सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 91: आदेश 20 नियम 1 के प्रावधान

Update: 2024-01-19 04:34 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। किसी भी सिविल वाद का निपटारा निर्णय पर हो जाता है, किसी भी प्राथमिक अदालत में लाया गया वाद निर्णय पर आकर समाप्त हो जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि निर्णय हो जाने पर ही सिविल कार्यवाही का अंत हो जाता है।

इसके पश्चात भी अपील,पुनरीक्षण, पुनर्विलोकन जैसे मार्ग है एवं डिक्री का निष्पादन भी अगली कड़ी है लेकिन यह कहा जा सकता है कि सिविल वाद का न होकर भी अंत निर्णय पर हो जाता है। निर्णय के साथ ही न्यायालय अपनी अंतिम डिक्री भी दे देता है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 20 के नियम 1 पर चर्चा की जा रही है।

नियम-1 निर्णय कब सुनाया जाएगा-[(1)] न्यायालय मामले की सुनवाई कर लेने के पश्चात् निर्णय खुले न्यायालय में या तो तुरन्त या तत्पश्चात् यथासाध्य शीघ्र सुनाएगा और जब निर्णय किसी भविष्यवर्ती दिन को सुनाया जाना है तब न्यायालय उस प्रयोजन के लिए कोई दिन नियत करेगा जिसकी सम्यक् सूचना पक्षकार या उनके प्लीडरों को दी जायेगी।]

परन्तु जहाँ निर्णय तुरन्त नहीं सुनाया गया है, वहाँ न्यायालय निर्णय, उस तारीख से, जिसको मामले की सुनवाई समाप्त हुई थी, तीस दिन के भीतर सुनाने का पूरा प्रयास करेगा, किन्तु जहाँ मामले की अपवादात्मक या असाधारण परिस्थितियों के आधार पर ऐसा करना साध्य नहीं है वहाँ न्यायालय निर्णय सुनाने के लिए कोई भविष्यवर्ती दिन नियत करेगा और ऐसा दिन साधारणतः उस तारीख से, जिसको मामले की सुनवाई समाप्त हुई थी, साठ दिन के बाद का नहीं होगा और इस प्रकार नियत किए गए दिन की सम्यक सूचना पक्षकारों या उनके प्लीडरों को दी जाएगी।]

आदेश 20, नियम 1 में न्यायालय द्वारा निर्णय सुनाने सम्बन्धी व्यवस्था की गई है, ताकि निर्णय सुनाने में अनावश्यक देरी न हो और निर्णय खुले न्यायालय में पक्षकारों या उनके अभिभाषकों की उपस्थिति में सुनाया जा सके। बोलकर निर्णय लिखवाने पर अनुलिपि को सुरक्षित रखकर अभिलेख का अंग बनाना न्यायालयों में होने वाली अनुचित फेरबदल को रोकने के लिए लिया गया है।

आदेश 20, नियम 1 में निर्णय सुनाने के बारे में निम्न प्रावधान किए गए हैं- (क) सुनवाई के बाद निर्णय सुनाने की समय-सीमा

(1) न्यायालय सुनवाई पूरी करने के पश्चात् खुले न्यायालय में तुरन्त निर्णय सुनाएगा, या

(2) किसी पश्चात्वर्ती दिन को सुनायेगा, तो इसके लिए कोई दिन निश्चित किया जाएगा, जिसकी सूचना पक्षकारों या उनके अधिवक्ताओं को दी जाएगी।

(3) भविष्य में किसी दिन निर्णय सुनाने के लिए इस परन्तुक द्वारा समय-सीमा बाँध दी गई है, ताकि देरी न हो-

(क) सुनवाई समाप्त होने से तीस दिन के भीतर निर्णय सुनाने का पूरा प्रयास किया जाएगा, या

(ख) ऐसा करना उस मामले की अपवादात्मक या असाधारण परिस्थितियों के कारण संभव (साध्य) नहीं हो तो ऐसा निर्णय सुनवाई समाप्त होने से साठ दिन के भीतर सुनाया जावेगा। इसके बाद की तारीख नहीं दी जावेगी। इसकी सूचना पक्षकारों या उनके अभिभाषकों को देना आवश्यक होगा। इस प्रकार निर्णय सुनाने के लिए असाधारण मामले में साठ दिन की अन्तिम सीमा बाँध दी गई है। इस नियम में समय-सीमा बढ़ाई गई है।

(ख) पक्षकारों/अभिभाषकों को सूचित करना आवश्यक इस प्रकार हर दशा में, पक्षकारों या उनके अभिभाषकों को सूचित करने के बाद ही निर्णय बिना किसी अनावश्यक देरी के खुले न्यायालय में सुनाया जाएगा।

(ग) लिखित निर्णय सुनाना व पढ़ना- लिखित निर्णय को पूरा पढ़कर न्यायालय में सुनाना आवश्यक नहीं है, परन्तु उसमें से (1) प्रत्येक विवाद्यक पर न्यायालय के निष्कर्ष और (1) उस मामले में पारित अन्तिम आदेश अवश्य पढ़कर सुनाना होगा। उस पूरे निर्णय की एक प्रति निर्णय सुनाने के तुरन्त बाद उच्च न्यायालय द्वारा बनाये गये नियमानुसार प्रभार देने पर पक्षकारों या अभिभाषकों को उपलब्ध करा दी जावेगी।

(घ) खुले न्यायालय में बोलकर निर्णय लिखाना- जो न्यायाधीश उच्च न्यायालय द्वारा इस प्रकार निर्णय लिखाने के लिए सशक्त किया गया है, वह निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक को बोलकर लिखाते हुए सुना सकेगा। ऐसे निर्णय की अनुलिपि (प्रति) में शुद्धियों की जाएंगी और फिर उस पर न्यायाधीश हस्ताक्षर करेगा और तारीख अंकित करेगा, जिसको वह निर्णय सुनाया गया था। यह अनुलिपि न्यायालय के अभिलेख पर रखी जाएगी और यह उसका एक भाग होगी।

धारा 2 (20) में दिया गया है कि निर्णय या डिक्री की दशा के सिवाय हस्ताक्षरित के अन्तर्गत स्टाम्पित आता है। अत: उपर्युक्त नियम 1 (3) में दिये गये शब्द हस्ताक्षरित में स्टाम्पित नहीं आयेगा। इस प्रकार निर्णय पर स्वयं न्यायाधीश हस्ताक्षर करेगा और हस्ताक्षर के बजाय हस्ताक्षरों की मुहर काम में नहीं ली जा सकेगी।

निर्णय का अर्थ व स्वरूप-किसी मामले के विनिश्चय के उपचारात्मकभाग की खुले न्यायालय में अन्तिम व प्रारूपिक घोषणा निर्णय गठित करती है। जब तक इस प्रक्रम पर नहीं पहुँचे, न्यायाधीश अपना अभिमत बदल सकता है। निर्णय के सत्यापन के नियमों (आदेश 20, नियम 1, 2 तथा 3) की पालना में कोई त्रुटि या कमी रह जाने से उस निर्णय की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

पक्षकारों को सूचना (नोटिस) - (प्रथम परन्तुक)- जब निर्णय का दिनांक तय किया जाए, तो उसकी सूचना धारा 142 में विहित तरीके से अर्थात् लिखित में दी जानी चाहिये, क्योंकि बिना ऐसी सूचना के दिया गया निर्णय इस नियम के अर्थ में निर्णय नहीं है। इसके बाद अनुपस्थित रहने वाले पक्षकार को दुबारा नोटिस नहीं दिया जा सकता है। यह न्यायालय का कार्य नहीं है कि वह पक्षकारों को परिणाम या निर्णय की कोई सूचना दे। यह पुराने निर्णय है। अब सूचना देना आवश्यक है। इस प्रकार खुले न्यायालय में घोषित नहीं किया गया निर्णय एक निर्णय के रूप में प्रभावशील नहीं होता। वह केवल लिखने वाले न्यायाधीश द्वारा बनाये गये टिप्पण या ज्ञाप है।

न्यायालय के सूचना पट पर लगाया गया नोटिस, जिसमें किसी मामले का परिणाम दिया गया हो, आदेश 20, नियम 1 की अनुपालना नहीं है। जब निर्णय की घोषणा में सुनाने, दिनांकित करने या हस्ताक्षरित करने में नियमों की पालना पूरी न करने पर केवल अनियमितता होगी और उस पर आधारित डिक्री की अपील में उसे धारा 99 के अनुसार इसी अधिनियमता के कारण पलटा नहीं जा सकेगा।

न्यायालय पर प्रतिबंध- नियम 1 में संशोधन कर और नया परन्तुक जोड़ कर न्यायालय की निर्णय सुनाने की प्रक्रिया पर प्रतिबंध लगाये गये हैं, ताकि निर्णय सुनाने में देरी न की जावे। निर्णय में जो व्यक्ति पक्षकार नहीं है, उसके विरुद्ध किसी प्रकार की टीका टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए।

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