ट्रायल अनेक प्रकार के होते हैं, उन प्रकारों में समरी ट्रायल भी ट्रायल का एक प्रकार है जहां किसी अपराध की सुनवाई अदालत द्वारा काफी शार्ट में की जाती है। मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों और समन मामलों के विचारण किए जाने वाले मामले की न्यायिक प्रक्रिया थोड़ी वृहद रहती है। ऐसी विषाद प्रक्रिया से गुजरने के बाद न्याय के लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। मजिस्ट्रेट द्वारा छोटे मामलों में भी वारंट मामलों की तरह विचारण नहीं किया जाता है इससे न्यायालय में मामलों की अधिकता बढ़ती है, छोटे-छोटे मामलों से भी न्यायालय में प्रकरणों की भरमार हो सकती है।
इस समस्या से निपटने के लिए द्रुतगति से न्याय की प्रक्रिया को निपटाने के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता BNSS में समरी ट्रायल को रखा गया है। BNSS की धारा 283 से लेकर धारा 288 तक समरी ट्रायल के संबंध में प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। इसके अंतर्गत अपनाई जाने वाली जांच की प्रक्रिया छोटी होती है।
धारा 285 के अनुसार समरी ट्रायल के लिए वही प्रक्रिया अपनायी जाती है जो समन मामलों के लिए निर्धारित की गयी है। समरी ट्रायल के अंत में मजिस्ट्रेट अभियुक्त के अभिवचन को अभिलिखित करता है। इसमें औपचारिक रूप से आरोप विरचित नहीं किया जाता है तथा यदि अर्थदंड ₹200 से अधिक ना हो तो अपील का भी प्रावधान नहीं है।
वह अपराध जिनका विचारण संक्षिप्त किया जाएगा-
सामान्यतः समरी ट्रायल की प्रक्रिया ऐसे अपराधों के मामले में अपनायी जाती है जो 2 वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय नहीं है। यह प्रक्रिया कतिपय विशिष्ट मामलों के लिए भी अपनायी जाती है जिनका उल्लेख धारा 283 में किया गया है।
2 वर्ष तक के कारावास से दंडनीय अपराध
वह अपराध धारा जो भारतीय न्याय संहिता की धारा 303(2), 305,306,317(2),331,352, है।
पशु अतिचार अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अपराधों का विचारण भी संक्षिप्त किया जाएगा।
समरी ट्रायल का महत्व-
समरी ट्रायल का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है। इसके अंतर्गत छोटे मामलों को शीघ्रता से निपटाया जा सकता है तथा शीघ्र एवं सुगम न्याय छोटे मामलों में हो सकता है। इस प्रकार के प्रावधान से न्यायिक प्रक्रिया पर भार भी कम होता है। न्यायालय में प्रकरणों की संख्या कम होती है तथा न्यायाधीशों को न्याय की लंबी प्रक्रिया करना होती है। धन भी कम खर्च होता है क्योंकि जितनी विषाद न्याय की प्रक्रिया है राज्य का उतना धन नष्ट होता है।
समरी ट्रायल का महत्व इसलिए है क्योंकि राज्य, न्यायपालिका एंव जनसाधारण तीनों को लाभ दे रहा है। आम जनता को समरी ट्रायल से शीघ्र न्याय प्राप्त हो जाता है। पीड़ित पक्षकार तथा अभियुक्त दोनों को समरी ट्रायल से शीघ्र राहत हो जाती है। किसी भी छोटे अपराध को विषाद विचारण से गुजारना न्याय हित में ठीक मालूम नहीं होता है। आज भारत में अनेको छोटे-छोटे मामले समरी ट्रायल के माध्यम से निपटाएं जा रहे हैं।
परमेश्वर लाल बनाम सम्राट AIR 1922 पटना के एक महत्वपूर्ण मामले में बड़ी रोचक बात कही गयी है। इस धारा में वर्णित अपराधों में समरी ट्रायल की प्रक्रिया अपनाई जाने का विवेकाधिकार मजिस्ट्रेट को है। यदि मामला पेचीदा है जटिल हो तो मजिस्ट्रेट द्वारा उसके लिए समरी ट्रायल की प्रक्रिया नहीं अपनायी जानी चाहिए।
कोई मामला समरी ट्रायल द्वारा विचार नहीं होने पर भी यदि मजिस्ट्रेट उचित समझे तो उसे संक्षिप्त विचार पद्धति से ना निपटाए जाने का निर्णय ले सकता है क्योंकि यह उसके विवेक का प्रश्न है। इसी प्रकार धारा 283 उपधारा (2) में स्पष्ट उल्लेख है कि यदि किसी मामले में समरी ट्रायल के दौरान मजिस्ट्रेट यह अनुभव करता है कि मामले को समरी ट्रायल करना उचित नहीं है तो वह मामले को अन्यथा सकता है तथा को बंद कर सकता है।
यह आवश्यक नहीं है कि समरी ट्रायल के लिए मामले से संबंधित अपराध भारतीय दंड संहिता के अधीन दंडनीय हो व अन्य स्थान में अथवा विशेष अधिनियम के अंतर्गत दंड नहीं होने पर भी उसके लिए समरी ट्रायल की प्रक्रिया अपनायी जा सकती है लेकिन कारावास की अवधि 2 वर्ष से अधिक ना होने पर कारावास सश्रम अथवा साधारण इनमें से कुछ भी हो सकता है।
बीके अग्रवाल बनाम बसंत राज भाटिया 1988 सुप्रीम कोर्ट के मुकदमे में समरी ट्रायल के उद्देश्य पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अभिमत प्रकट किया है कि संहिता की धारा 283 में वर्णित समरी ट्रायल की व्यवस्था में मामले के शीघ्र निपटारे हेतु की गयी है लेकिन इसका अर्थ नहीं है कि गंभीर अपराधों में मात्र विलंब के आधार पर कार्यवाही को ही बंद कर दिया जाए।
BNSS की धारा 283 के अंतर्गत समरी ट्रायल को अभियोजन पक्ष या अभियुक्त के अधिकार की तरह नहीं दिया गया है अपितु यह तो मजिस्ट्रेट का अधिकार है। धारा 283 के अंतर्गत समरी ट्रायल को मजिस्ट्रेट का विवेक बतलाया गया है।
समरी ट्रायल के दौरान यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि मामले का समरी ट्रायल वांछनीय नहीं है तो वह मामले को BNSS में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार सुनने के लिए अग्रसर होगा। उन सब साक्षियों को पुनरीक्षण हेतु पुनः बुला सकेगा जिनका परीक्षण कर चुका है।
समरी ट्रायल की प्रक्रिया
समरी ट्रायल की कोई विशेष प्रक्रिया नहीं होती है। BNSS की धारा 285 के अंतर्गत समरी ट्रायल की प्रक्रिया बतायी गयी है। इस धारा के अनुसार समरी ट्रायल की प्रक्रिया वही होती है जो कि समन मामलों के विचारणों में अपनायी जाती हैं। वैसे ही प्रक्रिया संक्षिप्त के मामलों में अपनायी जाती है।
यदि सुनवाई कर लेने के पश्चात मजिस्ट्रेट को यह लगता है कि मामला समन विचारण की तरह विचार किया जाना चाहिए तो वह प्रकरण को समन मामलों का विचारण करेगा।
BNSS के अंतर्गत समरी ट्रायल में दिए जाने वाले दंड की अवधि तय की गयी है। धारा 285 के अंतर्गत यह उल्लेख किया गया है कि किसी भी समरी ट्रायल के अंतर्गत 3 माह से अधिक का कारावास नहीं दिया जाएगा तथा इसके अंदर जुर्माना किया जा सकता है। यदि जुर्माने का भुगतान नहीं किया जाता है तो जुर्माने के भुगतान नहीं किए जाने के परिणाम स्वरूप जो कारावास दिया जाएगा वह अतिरिक्त कारावास होगा, दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत जो 3 माह के कारावास का उल्लेख किया गया है यह कारावास अतिरिक्त है। जुर्माना नहीं दिए जाने का कारावास अलग से भुगतना होगा।
यह बात स्टेट बनाम मांगीलाल के मामले में कही गयी है।
इस धारा के अधीन समरी ट्रायल में मजिस्ट्रेट द्वारा दंड के रूप में जुर्माने की कोई भी राशि अधिग्रहित की जा सकती है। उसकी कोई सीमा नहीं है केवल कारावास की अवधि की सीमा समरी ट्रायल में तय की गयी है।
समरी ट्रायल के रिकॉर्ड
समरी ट्रायल के सभी रिकॉर्ड लेखबद्ध किए जाएंगे। सामान्यतः कुछ बातें है जैसे अपराध का क्रमांक, अभियुक्त का पता नाम इत्यादि सभी बातों को एक कैसे फॉर्मेट में लेखबद्ध किया जाएगा जैसा फॉर्मेट राज्य सरकार निहित करती है।
संहिता की धारा 287 के अंतर्गत संक्षिप्त मामलों के अंतर्गत निर्णय दिया जाता है। यदि मामले में अभियुक्त दोषी होने का अभिवाक नहीं करता है अपराध स्वीकार नहीं करता है तो मजिस्ट्रेट साक्ष्य लेता है। साक्ष्य लेने के बाद साक्ष्य के सारांश तथा अपने निष्कर्ष के कारणों का उल्लेख निर्णय में करेगा।
इस धारा का उद्देश मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए निर्णय के विरुद्ध अपील की दशा में अपील न्यायालय को समुचित जानकारी उपलब्ध कराना है। कोई भी मजिस्ट्रेट जो अपना निर्णय देगा अपने निष्कर्ष का उल्लेख करेगा एवं उसके कारणों को लेखबद्ध करेगा।
यदि मजिस्ट्रेट ने सारांश का उल्लेख नहीं किया है तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के अनुसार साक्षियों के साक्ष्य लेकर इस कमी को पूरा कर सकता है लेकिन मुंबई कलकत्ता हाई कोर्ट ने इसके ऐसे निर्णय को अवैध घोषित किया है। मजिस्ट्रेट को कारणों को लेखबद्ध करना ही होगा।