भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 15: इस अधिनियम के तहत अन्वेषण के प्राधिकृत व्यक्ति

Update: 2022-09-05 12:56 GMT

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 17 अन्वेषण के लिए प्राधिकृत व्यक्ति के संबंध में उल्लेख करती है। एक प्रकार से इस धारा में यह नियम बताए गए हैं कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत अन्वेषण किस अधिकारी द्वारा किया जाएगा। इस आलेख के अंतर्गत धारा 17 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

धारा 17

अन्वेषण के लिए प्राधिकृत व्यक्ति

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1973 का 2) में किसी बात के होते हुए भी निम्न पंक्ति के नीचे का कोई भी पुलिस अधिकारी

(क) दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना की दशा में पुलिस निरीक्षक ।

(ख) बम्बई, कलकत्ता, मद्रास और अहमदाबाद तथा किसी अन्य मेट्रोपोलिटन क्षेत्र में, जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 ( 1973 का 2) की धारा 8 की उपधारा (1) द्वारा अधिसूचना के क्षेत्र में, सहायक पुलिस आयुक्त ।

(ग) अन्यत्र उप पुलिस अधीक्षक या इसके समकक्ष पद का अधिकारी, इस अधिनियम के अन्तर्गत दण्डनीय किसी अपराध का अन्वेषण यथास्थिति मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना अथवा उसके लिए कोई गिरफ्तारी वारण्ट के बिना नहीं करेगा :

परन्तु यदि पुलिस निरीक्षक की पंक्ति से अनिम्न कोई पुलिस अधिकारी साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत हो तो वह भी ऐसे किसी अपराध का अन्वेषण, यथास्थिति मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना अथवा उसके लिए गिरफ्तारी वारण्ट के बिना कर सकेगा।

परन्तु आगे यह भी कि धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (ख) में निर्दिष्ट किसी अपराध का अन्वेषण ऐसे पुलिस अधिकारी के आदेश के बिना नहीं किया जाएगा जो पुलिस अधीक्षक की पंक्ति से अनिम्न हो।

इस धारा में, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) शब्दों के स्थान पर दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 शब्दों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम प्रतिस्थापित कर दिया है। साथ ही नवीन अधिनियम में यह धारा 17 है एवं पुराने अधिनियम में यह धारा 5क है।

उपखण्ड (ख) में कलकत्ता एवं मद्रास के प्रेसीडेंसी में शब्दों के स्थान पर बम्बई, कलकत्ता, मद्रास एवं अहमदाबाद और ऐसे किसी भी क्षेत्र में जिन्हें दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की उपधारा 8 की उपधारा (1) के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। उपखण्ड (ग) और (घ) के स्थान में धारा 17 में वर्तमान उपधारा (ग) को प्रतिस्थापित कर दिया जाता है।

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161, 165 एवं 165 क या इस अधिनियम की धारा 13 के अधीन किसी भी अपराध के शब्दों के स्थान पर "इस अधिनियम के अधीन दण्डनीय किसी भी अपराध को प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। दूसरे परन्तुक में, धारा (5) की उपधारा (1)" शब्दों के स्थान पर धारा 13 की उपधारा (1)" शब्दों को प्रतिस्थापित किया गया है।

धारा 17 का विस्तार

वर्ष 1947 का जो अधिनियम पारित किया गया, उसकी उद्देशिका लोक सेवकों के बीच रिश्वत एवं भ्रष्टाचार के निरोध के लिए उपबंधों को और प्रभावकारी बनाने के लिए निर्देश देता है। यह कथित अपराध के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध उपधारणा के नये नियमों तथा एक शासकीय कर्तव्यों का निर्वचन करने में दाण्डिक अवचार के अपराध की परिभाषा की प्रस्तावना की लेकिन प्राप्त किये गये अनुभव के आधार पर उपधारणात्मक तौर पर सन् 1952 में, धारा 5-क को परेशानी एवं शिकार बनाये जाने के विरूद्ध लोक सेवकों को संरक्षण प्रदान करने के लिए अधिनियम में अन्तःस्थापित किया गया।

यदि यह लोक सेवक के इस हेतु हुआ कि भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया जाना चाहिए तो वह इसी प्रकार से उस लोक सेवक के हित में नहीं बल्कि जनसामान्य के इस दृष्टिकोण से हिताधिकार में था कि लोक सेवक को मिथ्या, तुच्छ एवं विद्वेषपूर्ण अभ्यारोपण से स्वतंत्र उन कर्तव्यों का उन्मोचन करने में समर्थ होना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए धारा 5 एवं 6 ने निम्नलिखित दो रक्षोपायों की प्रस्तावना किया (1) पुलिस अधिकारी से नीचे का कोई व्ययक्ति नहीं (2) एक पुलिस सहायक आयुक्तः बम्बई के प्रेसीडेंसी नगर में (ग) अन्यत्र कहीं भी, एक उपपुलिस अधीक्षक धारा 161, धारा 165 या धारा 165क भारतीय दण्ड संहिता या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5 (2) के अधीन एक प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट या एक प्रथम वर्ग का मजिस्ट्रेट, यथास्थिति या वारण्ट के बिना ही उसके लिए किसी की भी गिरफ्तारी कर सकता है।

समुचित सरकार की पूर्व स्वीकृति के सिवाय एक लोक सेवक द्वारा जो अभिकथित एक अपराध भारतीय दण्ड संहिता 161 या 165 के अधीन या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5 (2) के अधीन दण्डनीय अपराध कारित किया गया, उसका कोई भी न्यायालय संज्ञान नहीं ले सकेगा। इन सभी कानूनी रक्षोपायों का कठोरतापूर्वक अनुपालन किया जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें लोक हितों में विश्वास कराया गया और तुच्छ एवं उद्वेगकारी अभियोजनों के विरुद्ध एक प्रतिभूति (गारण्टी) के रूप में प्रावधान किया गया।

जिस समय एक अधिकारी के स्तर एवं रैंक या पद का अभिनिश्चय किया जा रहा धा, उस समय विधान मण्डल उन्हें विश्वास कराने के लिए तैयार था और उसी समय इसने उस पद से नीचे के पुलिस अधिकारियों के मामले में एक अतिरिक्त गारण्टी का विधान किया अर्थात् एक प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट या यथास्थिति प्रथम श्रेणी का एक मजिस्ट्रेट मजिस्ट्रेट का स्तर, वास्तविक अन्वेषण को आश्यासन देता है।

इस प्रकार के मामले में, यह स्वतः प्रमाण है कि एक मजिस्ट्रेट एक लेकिन उस चरण पर उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये उपलब्ध सुसंगत तात्विकता के संबंध को दृष्टिगत रखते हुए किया जाना चाहिए और उसके इस बात का भी समाधान किया जाना चाहिए कि अन्वेषण को एक अधीनस्थ अधिकारी को गोपन के लिए प्रशासनिक सुविधा की अनिवार्यता का उत्तरदायी होने के लिये पर्याप्त होना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय ने एच एस रिशबुद बनाम दिल्ली राज्य, के मामले को सर्वोच्च न्यायालय अधिनियम, 1947 के प्रावधानों का कठोरतापूर्वक पालन की आवश्यकता पर जोर देते हुए निम्नलिखित प्रेक्षण किया है।

"अत: जब विधान मण्डल ने अधिनियम में समावेष्ठित किये गये भ्रष्टाचार के अपराधों के अन्वेषण से जहाँ तक अभियोजन के संबंध होने के मुद्दे पर लोक सेवकों को अभियोजन से दूर रखना ही उचित समझा, तब उन्हें संज्ञेय बनाकर यह उपधारणा की जा सकती है कि यह अपेक्षा करके असम्यक् परेशानी से प्रतिस्थापित रक्षोपाय का प्रावधान करना आवश्यक समझा गया कि अन्वेषण एक उच्च पद से नामोदिष्ट किये गये एक पुलिस अधिकारी द्वारा सामान्यरूपेण संचालित किया जाना होता है। अतएव अधिनियम, 1947 की धारा 5 की उपधारा (4) की निर्विवाद भाषा के साथ ही साथ इसका उल्लेख करने वाली प्रत्यक्षतः पालिसी को दृष्टिगत रखते हुए, यह समुचित तौर पर स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रावधान को अवश्यमेव आज्ञापक होने के रूप में ही ग्रहण किया जाना चाहिए।"

प्रस्तुत मामले में राज्य सरकार की ओर से प्रस्तुत किये गये तर्कों पर विचार करने पश्चात् माननीय न्यायालय द्वारा निम्नलिखित प्रेक्षण किये गये के वर्तमान न्यायालय इस राय पर स्पष्टरूपेण पहुँचता है कि अधिनियम की धारा 3 के प्रावधान तथा धारा 5 (4) के प्रावधान तथा 1952 के अधिनियम की धारा तत्संवादी धारा 5-क आज्ञापक एवं निर्देशात्मक है और उनके उल्लंघन हो जाने की दशा में किया गया अन्वेषण, एकमात्र अवैधानिकता के स्टैम्प को धारण करने वाला माना जा सकता है।"

यहीं नहीं, बल्कि उच्चतम न्यायालय एक बार पुनः विश्वभूषण नायक बनाम उड़ीसा राज्य (ए आई आर 1954 उच्चतम न्यायालय 359 क्रि लॉ ज 1002 के मामले में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 6 के विस्तार पर गंभीरता पूर्वक विचार किया। वहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यही उठा कि क्या राज्य सरकार द्वारा प्रदान की गयी मंजूरी अवैध थी या नहीं? ऐसे प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित राय व्यक्त की गयी

न्यायिक समिति का निर्णय काटन क्लाथ एण्ड यार्न कन्ट्रोल आर्डर, 1943 के खण्ड 23 से संबंध रखता है लेकिन सिद्धान्त यहाँ लागू होते हैं। ऐसे तथ्यों का प्राकथन करने के बारे में इसके लिए इसका किसी विशिष्ट प्ररूप में या लिखित होना, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 के अधीन मंजूरी के लिए और किसी बात की आवश्यकता नहीं होती है जिसके सन्दर्भ में उसी आदेश के खण्ड 23 के अधीन इसे तुलनात्मक दृष्टिकोण से प्रदान किया जाता है।

ऐसे एक आश्रय की आकांक्षा स्पष्ट है क्योंकि जब स्वीकृति मंजूरी में उल्लिखित नहीं किया जाता है, तब इसे बाह्य स्रोत से इस संदर्भ में प्रदान किया जाना होता है कि मंजूरी आरोपित किये गये अपराध का गठन करने वाले तथ्यों के संदर्भ में प्रदान की गयी थी, किन्तु वैसा करने का कार्यलोपन को जब तक किसी दूसरे ढंग से साबित नहीं कर दिया जाता है और वे अन्यथा नहीं होते, तब तक वे घातक नहीं माने जाते हैं।

जिस समय परेशानी के विरुद्ध लोक सेवकों को अधिनियम द्वारा प्रदान किये गये संरक्षण के महत्त्व पर, पूर्ववर्ती निर्णय द्वारा जोर डाला जाता है, उसी समय पश्चात्वर्ती निर्णय एक मंजूरी प्रदान करने वाले आदेश में सभी आवश्यक तत्त्वों को प्रस्तुत करने की आकांक्षा का भी उल्लेख करता है। यही एक मजिस्ट्रेट के आदेश के प्रति भी लागू होते हैं और कथित तथ्यों के निर्विवाद सबूत की आवश्यकता के प्रति भी लागू होते हैं जिन मामलों में मंजूरी के तथ्यों का उल्लेख नहीं किया जाता है।

इन दोनों सिद्धान्तों को लागू करके एक मामले में जहाँ एक नामोदिष्ट अधिकारी के अपेक्षाकृत एक दूसरा अधिकारी अन्वेषण कराना चाहता है, तब उसे अन्वेषण करने की कार्यवाही को प्रारम्भ करने के पूर्व उसको वैसा करने की स्वीकृति प्रदान करने वाले एक मजिस्ट्रेट का आदेश प्राप्त करना चाहिए।

इसके अलावा, यह वांछित होता है कि अनुज्ञा प्रदान करने वाले आदेश को साधारणतया देखते ही अनुज्ञा प्रदान करने हेतु कारणों को स्पष्ट करना चाहिए। एक या किसी दूसरे कारण से यदि कथित संव्यवहार को एक विशेष मामले में अभिस्वीकृति नहीं किया जाता है, तो यह अभियोजन के लिए परमावश्यक है कि मामले के तथ्यों को स्थापित करे। यदि ऐसे से इन्कार कर दिया जाता है तो मजिस्ट्रेट ने मामले का अन्वेषण करने के लिए पुलिस अधिकारी को अनुज्ञा प्रदान करने के पूर्व सुसंगत तथ्यों पर वास्तव में विचार किया है।

मजिस्ट्रेट के द्वारा अनुज्ञा की मंजूरी को एकमात्र औपचारिकता नहीं कहा जा सकता है मजिस्ट्रेट को अपनी स्वविवेकाधिकार की शक्ति को पुलिस अधिकारी के समक्ष आत्मसमर्पित नहीं कर देना चाहिए जिस समय एक मजिस्ट्रेट द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5- क के अधीन अनुज्ञा को स्वीकृति प्रदान करने के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष निवेदन किया जाता है; तब उससे स्वतः को इस बात का समाधान करने की प्रत्याशा की जाती है कि अन्वेषण का संचालन करने के लिए एक निम्नतर श्रेणी के अधिकारी को प्राधिकृत करने के लिए अच्छे एवं पर्याप्त कारण हैं।

ऐसी अनुज्ञा को मंजूरी प्रदान करना, दैनिक चर्या का एक मात्र वस्तु विषय होने के रूप में एक मजिस्ट्रेट द्वारा व्यवहृत नहीं किया जाना होता है बल्कि इसका उल्लेख करने वाले पालिसी को दृष्टिगत रखते हुए न्यायिक स्वविवेकाधिकार की शक्ति का एक प्रयोग।

भारत संघ बनाम महेश चन्द्र शर्मा, ए आई आर 1957 एम पी 43 के मामले में कहा गया है कि यह मजिस्ट्रेट को इस बात का समाधान हो जाता है कि सूचना तुच्छ एवं उद्वेगकारी है, तो उसे मामले का अन्वेषण करने की अनुज्ञा को अस्वीकार कर देना चाहिए। इस प्रतिपादना का कोई प्रमाण नहीं है कि वह उसी स्थिति में एक पुलिस उप अधीक्षक के पद से नीचे एक अधिकारी को अनुज्ञा प्रदान कर सकता है।

जब उसके समाधान में यह साबित कर दिया जाता है कि एक उपपुलिस अधीक्षक अन्वेषण से बचनबद्ध होने में असमर्थ है, यदि एक मजिस्ट्रेट प्रश्नगत अन्वेषण हेतु इजाजत देने के पूर्व प्रथमसूचना रिपोर्ट का अवलोकन कर चुका है तो यह कहा जा सकता है कि मजिस्ट्रेट स्वयमेव का समाधान इस संदर्भ करने असफल हो जाता है कि अन्वेषण करने के लिए अच्छे एवं पर्याप्त आधार विद्यमान हैं। अतएव, यह तर्क कि धारा 5-क (ग) के अधीन अन्वेषण, जो विशेष एवं असामान्य परिस्थितियों के अधीन मात्र निम्नतर पद के नीचे एक अधिकारी को सौंपा जा सकता है, को संत नहीं किया जा सकता है।

मुबारक अली नाम राज्य, एआईआर०1958 मप्र 157 के मामले में कहा गया है कि जहां, एक उप पुलिस निरीक्षक ने मामले के एक भाग का अन्वेषण करने के पश्चात् भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन अपराध का अन्वेषण करने के लिए अनुज्ञा प्रदान करने के लिए, जैसे कि इस धारा द्वारा अपेक्षा की जाती है, नगर मजिस्ट्रेट के समक्ष मामले से संबंधित किसी भी कागजात को उसके साथ संलग्न करके, एक जो अभ्यावेदन प्रस्तुत किया गया।

उसमें आवेदक द्वारा इस बात का उल्लेख किया गया था कि उसे मामले का अन्वेषण करने के लिए नियुक्त किया जा रहा था और नगर मजिस्ट्रेट ने स्वविवेक का प्रयोग किये बिना ही "अनुज्ञा प्रदान किया", आवेदन पर अभिलिखित किया; वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ अनुज्ञा प्रदान की गयी और जिस तरह से इस प्रकार की कथित अनुज्ञा के पूर्व आंशिक तौर पर अन्वेषण किया गया; वहाँ वह एक मात्र अवैधानिक थी।

मप्र राज्य बनाम मुबारक अली, एआईआर 1959 उच्चतम न्यायालय 707 के प्रकरण में कहा गया है कि जहाँ मजिस्ट्रेट भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5-क के प्रावधानों के अधीन अन्वेषण हेतु अनुज्ञा प्रदान करते समय, उसको अनुज्ञा प्रदान करने वाले आदेश के महत्व का अनुभव नहीं करता है बल्कि मात्र ऐसे आवेदन पत्र के आधार पर यान्त्रिक तौर से ऐसा आदेश पारित नहीं किया जो उपधारणात्मक रूप से किसी भी तथ्य का रहस्योद्घाटन नहीं किया क्योंकि न्यायालय ने इस प्रकार के प्रश्न पर विचार किया कि किस प्रकार से इस प्रकार के मामले में प्रावधानों पर विचार किया जाना चाहिए। हालांकि प्रस्तुत मामले में अधिनियम की धारा 5-5 के प्रावधानों का अनुपालन नहीं किया गया। इस प्रसंग में निम्नांकित प्रेक्षणों पर ध्यान देना सुसंगत है।

इन सभी कानूनी रक्षोपायों का कठोरतापूर्वक अनुपालन किया जाना चाहिए क्योंकि ये लोक हित में माना जाते थे और तुच्छ एवं उद्वेगकारी अभियोजनों के विरुद्ध गारण्टी के रूप में उपबंधित किये गये जबकि अभिनिश्चित किये गये। स्तर एवं पद के एक अधिकारी के मामले में विधायिका उन्हें उपर्युक्त विश्वास दिलाने के लिए तैयार थी, इसके अलावा यह उस श्रेणी से नीचे के पुलिस अधिकारियों के मामले में एक अतिरिक्त गारण्टी प्रदान किया अर्थात् एक प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट का एक पूर्व आदेश या प्रथम श्रेणी के एक मजिस्ट्रेट की जैसा कि मामला हो।

मजिस्ट्रेट का स्तर एक वास्तविक अन्वेषण को आश्वासन प्रदान करती है। इस प्रकार की परिस्थितियों में, यह स्वतःसिद्ध है कि एक मजिस्ट्रेट अपनी स्वविवेकाधिकार की शक्ति का आत्मसमर्पण एक पुलिस अधिकारी के समक्ष नहीं कर सकता है, बल्कि इसका प्रयोग उस चरण में उसके समक्ष उपलब्ध कराये गये सुसंगत तात्विकता को दृष्टिगत रखते हुए निश्चितरूपेण किया जाना चाहिए। उसे इस प्रश्न का अवश्यमेव भी समाधान किया जाना चाहिए कि विवेचना के साथ एक लोक सेवक को सुपुर्द करने के लिए प्रशासनिक सुविधा की अत्यावश्कता का उत्तरदायी होने वाले पर्याप्त कारण है।

धारा 5-क के अधीन अनुजा प्रदान करने के पूर्व मजिस्ट्रेट को दो बातों का निस्तारण करना चाहिए-

(1) यह कि उसके अन्वेषण के समक्ष प्रस्तुत किये गये तथ्यों ने एक अन्वेषण को न्यायोचित्यपूर्ण ठहराया और

(2) यह कि प्रस्तुत किये गये शिकायतों का अन्वेषण करने में धारा 5-क में नामनिर्दिष्ट उन सभी लोगों की अपेक्षा पद और नीचे रहने वाले एक अधिकारी को अनुज्ञा प्रदान करने हेतु प्रशासनिक अत्यावश्यकता इस प्रकार से प्रशासनिक होने के रूप में अच्छे कारण है जहाँ यह साबित करने के लिए कोई आदेश पेश नहीं किये गये कि कोई भी अनुज्ञा प्रदान की गयी और जिस अभियुक्त के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन अपराधों का अन्वेषण करने के लिए अनुज्ञा प्रदान किये जाने का अभिकथन किया गया. उसने अपनी मुख्य परीक्षा में यह कथन किया कि उसने इस बारे में अपनी सूझबूझ का प्रयोग नहीं किया कि क्यों, उपपुलिस अधीक्षक से नीचे के रैंक के एक अधिकारी को अन्वेषण करने के लिए अनुज्ञा प्रदान किया जाना चाहिए। लेकिन उसने मात्र इसी प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार किया कि जिन तथ्यों को मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया, क्या उनके आधार पर उस मामले का अन्वेषण किया जा सकता था या नहीं? यहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 5क के प्रावधानों का अनुपालन नहीं किया गया था।

एक प्रकरण में कहा गया है कि यह स्थापित करने के लिए कि अभियोजन के लिए खुला होता है कि मजिस्ट्रेट ने अपराध का अन्वेषण करने की इजाजत देने के पूर्व सुसंगत परिस्थितियों पर विचार कर उसके यही नहीं बल्कि मजिस्ट्रेट को इस संदर्भ में कोई बाधा नहीं पहुंचाई जा सकती है कि वह एक मामले के सुसंगत तथ्यों एवं परिस्थितियों पर सर्वप्रथम गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात् ही इसका अन्वेषण करने की अनुज्ञा संबंधित पुलिस अधिकारी को प्रदान करे।

Tags:    

Similar News