद उन्होंने अनुरोध किया कि उनकी अंशकालिक सेवा को पेंशन के लिए उनके योग्यता कार्यकाल में शामिल किया जाए। इसके साथ, उन्होंने तर्क दिया कि उनकी कुल सेवा 21 वर्ष से अधिक थी और उन्हें पुरानी पेंशन योजना के तहत लाभ के लिए योग्य बनाया। शिक्षा विभाग ने उन्हें DCP योजना के तहत वर्गीकृत किया, जो 1 नवंबर, 2005 के बाद नियुक्त कर्मचारियों पर लागू है। इसने दावा किया कि उनकी अंशकालिक सेवा में कुछ वर्षों के लिए स्थायी स्वीकृति का अभाव था और उनके रोजगार में एक ब्रेक था।
तर्क
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उनकी अंशकालिक भूमिका, हालांकि पूर्णकालिक नहीं थी निरंतर थी और पेंशन नियमों के तहत आंशिक मान्यता के लिए योग्य थी। उन्होंने मुकुंद बापूराव धाकड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य (WP नंबर 10221/2015) पर भरोसा किया, जिसमें पेंशन लाभ के लिए अंशकालिक सेवा पर विचार किया गया। उन्होंने तर्क दिया कि यहाँ भी यही लागू होगा।
अंत में उन्होंने दावा किया कि उनकी मंजूरी में कोई भी अंतराल वास्तविक काम में रुकावटों के बजाय प्रशासनिक देरी के कारण था। राज्य और शिक्षा विभाग सहित प्रतिवादियों ने प्रतिवाद किया कि याचिकाकर्ता की अंशकालिक स्थिति अस्थायी थी और कुछ वर्षों में उसमें निरंतरता का अभाव था। उन्होंने तर्क दिया कि वह प्रत्येक शैक्षणिक सत्र के लिए अस्थायी आधार पर था, और उसका पद स्वयं स्थायी प्रकृति का नहीं था।
उन्होंने यह भी बताया कि 2007 में उसकी पूर्णकालिक नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा परिभाषित अंशदायी पेंशन योजना (DCP) जारी करने के बाद हुई थी जिससे उसे पुरानी पेंशन प्रणाली से अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
न्यायालय का तर्क
अदालत ने सबसे पहले उल्लेख किया कि प्रशासनिक मंजूरी में देरी के बावजूद याचिकाकर्ता ने 1999 से बिना किसी रुकावट के सेवा की है। इसने यह भी उजागर किया कि प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ता को हर साल नियुक्ति आदेश जारी नहीं किया था। अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि इससे उनके इस दावे को बल मिलता है कि याचिकाकर्ता की सेवा में निरंतरता का अभाव था।
इसके अलावा मुकुंद बापूराव धाड़कर और शालिनी आसाराम अक्करबोटे बनाम महाराष्ट्र राज्य (डब्ल्यूपी संख्या 8289/2013) पर भरोसा करते हुए अदालत ने कहा कि पेंशन लाभ के लिए अंशकालिक सेवा पर भी विचार किया जाना चाहिए। हालांकि इसने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता की अंशकालिक सेवा अवधि का केवल आधा हिस्सा ही गिना जाएगा।
अदालत ने माना कि पूर्णकालिक व्याख्याता के रूप में बिताए गए समय के साथ अंशकालिक शिक्षक के रूप में सेवा की गई अवधि का आधा हिस्सा पेंशन गणना के लिए माना जाएगा। इसने नोट किया कि इससे याचिकाकर्ता का कुल कार्यकाल 21 वर्षों से अधिक हो गया, जिससे वह पुरानी योजना के तहत लाभ पाने का हकदार हो गया।
अदालत ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि DCP योजना याचिकाकर्ता पर लागू होती है। इसने स्पष्ट किया कि पुरानी पेंशन योजना की प्रयोज्यता पहली नियुक्ति की तारीख पर निर्भर करती है न कि बाद के स्थिति परिवर्तनों पर। उन्होंने स्पष्ट किया कि 2007 में पूर्णकालिक नियुक्ति ने सेवा में शामिल होने पर उनकी प्रारंभिक पात्रता में कोई बदलाव नहीं किया। इस प्रकार, न्यायालय ने याचिका को स्वीकार कर लिया और राज्य को उचित पेंशन लाभ प्रदान करने का निर्देश दिया।