DNA टेस्ट का आदेश देने से पहले बच्चे के अधिकारों की रक्षा जरूरी, सिर्फ मां की सहमति ही पर्याप्त नहीं: बॉम्बे हाईकोर्ट
Amir Ahmad
9 July 2025 11:43 AM IST

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि यदि किसी बच्चे की मां उसके पितृत्व की जांच के लिए DNA टेस्ट कराने के लिए सहमत भी हो तब भी कोर्ट को बच्चे के अधिकारों का संरक्षक (Custodian) बनकर उसके हितों पर विचार करना आवश्यक है। कोर्ट को टेस्ट के पक्ष और विपक्ष दोनों पहलुओं का मूल्यांकन करना चाहिए, न कि केवल माता-पिता के विवाद को हल करने के उद्देश्य से DNA टेस्ट का आदेश दे देना चाहिए।
जस्टिस आर.एम. जोशी की एकलपीठ ने यह टिप्पणी उस मामले में की, जिसमें महिला ने फैमिली कोर्ट द्वारा उसके बच्चे का DNA टेस्ट कराने के आदेश (दिनांक 7 फरवरी 2020) को चुनौती दी थी। फैमिली कोर्ट ने यह आदेश महिला के पति की अर्जी पर दिया था, जिसने बच्चे की वैधता पर सवाल उठाया था और आरोप लगाया था कि उसकी पत्नी व्यभिचारी जीवन जी रही थी तथा विवाहिक घर छोड़ने के बाद ही उसने बच्चे को जन्म दिया।
महिला ने तर्क दिया कि जब वह पति का घर छोड़कर गई तब वह पहले ही तीन महीने की गर्भवती थी।
कोर्ट ने कहा,
"मान लिया जाए कि पत्नी DNA टेस्ट के लिए सहमत थी, तब भी यह कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वह बच्चे के सर्वोत्तम हितों पर विचार करे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी को भी जबरन ब्लड टेस्ट (DNA Test) के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। एक नाबालिग बच्चा यह निर्णय लेने में सक्षम नहीं होता कि वह टेस्ट कराए या नहीं।"
कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि पति अगर केवल व्यभिचार के आरोप लगाता है और यह साबित नहीं कर पाता कि बच्चे के जन्म के समय उसका पत्नी से कोई संपर्क नहीं था (No Access), तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के तहत बच्चे की वैधता की कानूनी मान्यता को चुनौती नहीं दी जा सकती।
जस्टिस जोशी ने कहा,
"अगर पति का आरोप यह है कि पत्नी व्यभिचारी जीवन जीती है तो इस तथ्य को अन्य सबूतों से साबित किया जा सकता है। इसके लिए बच्चे को DNA टेस्ट के लिए बुलाना आवश्यक नहीं है।"
इन टिप्पणियों के साथ हाईकोर्ट ने पति की याचिका खारिज कर दी।
टाइटल: SKP बनाम KSP (रिट याचिका 3499/2020)

