क्या धारा 364A IPC मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा फिरौती के लिए अपहरण पर मृत्युदंड का विश्लेषण

Update: 2024-11-08 12:36 GMT

विक्रम सिंह @ विक्की बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code - IPC) की धारा 364A की संवैधानिकता पर विचार किया, जो फिरौती के लिए अपहरण या अगवा करने पर मृत्युदंड (Death Penalty) या आजीवन कारावास (Life Imprisonment) का प्रावधान करती है।

इस मामले में, यह देखा गया कि क्या धारा 364A के तहत मृत्युदंड का प्रावधान संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से जीवन के अधिकार (Right to Life) के उल्लंघन का कारण बनता है।

धारा 364A IPC का पृष्ठभूमि (Background of Section 364A IPC)

1993 में धारा 364A को कानून में जोड़ा गया ताकि बढ़ते हुए फिरौती के लिए अपहरण (Kidnapping for Ransom) के मामलों को नियंत्रित किया जा सके। बाद में 1994 में इसे और भी व्यापक बना दिया गया ताकि विदेशी राज्यों (Foreign States) या अंतरराष्ट्रीय संगठनों (International Organizations) के खिलाफ होने वाले अपराधों को भी शामिल किया जा सके।

इस धारा में अपराधियों को कड़ी सजा देने की बात कही गई है, ताकि इस तरह के घिनौने अपराधों को रोकने में सख्त निवारण (Deterrence) सुनिश्चित हो सके।

धारा 364A पर संवैधानिक चुनौती (Constitutional Challenge to Section 364A)

इस मामले में, याचिकाकर्ताओं (Appellants) ने यह तर्क दिया कि धारा 364A, जो विशेष मामलों में मृत्युदंड को अनिवार्य बनाती है, अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है।

उन्होंने इसे मिथू बनाम पंजाब राज्य मामले के समान बताया, जिसमें धारा 303 IPC को इसलिए असंवैधानिक घोषित किया गया क्योंकि उसमें न्यायालय को मृत्युदंड देने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। याचिकाकर्ताओं का दावा था कि धारा 364A भी न्यायालय की विवेकाधिकारिता (Discretion) को हटाकर असंवैधानिक है।

न्यायिक विवेकाधिकार और अनुपातिकता पर कोर्ट का दृष्टिकोण (Court's Reasoning on Judicial Discretion and Proportionality)

कोर्ट ने यह परखा कि क्या धारा 364A विवेकाधिकार को हटाकर न्यायालय को मृत्युदंड देने के लिए मजबूर करती है। धारा 303 के विपरीत, धारा 364A न्यायालय को आजीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच चयन का विकल्प देती है। इसलिए, कोर्ट ने माना कि धारा 364A में कोई अनिश्चितता नहीं है जो इसे असंवैधानिक बना सके।

सजा की अनुपातिकता (Proportionality) पर विचार करते हुए, कोर्ट ने यह कहा कि धारा 364A विशेष रूप से ऐसे घोर मामलों को नियंत्रित करने के लिए बनाई गई है जहाँ अपहरण किए गए व्यक्ति को अत्यधिक मानसिक और शारीरिक कष्ट या मृत्यु का सामना करना पड़ता है। कोर्ट ने “रेरेस्ट ऑफ द रेयर” (Rarest of the Rare) सिद्धांत का पालन करते हुए कहा कि मृत्युदंड केवल उन्हीं मामलों में उचित है जहाँ अपराध अत्यंत घोर और क्रूर हो।

“इजेडम जेनेरिस” (Ejusdem Generis) और “कोई अन्य व्यक्ति” शब्द का व्यापक अर्थ (Broad Interpretation of “Any Other Person”)

याचिकाकर्ताओं ने यह तर्क दिया कि धारा 364A केवल सरकार या विदेशी राज्यों के खिलाफ अपराधों पर लागू होनी चाहिए, जिसमें “कोई अन्य व्यक्ति” शब्द का सीमित अर्थ लगाया जाना चाहिए। लेकिन कोर्ट ने इस विचार को खारिज करते हुए कहा कि “कोई अन्य व्यक्ति” शब्द व्यापक है और इसमें निजी व्यक्ति भी शामिल हैं।

कोर्ट ने यह कहा कि संसद का उद्देश्य था कि इस धारा के तहत सभी प्रकार के फिरौती के मामलों को कवर किया जाए, चाहे वह सरकार से जुड़ा हो या निजी व्यक्ति से।

अपहरण पर मृत्युदंड पर पूर्व के फैसले (Previous Judgments on Capital Punishment for Kidnapping)

कोर्ट ने अपने पिछले निर्णयों का हवाला दिया, विशेष रूप से बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य और मछी सिंह बनाम पंजाब राज्य, जो मृत्युदंड के आधार को स्पष्ट करते हैं।

कोर्ट ने दोहराया कि मृत्युदंड केवल उन्हीं मामलों में दी जा सकती है जो “रेरेस्ट ऑफ द रेयर” श्रेणी में आते हैं, जिसमें अपहरण के दौरान पीड़ित की हत्या या गंभीर दुर्व्यवहार हुआ हो।

कोर्ट ने सुशील कुमार बनाम पंजाब राज्य, मोहन बनाम तमिलनाडु राज्य, और हेनरी का मामला जैसे मामलों का भी संदर्भ दिया, जहाँ पीड़ितों की हत्या के साथ अपहरण के मामले में मृत्युदंड दी गई थी।

इन मामलों ने यह पुष्टि की कि मृत्युदंड उन मामलों में उचित है जहाँ अपराध पूर्वनियोजित (Premeditated) और पीड़ित पर अत्यधिक क्रूरता (Extreme Cruelty) के साथ किया गया हो।

विधायी ज्ञान और न्यायिक सम्मान पर टिप्पणियाँ (Observations on Legislative Wisdom and Judicial Deference)

कोर्ट ने यह भी कहा कि जनता की सुरक्षा और अपराध के लिए दंड निर्धारित करने के मामले में विधायिका (Legislature) के निर्णयों का सम्मान किया जाना चाहिए जब तक वे मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन न करें।

संसद द्वारा धारा 364A को लागू करने का निर्णय बढ़ते हुए फिरौती के मामलों को देखते हुए लिया गया था, जो पीड़ित और उनके परिवारों के लिए गंभीर मानसिक और शारीरिक पीड़ा का कारण बनते हैं।

कोर्ट ने यह कहा कि इस तरह के अपराधों पर सख्त दंड का प्रावधान जनता की जरूरतों और सार्वजनिक हित के साथ मेल खाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने विक्रम सिंह @ विक्की बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में धारा 364A IPC को संवैधानिक करार दिया। इस फैसले ने कोर्ट की उस प्रतिबद्धता को रेखांकित किया जो व्यक्तिगत अधिकारों और समाजिक हितों के बीच संतुलन बनाए रखने पर आधारित है।

धारा 364A का प्रावधान, जो न्यायालय को जीवन कारावास और मृत्युदंड के बीच विकल्प देता है, यह सुनिश्चित करता है कि न्यायालय हर मामले की गंभीरता को ध्यान में रखकर “रेरेस्ट ऑफ द रेयर” मापदंड को लागू कर सके ताकि न्याय और अनुपातिकता बनी रहे।

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