सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 97: आदेश 20 नियम 11 के प्रावधान

Update: 2024-01-23 06:57 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश का नियम 11 डिक्री के किश्तों द्वारा संदाय के संबंध में उल्लेख करता है। ऐसा उस डिक्री में किया जाता है जहां डिक्री धन से संदाय के संबंध में है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 20 विस्तारित विवेचन किया जा रहा है।

नियम-11 डिक्री किस्तों द्वारा संदाय के लिए निदेश दे सकेगी- (1) यदि और जहां तक कोई डिक्री धन के संदाय के लिए है तो और वहां तक न्यायालय उस संविदा में, जिसके अधीन धन संदेय है, अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी [उन पक्षकारों को जो अन्तिम सुनवाई में स्वयं या प्लीडर द्वारा उपसंजात थे, सुनने के पश्चात्, निर्णय के पूर्व डिक्री में किसी पर्याप्त कारण से यह आदेश सम्मिलित कर सकेगा] कि डिक्रीत रकम का संदाय ब्याज के सहित या बिना, मुल्तवी किया जाए या किस्तों में किया जाए।

(2) डिक्री के पश्चात् किस्तों में संदाय का आदेश- ऐसी किसी डिक्री के पारित किये जाने के पश्चात् न्यायालय निर्णीत-ऋणी के आवेदन पर और डिक्रीदार की अनुमति से आदेश दे सकेगा कि ब्याज के संदाय संबंधी, निर्णीत-ऋणी की सम्पत्ति की कुर्की-सम्बंधी, उससे प्रतिभूति लेने सम्बन्धी या अन्य ऐसे निबन्धनों पर जो वह ठीक समझे, डिक्रीत रकम का संदाय मुल्तवी किया जाए या किस्तों में किया जाए।

नियम 11 एक धनीय डिक्री का संदाय स्थगित करने या किश्तों में करने के लिए न्यायालय को आदेश देने के लिए शक्ति प्रदान करता है।

निर्णय के साथ निदेश (उपनियम 1) -

(1) जहां तक कोई डिक्री धन के संदाय के लिए है, उस सीमा तक न्यायालय आदेश दे सकेगा।

( 2) इस शक्ति पर पूर्व-संविदा का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा,

(3) उपस्थित पक्षकारों की सुनवाई निर्णय के पहले की जावेगी। 1956 के संशोधन द्वारा यह शर्त लगाई गई है, जो आज्ञापक है।

(4) किसी पर्याप्त कारण से यह आदेश निर्णय और डिक्री में सम्मिलित कर सकेगा कि डिक्रीत रकम (डिक्री की राशि) का भुगतान ब्याज सहित या बिना ब्याज के-

(क) मुल्तवी (स्थगित) किया जाए, या

(ख) किश्तों में किया जाए।

इस प्रकार न्यायालय को दो प्रकार की शक्तियां दी गई हैं, जिनमें से किसी एक का वह उपयोग पर्यात कारण होने पर कर सकता है और इस आदेश को डिक्री में सम्मिलित कर सकता है।

डिक्री के बाद में आदेश (उपनियम 2)-

(1) ऐसी धनीय डिक्री पारित करने के पश्चात् (क) निर्णीत-ऋणी आवेदन करता है कि डिक्री का संदाय स्थगित किया जाए या किस्तों में देने की अनुमति दी जाए, और (ख) यदि डिक्रीदार इसके लिए अनुमति दे देता है-यह सबसे महत्वपूर्ण उपबंध है। इस प्रकार दोनों पक्ष सहमत होने पर ही न्यायालय को इस उपनियम के अधीन अधिकारिता प्रास होती है।

(2) तो न्यायालय-

(1) डिक्री की रकम का संदाय (भुगतान) स्थगित कर सकेगा या-

(2) उस रकम को किश्तों के देने का आदेश कर सकेगा,

(3) पर ऐसे आदेश में वह निबंधन या शर्तें लगा सकेगा, जो (1) ब्याज देने संबंधी (2) निर्मात ऋगी की सम्पत्ति की कुर्की सम्बंधी, (3) उससे प्रतिभू लेने संबंधी होगी या (4) अन्य ऐसे निबंधन लगा सकेगा, जो वह ठीक समझे।

इस प्रकार लेनदार/डिक्रीदार की अनुमति के बाद ही न्यायालय कुछ शर्तें लगाकर डिक्री की वसूली को स्थगित कर सकेगा या किस्तों में भुगतान करने का आदेश कर सकेगा।

राधो ब. दीपचंद (1880) 4 बम्बई 46 के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये विपरीत निर्णय को समान करने के लिए इस नियम में उपरोक्त शब्दावली जोड़ी गई थी। इस नियम के अनुसार बंधपत्र की शर्तों के होते हुर भी, न्यायालय को डिक्रीत-राशि का किश्तों में भुगतान करने का आदेश देने की शक्ति है।

किश्तों में डिक्री का भुगतान न्यायालय का विवेक किस्तें स्वीकृत करने के लिए कारण लेखबद्ध करना आवश्यक है। नियम 11 न्यायालय को विवेकाधिकार देता है, परन्तु उस विवेक का प्रयोग इस प्रकार करना होगा कि किश्तें स्वीकार करने से वास्तव में डिक्रीदार के अधिकार का अस्वीकरण न हो जाए।

सक्षम न्यायालय (आदेश 20, नियम 11(2) सपठित परिसीमा अधिनियम 1963, अनुच्छेद 125]- डिक्रीत रकम का किस्तों द्वारा संदाय करने के लिए आवेदन-जिस न्यायालय में डिक्री पारित की है केवल वही न्यायालय डिक्रीत रकम का किस्तों द्वारा संदाय का निदेश देने के लिए सक्षम है और निष्पादन न्यायालय को ऐसा निदेश देने की कोई शक्ति नहीं है।

यदि ऐसा आवेदन डिक्री की तारीख से 30 दिन के भीतर फाइल नहीं किया जाता तो न्यायालय द्वारा ऐसा आवेदन नामंजूर किया जाना पूरी तरह वैध, विधिमान्य और न्यायोचित होगा। ब्याज की दर न्यायालय के विवेक पर जब उपनियम (1) के अधीन किसी डिक्री को किश्तों में देय बना दिया जाता है, तो ब्याज की दर न्यायालय के विवेक पर होगी।

पर्याप्त कारण होना आवश्यक न्यायालय एक धन की डिक्री में किश्तों द्वारा संदाय करने का आदेश देने के लिए सक्षम है, परन्तु इसके लिए पर्याप्त कारण होना आवश्यक है। इस विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायिक रूप से किया जावेगा।।

सूखा पीड़ित को किश्तों की अनुमति एक बैंक द्वारा हस्तकरघा साडियाँ बनाने वाले एक निर्माता के विरुद्ध रुपये 78,885.50 की राशि की वसूली के लिए धनीय वाद लाया गया, जिसमें विचारण न्यायालय ने बारह त्रैमासिक किश्तें स्वीकार कर दी। उच्च न्यायालय ने प्रथम अपील में सूखा के कारण व्यापार के बिगड़ जाने के कारण छः और त्रैमासिक किश्तें स्वीकार कर दी। ध्यान देने योग्य बात है कि सूखा पीड़ित क्षेत्रों संबंधित राज्य में सभी प्रकार की धनीय वसूली किसान से स्थगित कर दी जाती है।

समय में वृद्धि पर प्रतिबन्ध एक बार डिक्री पारित करने के बाद न्यायालय डिक्रीदार की सहमति के बिना आगे समय नहीं दे सकता। यह आदेश 20, नियम 11(2) द्वारा निषिद्ध है। इस बाधा को टालने के लिए धारा 151 का प्रयोग नहीं किया जा सकता।

जब देरी क्षमा नहीं की गई- एक धनीय वाद में धनीय डिक्री पारित की गई, जिसका भुगतान किश्तों में करने के लिए आवेदन देरी से दिया गया, जिसमें पक्षकार ने अपने वकील द्वारा गलत सलाह देने का कथन किया, परन्तु इसे प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। ऐसी स्थिति में देरी को क्षमा नहीं किया जा सकता। पर्याप्त हेतुक डिक्री की राशि के भुगतान को इस कारण से कि-निर्णीत ऋणी का प्रतीपवाद लम्बित है और उसमें उसके पक्ष में डिक्री की संभावना है, रोका नहीं जा सकता। इसे पर्याप्त कारण नहीं माना गया।

किश्तें स्वीकार करने के लिए अन्तर्निहित शक्ति का प्रयोग अवैध नियम लागू नहीं-

न्यायालय की अन्तर्निहित अधिकारिता के प्रयोग में ऋणी को किश्तों में ऋण देने की अनुमति देने का आदेश अवैध है। राज्य वित्तीय निगम अधिनियम की धारा 31 के प्रभाव से देय राशि की वसूली का एकमात्र तरीका बैंक को आडमान रखी सम्पत्ति की कुर्की और विक्रय है।

इस अधिनियम की धारा 46 ख में विशेष रुप से उपबंध है कि अधिनियम और उसके अधीन बनाए गये नियम लागू रहेगे चाहे किसी तत्समय लागू विधि में कोई असंगत बात क्यों न हो। अतः उक्त अधिनियम के अधीन कार्यवाही के लिए आदेश 20, नियम 11, सीपीसी निवारित किया गया है। जिला न्यायालय ऐसी कार्यवाही में अन्तर्निहित शक्ति को जागृत कर किश्तों में भुगतान का दूसरा तरीका नहीं अपना सकता।

किश्त सम्बन्धी आदेश की अपील नहीं-धन की डिक्री के भुगतान करने तथा भुगतान किश्तों में किये जाने के निदेश स्वतन्त्र आदेश होंगे जिन्हें बाद में डिक्री में शामिल किया जाना होगा, किन्तु यह आदेश सीपीसी के अन्तर्गत उल्लेखनीय नहीं है।

वित्तीय संस्थानों के ऋण की वसूली की डिक्री-ऐसे वित्तीय व्यवहारों में, जहाँ किसी सार्वजनिक वित्तीय संस्थान द्वारा ऋण राशि व्यक्तिगत प्रतिभूति मय व्यक्तिगत गारण्टी (प्रत्याभूति) के दी जाती है, तो ऐसे मामले में डिक्रीत राशि का किश्तों में भुगतान करने की स्वीकृति नहीं दी जा सकती, क्योंकि इससे प्रतिभूति लेने का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।।

प्रतिभू के विरुद्ध कार्यवाही-

एक प्रकरण में किसी विशेष साम्या अधिकार के अभाव में प्रतिभू को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह अपने विरुद्ध निष्पादन को तब तक अवरुद्ध करे जब तक कि लेनदार मूल ऋणी के विरुद्ध अपने उपचार समाप्त न कर ले। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 20, नियम 11 (1) के अधीन आदेश करने के लिए न्यायालय को पर्याप्त कारण बताने चाहिए।

प्रतिभू डिक्री की रकम के संदाय को स्थगित करने वाला आदेश स्पष्ट और विनिर्दिष्ट होना चाहिए। लेनदार को इस बात का व्यादेश कि वह प्रतिभू के विरुद्ध जब तक कार्यवाही न करे जब तक लेनदार मूल ऋणी के विरुद्ध अपने उपचार निक्षेप न कर ले, बहुत ही अस्पष्ट है। यह नहीं कहा गया है कि लेनदार कैसे और कब मूल ऋणी के विरुद्ध अपने उपचार निक्षेप कर सकेगा। यदि लेनदार को यह कहा जाए कि वह प्रतिभू के विरुद्ध अपने उपचारों को स्थगित कर दे, तो प्रत्याभूति का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।

प्रस्तुत मामले में लेनदार बैंककारी कम्पनी है। प्रत्याभूति साम्पारिर्वक प्रतिभूति है, जो प्रायः हर बैंक द्वारा ली जाती है। यदि प्रतिभू के विरुद्ध उसके अधिकार इतनी सरलता से कम कर दिये जाएँ, तो प्रतिभूति व्यर्थ हो जाएगी। अपेक्षित निदेश, आदेश 20, नियम 11 (1) के अधीन न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। निदेश अपास्त किया गया।

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