"सभी स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों में 'जन-गण-मन' और 'वंदे मातरम' गाया जाए": दिल्ली हाईकोर्ट में 'वंदे मातरम' को राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के साथ समान रूप से सम्मानित करने की मांग वाली याचिका दायर

Update: 2022-05-24 06:30 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट में मंगलवार को एक जनहित याचिका दायर की गई है जिसमें 'वंदे मातरम', जिसने भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी, को राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के साथ समान रूप से सम्मानित करने की मांग की गई है।

याचिकाकर्ता एडवोकेट अश्विनी कुमार उपाध्याय केंद्र को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश देने की भी मांग की कि प्रत्येक कार्य दिवस पर सभी स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों में 'जन-गण-मन' और 'वंदेमातरम' बजाया और गाया जाए।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर जनहित याचिका में कहा गया है कि संविधान सभा के सभापति माननीय डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा राष्ट्रगान के संबंध में 24.01.1950 को दिए गए वक्तव्य की भावना में इसके साथ समान दर्जा प्राप्त है।

याचिका में 24.01.1950 को, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के भाषाण को कोट करते हुए कहा गया,

"एक मामला है जो चर्चा के लिए लंबित है, वह है राष्ट्रगान का मामला। एक समय यह सोचा गया था कि इस मामले को सदन के समक्ष लाया जा सकता है और सदन द्वारा एक संकल्प के रूप में लिया गया निर्णय लिया जा सकता है। लेकिन यह महसूस किया गया है कि संकल्प के माध्यम से औपचारिक निर्णय लेने के बजाय, राष्ट्रगान के संबंध में एक बयान देना बेहतर है। इसी के तहत मैं यह बयान देता हूं।

शब्दों और संगीत से युक्त रचना जिसे 'जन गण मन' के रूप में जाना जाता है, 'भारत का राष्ट्रीय गान' है, जो शब्दों में ऐसे विकल्पों के अधीन है, जैसा कि सरकार अवसर आने पर अधिकृत कर सकती है; और 'वंदे मातरम' गीत, जिसने भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, को 'जन गण मन' के साथ समान रूप से सम्मानित किया जाएगा और इसके साथ समान दर्जा प्राप्त होगा। मुझे उम्मीद है कि यह सदस्यों को संतुष्ट करेगा।"

याचिकाकर्ता का कहना है कि वन्देमातरम हमारे इतिहास, संप्रभुता, एकता और गौरव का प्रतीक है। यदि कोई नागरिक किसी भी खुले या गुप्त कृत्य से इसका अनादर करता है, तो यह न केवल एक असामाजिक गतिविधि होगी, बल्कि यह हमारे सभी अधिकारों और एक संप्रभु राष्ट्र के नागरिक के रूप में अस्तित्व को भी बर्बाद कर देगी। इसलिए प्रत्येक नागरिक को न केवल ऐसी किसी भी गतिविधि से बचना चाहिए, बल्कि यह भी रोकने की पूरी कोशिश करनी चाहिए कि कोई बदमाश 'वन्देमातरम' के प्रति अनादर दिखाने की कोशिश कर रहा है या नहीं।

आगे कहा गया है,

"हमें अपने राष्ट्र, अपने संविधान, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज पर गर्व होना चाहिए और राष्ट्रीय हितों को अपने व्यक्तिगत हितों से ऊपर रखना चाहिए और तभी हम अपनी मेहनत से अर्जित स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा कर पाएंगे। वन्देमातरम को बढ़ावा देने और प्रचारित करने के लिए एक राष्ट्रीय नीति तैयार करना कार्यपालिका का कर्तव्य है।"

याचिकाकर्ता ने स्वतंत्रता आंदोलन का जिक्र करते हुए कहा कि उस दौरान अंग्रेजों से आजादी के लिए 'वंदे मातरम' पूरे देश का विचार और आदर्श वाक्य था। बड़े शहरों में शुरू में बड़ी रैलियां, 'वंदे मातरम' के नारे लगाकर देशभक्ति के जोश में भर जाती हैं। अंग्रेजों ने जनता को भड़काने के संभावित खतरे से भयभीत होकर एक समय सार्वजनिक स्थानों पर 'वंदे मातरम' के उच्चारण पर प्रतिबंध लगा दिया और कई स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं को निषेध की अवज्ञा करने के लिए जेल में डाल दिया। रवींद्रनाथ टैगोर ने 1896 में कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में 'वंदे मातरम' गाया था। पांच साल बाद 1901 में कलकत्ता में कांग्रेस के एक और अधिवेशन में दखिना चरण सेन ने वंदे मातरम गाया। 1905 में बनारस कांग्रेस अधिवेशन में सरला देवी चौदुरानी ने 'वंदे मातरम' गाया। लाला लाजपत राय ने लाहौर से 'वंदे मातरम' नामक पत्रिका शुरू की।

याचिका में झारखंड के ईसाई पुजारी फादर साइप्रियन कुल्लू को भी कोट करते हुए कहा गया है,

"वंदे मातरम' गीत हमारे इतिहास का एक हिस्सा है और राष्ट्रीय उत्सव और धर्म को इस तरह की सांसारिक चीजों में नहीं घसीटा जाना चाहिए।"

याचिका में अंत में कहा गया है कि देश को एक रखने के लिए 'जन गण मन' और वंदे मातरम को बढ़ावा देने के लिए एक राष्ट्रीय नीति तैयार करना सरकार का कर्तव्य है।


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