वसीयत में संपत्ति का अनुचित निपटान या कानूनी वारिसों का गैर-न्यायोचित बहिष्कार एक संदिग्ध परिस्थिति के रूप में माना जा सकता है : सुप्रीम कोर्ट
“यह मानना इतना अवास्तविक लगता है कि एक ‘चहेते’बच्चे के प्रति विशेष प्यार और स्नेह के कारण कोई व्यक्ति सेवा कर रहे और जरूरतमंद बच्चे को मझधार में छोड़ देगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सम्पत्ति का अनुचित बंटवारा अथवा कानूनी वारिसों, खासकर आश्रितों, का गैर-न्यायोचित बहिष्कार को संदिग्ध परिस्थिति माना जाता है।
इस मामले में, ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने कहा था कि अपनी मां की वसीयत के आधार पर एक महिला द्वारा शुरू किये गये संपत्ति के प्रभावी रूप से वितरण (प्रोबेट) के मुकदमे के दौरान विवादित वसीयत से संबंधित अस्पष्ट संदिग्ध परिस्थितियां निम्न प्रकार से थीं :-
(ए) प्रमुख लाभार्थी रही उस महिला (याचिकाकर्ता) ने विवादित वसीयत के निष्पादन में सक्रिय भूमिका निभाई थी और अदालत से इस तथ्य को छुपाया था, (बी) वसीयत करने वाली महिला द्वारा वसीयत निष्पादन की प्रक्रिया से अपने इकलौते बेटे और दूसरी बेटी को बिल्कुल अलग रखने का कोई उचित कारण नहीं दिया गया था, (सी) उसके द्वारा किये जाने वाले निर्माण के बारे में कोई स्पष्टता नहीं थी, (डी) तकनीकी और कानूनी शब्दों के इस्तेमाल के साथ वसीयत का लेखन और निष्पादन का तरीका बहुत ही संदेहास्पद था, और (ई) गवाहों का प्रमाणन अविश्वसनीय था और गवाहों के बयानों में विरोधाभास थे।
अपील में, न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी की खंडपीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा निर्धारित परिस्थितियां ही खुद से और अकेले प्रोबेट प्रक्रिया से गुजर रही वसीयत की वैधता के खिलाफ कार्य नहीं कर सकती हैं।
बेंच ने कहा,
"सबसे पहले इन तथ्यों में से प्रत्येक की गुणवत्ता एवं प्रकृति पर विचार और उसके बाद वसीयतकर्त्री द्वारा की गयी वसीयत पर उन सभी के संयुक्त प्रभाव एवं असर पर विचार प्रासंगिक होगा। दूसरे शब्दों में, कोई एक कारण निर्णायक नहीं हो सकता, लेकिन यदि सभी तथ्यों पर एक साथ विचार करने के बाद कोर्ट का अंत:करण इस बात को लेकर संतुष्ट नहीं होता है कि विवादित वसीयत वाकई में वसीयत करने वाले व्यक्ति की अंतिम इच्छा और वचन का सही मायने में प्रतिनिधित्व करती है, तो वसीयत को कोर्ट की मंजूरी नहीं दी जा सकती, और दूसरे तरीके से कहें तो, यदि मामले के समग्र तथ्यों पर विचार करने से कोर्ट इस बात को लेकर संतुष्ट नजर आता है कि वसीयत के रूप में प्रस्तावित दस्तावेज वास्तव में वसीयतनामा करने वाले व्यक्ति की अंतिम इच्छा के अनुरूप है और इसे कानून के दायरे में निष्पादित किया गया है, तो वसीयत को केवल एक संदिग्ध परिस्थिति या दूसरे अन्य कारक के लिए नामंजूर नहीं किया जा सकता।"
कोर्ट ने तब इन परिस्थितियों में से प्रत्येक पर विस्तार से विचार किया। इस दौरान उसे इस बात का पता चला कि वसीयतकर्त्री ने सम्पत्ति का असमान वितरण किया, जिसके तहत उसने अपने इकलौते बेटे और जरूरतमंद विधवा बेटी की तुलना में दूसरी बेटी को संपत्ति का बड़ा हिस्सा दिया था।
कोर्ट ने कहा,
"सामान्य और प्राकृतिक तौर पर एक व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी सेवा करने वाले बच्चे के प्रति ज्यादा झुकाव रखे और यह मानना इतना अवास्तविक लगता है कि एक 'चहेते'बच्चे के प्रति विशेष प्यार और स्नेह के कारण कोई व्यक्ति सेवा कर रहे और जरूरतमंद बच्चे को मझधार में छोड़ देगा। जैसा कि महसूस किया गया है, सम्पत्ति का अनुचित बंटवारा अथवा कानूनी वारिसों, खासकर आश्रितों, का गैर-न्यायोचित बहिष्कार संदिग्ध परिस्थिति की श्रेणी में आता है।"
अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा कोई कारण नहीं बताया गया था कि वसीयतकर्त्री ने अपनी विधवा वेटी को अनिश्चितता के भंवर में छोड़ना क्यों उचित समझा? कोर्ट ने कहा कि वसीयत करने वाली महिला का अपने बेटे के साथ कड़वाहट भरे संबंध होने की दलीलों को लेकर कोई प्रमाण भी नहीं दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि संपत्ति के इस अस्पष्ट असमान वितरण के दो अन्य कारक भी हैं: पहला, वसीयत निष्पादन प्रक्रिया में अपीलकर्ता की सक्रिय भूमिका और दूसरा, इस प्रक्रिया में वसीयतकर्त्री के अन्य बच्चों को आभासी तौर पर बाहर रखना।
विवादित वसीयतनामे के स्वलिखित (होलोग्राफ) वसीयत होने का दावा किया गया था, जहां शुरू और अंतिम पैरे में व्यक्ति तथा वसीयत की जाने वाली सम्पत्ति का विवरण वसीयत करने वाली महिला के हाथ से ही लिखा गया है। लेकिन कोर्ट ने कहा, कि केवल शुरू और आखिर के पैरे को छोड़कर पूरी वसीयत की इलेक्ट्रॉनिक प्रिंट करायी गयी है और इस प्रकार यह प्रत्यक्ष तौर पर होलोग्राफ वसीयत के विवरण के तहत नहीं आता है।
कोर्ट ने अन्य परिस्थितियों पर भी विचार किया और निष्कर्ष निकाला कि विवादित वसीयत विभिन्न संदिग्ध परिस्थितियों से जकड़ी हुई है, जो महत्वपूर्ण परंतु अस्पष्ट प्रकृति की हैं। इसलिए अपील खारिज कर दी गयी और 50 हजार रुपये का जुर्माना भी अपीलकर्ता पर लगाया गया।
केस नं.: सिविल अपील नं. 3688/2017
केस का नाम : कविता कंवर बनाम पामेला मेहता
कोरम : न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी
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