सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 84: आदेश 18 नियम 5 व 6 के प्रावधान

Update: 2024-01-15 08:00 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 18 वाद की सुनवाई और साक्षियों की परीक्षा है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 18 के नियम 5 एवं 6 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम- 5 जिन मामलों की अपील हो सकती है उनमें साक्ष्य कैसे लिखा जाएगा-जिन मामलों में अपील की जाती है उन मामलों में हर साक्षी का साक्ष्य-

(क) न्यायालय की भाषा में-

(1) न्यायाधीश द्वारा या उसकी उपस्थिति में और उसके वैयक्तिक निदेशन और अधीक्षण में लिखा जाएगा: या (2) न्यायाधीश के बोलने के साथ ही टाइपराईटर पर टाईप किया जाएगा; या

(ख) यदि न्यायाधीश अभिलिखित किए जाने वाले कारणों से ऐसा निदेश दे तो न्यायाधीश की उपस्थिति में न्यायालय की भाषा में यंत्र द्वारा अभिलिखित किया जाएगा।

नियम-6 अभिसाक्ष्य का भाषान्तर कब किया जाएगा-जहाँ साक्ष्य उस भाषा से भिन्न भाषा में लिखा गया है जिसमें वह दिया गया है और साक्षी उस भाषा को नहीं समझता जिसमें वह लिखा गया है वहाँ उस साक्ष्य का, जैसा कि वह लिखा गया है, उस भाषा में भाषान्तर उसे सुनाया जाएगा जिसमें वह दिया गया था।

आदेश 18 के नियम 4 व 5 का विवेचन- आदेश 18 का नियम 4 शब्दावली प्रत्येक मामले में किसी साक्षी की मुख्य परीक्षा शपथ पत्र पर होगी का प्रयोग किया गया है। यहाँ शब्द "होगी" के लिए "Shall" का प्रयोग कर विधायिका ने यह स्पष्ट किया है कि साक्षी (गवाह) की मुख्य परीक्षा केवल शपथ पत्र पर ही होगी।

शब्द साक्ष्य को नियम 4 ने स्पष्ट रूप से दो भागों में विभाजित कर दिया है-

(1) मुख्य परीक्षा, और

(2) प्रतिपरीक्षा व पुनः परीक्षा।

नियम 4 के खण्ड (2) में इस स्थिति को स्पष्ट कर दिया गया है कि जहाँ तक मुख्य परीक्षा का सम्बन्ध है, प्रत्येक मामले में यह शपथ पत्र पर ही होगी, परन्तु शपथपत्र देने वाले साक्षी की प्रतिपरीक्षा और पुनः परीक्षा न्यायालय या आयुक्त के समक्ष होगी।

इस प्रकार नियम 4 एक सामान्य नियम बताता है और नियम 5 उसका अपवाद हैं। अतः ऐसे मामलों में जहाँ अपील होती है, वहाँ मुख्य परीक्षा तो शपथपत्र पर ही होगी, जिसे न्यायालय के समक्ष पेश किया जावेगा, परन्तु बाद में उसकी प्रति परीक्षा व पुनः परीक्षा न्यायालय के समक्ष या आयुक्त के समक्ष होगी।

धारा 25 तथा आदेश 18 का नया नियम 19 न्यायालय को आयुक्त द्वारा परीक्षा करवाने के लिए सक्षम व सशक्त करता है। अतः इसमें कोई अड़चन नहीं है। इस प्रकार नियम 4 व नियम 5 की परिधि सर्वथा भिन्न है और वे अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य करते हैं, सिवाय इसके कि मुख्य परीक्षा सभी मामलों में शपथपत्र पर ही होगी। इस प्रकार दोनों उपबन्धों में कोई विसंगति या अन्तः विरोध नहीं है, जिसका सामंजस्य किया जावे। दोनों का स्वरूप व परिधि अलग-अलग है।

इस प्रकार जिन मामलों में अपील होती है, वहाँ प्रत्येक मामले में मुख्य परीक्षा शपथपत्र पर होगी और प्रतिपरीक्षा व पुनः परीक्षा न्यायाधीश की उपस्थिति में और उसके व्यक्तिगत निर्देश व निगरानी के अधीन होगी। परन्तु धारा 25 और आदेश 18 नियम 19 तथा आदेश 26 नियम 4 क के अधीन न्यायालय किसी भी मामले में साक्ष्य अभिलिखित करने के लिए उसे आयुक्त को भेज सकेगा। इस प्रकार नियम 5 को नियम 19 के साथ पढ़ना होगा।

जिन मामलों में अपील नहीं होती है, वहाँ नियम 4 के खण्ड (2) के अनुसार प्रतिपरीक्षा व पुनः फिर परीक्षा आयुक्त के द्वारा की जा सकेगी या फिर नियम 13 के अधीन न्यायालय द्वारा साक्ष्य की सारांश टिप्पणी लिखी जावेगी। यह दोनों विकल्प न्यायालय के सामने खुले हैं।

इस प्रकार नियम 4, 5, 13 व 19 का सामंजस्य पूर्ण अर्थान्वयन करना न्याय के हित में होगा, जो विधायिका के अभिप्राय की पूर्ति करेगा और न्याय की सुगमता की दिशा में गति प्रदान करेगा।

अर्थान्वयन के सिद्धान्त-

सामंजस्य पूर्ण अर्धान्वयन-जब कोई उपबन्ध उलझन भरे या अस्पष्ट हो तो उनका अर्थपूर्ण अर्थान्वयन करना चाहिये।

दिल्ली उच्च न्यायालय का अभिमत शपथपत्र पर मुख्य परीक्षा में साक्ष्य लेखबद्ध करना-आदेश 18, नियम 4, 5 व 13 की परिधि

प्रत्येक मामले में का अर्थ विधायिका के उद्देश्य पर आधारित करना होगा। इसे सीमित नहीं किया जा सकता।

नियम 4 अपीलनीय या अन-अपीलनीय मामलों में साक्ष्य अभिलिखित करने में कोई अन्तर नहीं करता। इसके अनुसार मुख्य परीक्षा के बारे में साक्ष्य सभी मामलों में शपथपत्र पर ली जावेगी और अपीलनीय मामलों में शपथपत्र को साक्ष्य में ग्रहण किया जावेगा या नियम 5 में विहित तरीके से उनको साक्ष्य का भाग बनाया जावेगा, अन्य मामलों में (जो अपीलनीय नहीं हैं) नियम 13 के अधीन विहित तरीका अपनाया जावेगा।

सामंजस्य पूर्ण अर्थान्वयन के लिए पूरे अधिनियम को एक साथ पढ़ा जावेगा तथा विधायिका के आशय को पूरा किया जावेगा।

पक्षकार भी गवाह के रूप में ही बयान देते हैं, अतः शपथपत्र पर साक्ष्य लेना गवाहों के अतिरिक्त पक्षकारों पर भी लागू होगा।

विपक्षी को इन शपथपत्रों की प्रतियाँ अग्रिम दी जावेंगी, जिसके लिए कोई समय-सीमा न्यायालय तय नहीं कर सकेगा और यह प्रत्येक मामले के तथ्य और परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। यदि शपथपत्र की प्रतियाँ अग्रिम नहीं दी गई तो शपथपत्र देने वाले पक्षकार को प्रतियाँ देने के लिए कोई स्थगन नहीं दिया जावेगा।

सभी गवाहों के शपथपत्र एक साथ एक समय या एक दिन को पेश करना आवश्यक नहीं है। यह गवाहों की संख्या, उनकी साक्ष्य के स्वरूप और न्यायालय के विवेक पर निर्भर करेगा।

शपथपत्र के साथ प्रस्तुत किये गये दस्तावेजों की ग्राह्यता का प्रश्न आदेश 13 नियम 4 के अनुसार तय किया जावेगा।

शपथपत्र पर साक्ष्य का स्वरूप-ऐसी साक्ष्य शपथकर्ता द्वारा अपने निजी ज्ञान या विश्वस्त सूचना पर आधारित तथ्यों तक ही सीमित रहेगी और इनके स्रोत शपथपत्र में प्रकट करने होंगे।

आदेश 18 नियम 4 व 5 का अर्थान्वयन-

बम्बई उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि दूसरे शब्दों में, अपीलनीय मामलों में हालांकि गवाह का मुख्य बयान शपथ पत्र के रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति है, परन्तु ऐसे शपथ पत्र को साक्ष्य का अंग तब तक नहीं बनाया जा सकता, तब तक उसका शपथकर्ता गवाह कठघरे में प्रवेश कर यह पुष्ट नहीं करे कि इस शपथ पत्र की विषय सामग्री इसके कथन के अनुसार है और उस पर उसके हस्ताक्षर हैं और यह कथन नियम 5 के अधीन विहित तरीके से शपथ पर साक्ष्य लेखबद्ध करने के लिए दिया गया है।

अन-अपीलीय मामलों में येनकेन, गवाह की मुख्य परीक्षा के संबंध में शपथ-पत्र आदेश 18, के नियम 13 का सहारा लेते हुए ऐसे शपथ पत्र के प्रस्तुत करने का ज्ञापन लिखते हुए साक्ष्य के भाग के रूप में लिया जा सकता है। अपीलनीय मामलों में ऐसे शपथकर्ता का शपथपत्र नियम 5 के उपबन्धों की पालना करते हुए लेखबद्ध करना होगा, जबकि अन-अपीलीय मामलों के प्रकरण में न्यायालय नियम 13 के अधीन शक्ति का प्रयोग करने के लिए सशक्त होगा।

उच्चतम न्यायालय के अनुसार मुख्य परीक्षा के समय एक पक्षकार की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है। यदि शपथ-पत्र में दिए किसी कथन पर आक्षेप (ऐतराज) उठाया जाता है, उदाहरण के लिए कि ऐसा कथन अभिवचन के बाहर है, तो ऐसा कोई ऐतराज न्यायालय में सदैव लिखित में उठाया जा सकता है और गवाह के ध्यान में प्रति परीक्षा के समय लाया जा सकता है। शपथपत्र में मुख्य परीक्षा में लिए गए कथन से प्रतिवादी को कोई प्रतिकूलता नहीं होगी और किसी दशा में यदि वह उस गवाह की प्रतिपरीक्षा करना चाहता है, तो उसे खुले न्यायालय में ऐसा करने की अनुमति दी जावेगी।

ऐसे मामले भी हो सकेंगे, जहाँ दूसरे पक्ष के गवाह की प्रतिपरीक्षा करने की कोई पक्षकार आवश्यकता महसूस नहीं करे। इस प्रकार ऐसे गवाह की परीक्षा करने में न्यायालय का समय बर्बाद नहीं होगा। उपरोक्त अर्थान्वयन के सिद्धान्तों का प्रयोग करते हुए हमें कोई सन्देह नहीं है कि आदेश 18, नियम 4 व 5 का सामंजस्य पूर्ण अर्थान्वयन वांछित है। दोनों ही उपबन्धों को प्रभावी करना वांछित है और आदेश 18, नियम 5 को आदेश 18, नियम 4 के अपवाद के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता।

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