''पूरी तरह फर्जी पीआईएल है'': बॉम्बे हाईकोट ने लोगों का COVID-19 का मुफ्त इलाज करने की मांग वाली जनहित याचिका खारिज की, पांच लाख जुर्माना लगाया
बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंगलवार को 42 वर्षीय शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता सागर जोंधले की तरफ से दायर एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया है। साथ ही याचिकाकर्ता पर राज्य को देय पांच लाख रुपये का जुर्माना भी लगा दिया है। इस याचिका में मांग की गई थी कि महाराष्ट्र राज्य को निर्देश दिया जाए कि वह महाराष्ट्र के उन सभी नागरिकों को मुफ्त उपचार प्रदान करें जो COVID-19 पाॅजिटिव पाए जाते हैं। साथ ही सभी निजी अस्पतालों में भी मुफ्त इलाज किया जाए ।
मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति केके तातेड़ की खंडपीठ ने कहा कि राज्य जुर्माने की राशि का उपयोग इस मुश्किल समय में लोगों की दुर्दशा को दूर करने के लिए किए जा रहे राहत कार्यों के लिए करें। पीठ ने कहा कि यदि जुर्माने की राशि का भुगतान याचिकाकर्ता द्वारा आदेश की तारीख से एक महीने के भीतर नहीं किया जाता है तो राज्य इस राशि को भूमि राजस्व के बकाया के तौर पर वसूल करने के लिए स्वतंत्र होगा।
याचिकाकर्ता ने 21 मई, 2020 की एक अधिसूचना को चुनौती दी थी। जिसे सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग, महाराष्ट्र सरकार के प्रधान सचिव ने जारी किया था। याचिकाकर्ता का कहना था कि इस अधिसूचना कोे अमान्य घोषित किया जाए। वही महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह सभी नागरिकों का COVID-19 उपचार मुफ्त में करें,जिसमें निजी अस्पताल में चल रहा इलाज भी शामिल हो।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता आनंद जोंधले पेश हुए। इस याचिका को सुनवाई योग्य बताते हुए हाईकोर्ट के कई फैसलों के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का भी हवाला दिया। ताकि पीठ इस जनहित याचिका के पक्ष में फैसला दे सकें।
याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि यह राज्य का कर्तव्य और दायित्व है कि वह सभी नागरिकों को मुफ्त में स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाएं प्रदान करे और महाराष्ट्र राज्य संकटों के इस दौर में लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया है।
जोंधले ने यह भी दलील दी कि एक विशाल समूह या क्रॉस-सेक्शन के लोगों की दुर्दशा को ध्यान में नहीं रखा गया है,जो निजी अस्पतालों में इलाज का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में राज्य को इस अवसर पर उठना चाहिए और उनके मुफ्त इलाज की व्यवस्था करनी चाहिए।
उक्त अधिसूचना को देखने के बाद कोर्ट ने कहा कि
''यह जमीनी स्तर पर स्थिति को ध्यान में रखते हुए जारी की गई थी क्योंकि जिन व्यक्तियों के कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं ले रखा है या जिन्होंने अपने स्वास्थ्य बीमा कवर को समाप्त कर दिया है, उन लोगों से महामारी के दौरान अतिरिक्त रूप से चार्ज लिया जाता है जो जनता के लिए कष्ट का कारण बनता है। यह स्पष्ट है कि इसकी शर्तों के अनुसार अस्पतालों, नर्सिंग होम, डिस्पेंसरी आदि को अपने यहां बिस्तरों की क्षमता बढ़ाने के सभी प्रयास करने होंगे ताकि अधिकतम रोगियों को बिस्तर मिल सकें। वहीं रोगियों के इलाज के लिए उपयोग होने वाले कुल बिस्तरों में से 80 प्रतिशत बिस्तरों पर इस अधिसूचना में निर्धारित दरें लागू होंगी।
यह आइसोलेशन या अलगाव और नाॅन-आइसोलेशन बेड पर भी लागू होगा। इसका अर्थ है कि किसी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता के पास उपलब्ध 80 प्रतिशत अलगाव बेड इस अधिसूचना के तहत आएंगे। जिनको राज्य सरकार/ जिला कलेक्टर/निगम आयुक्त के माध्यम से विनियमित किया जाएगा। इसी तरह 80 प्रतिशत नाॅन-आइसोलेशन बेड पर भी यही नियम लागू होंगे। हालांकि, हेल्थकेयर प्रदाताओं को बाकी बचे बीस प्रतिशत बेड के लिए अपने हिसाब से दरें वसूलने की अनुमति दी गई है।''
इस प्रकार, पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि ऐसी कोई बाध्यता नहीं है जिसके तहत किसी भी नागरिक को निजी सुविधाओं से उपचार लेना होगा-
''यह पूरी तरह से रोगी पर छोड़ दिया गया है कि वह किन सुविधाओं को अपने उपचार के लिए पसंद करेगा, अर्थात निजी या सार्वजनिक अस्पतालों की सुविधाएं। अमीर और गरीब के बीच कोई भेदभाव नहीं है। यहां तक कि कोई भी अमीर और गरीब व्यक्ति आरक्षित 80 प्रतिशत बेड के लिए अस्पताल में भर्ती हो सकता है और निर्धारित दर से भुगतान कर सकता है।''
यह तय कानून है कि मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया कार्यकारी के निर्णय के लिए छोड़ देनी चाहिए और जब तक कि यह सामने न आए कि व्यक्तियों के एक वर्ग के साथ शत्रुतापूर्ण भेदभाव किया गया है।
अदालत ने कहा कि-
''ऐसी परिस्थितियों में पीठ से यह आग्रह करना कि वह राज्य को निर्देश दे कि वह रोगियों का निःशुल्क उपचार प्रदान करें, यह हमें उपहासपूर्ण या असंगत प्रतीत होता है। जोंधले ने जिन फैसलों का हवाला दिया है उनमें से भी किसी भी फैसले में इस तरह का कोई प्रस्ताव या सुझाव नहीं दिया गया है।
इस खंडपीठ को यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि याचिकाकर्ता ऐसा कुछ भी प्रदर्शित करने में पूरी तरह विफल रहा है,जिसके आधार पर यह कहा जा सकें कि राज्य ने ऐसे किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन या किसी भी वैधानिक प्रावधान का उल्लंघन किया है,जो किसी भी वर्ग के लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव ड़ालता हो। जिस कारण उसमें न्यायिक हस्तक्षेप की जरूरत हो। यह पूरी तरह से एक तुच्छ व फर्जी जनहित याचिका है,जो अनुकरणीय जुर्माने के साथ खारिज होने के लायक है।
पूर्वोक्त कारणों से इस जनहित याचिका को खारिज किया जा रहा है। साथ ही पांच लाख रुपये जुर्माना लगाया जा रहा है जो राज्य सरकार को देय होगा। राज्य सरकार इस पैसे को इस कठिन समय में लोगों की दुर्दशा को दूर करने के लिए अपनाई जा रही राहत गतिविधियों में उपयोग करें। पीठ ने कहा कि यदि जुर्माने की राशि का भुगतान याचिकाकर्ता द्वारा आदेश की तारीख से एक महीने के भीतर नहीं किया जाता है तो राज्य इस राशि को भूमि राजस्व के बकाया के तौर पर वसूल करने के लिए स्वतंत्र होगा।''
आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें