सुप्रीम कोर्ट ने भाषाई अल्पसंख्यक स्कूलों के लिए अनिवार्य तमिल भाषा पेपर देने से छूट एक साल के लिए बढ़ाई
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 6 फरवरी को भाषाई अल्पसंख्यक स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को शैक्षणिक वर्ष 2022-2023 के लिए 10वीं कक्षा परीक्षा में अनिवार्य तमिल भाषा पेपर देने से छूट एक साल के लिए बढ़ाई।
जस्टिस एस.के. कौल और जस्टिस मनोज मिश्रा मद्रास हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसने 2014 के सरकारी आदेश को रद्द करने से इनकार कर दिया था।
सरकारी आदेश में राज्य में सभी छात्रों के लिए कक्षा 10वीं की बोर्ड परीक्षा में तमिल पेपर अनिवार्य कर दिया गया था।
मद्रास हाईकोर्ट ने भाषाई अल्पसंख्यक स्कूलों से संबंधित छात्रों को शैक्षणिक वर्ष 2020-2022 के लिए कक्षा 10 राज्य बोर्ड परीक्षा में तमिल भाषा के पेपर लिखने से छूट दी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि छूट समाप्त होने के बाद याचिकाकर्ता संगठन द्वारा याचिका को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तरजीह दी गई थी।
पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया कि मौजूदा शैक्षणिक वर्ष यानी 2022-2023 के लिए छूट बढ़ाई जाएगी।
तमिलनाडु राज्य की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट डॉ. अभिषेक सिंघवी के अनुरोध पर, अदालत ने उन्हें शैक्षणिक वर्ष 2020-2022 के लिए शुरू में उपलब्ध छूट बढ़ाने के संबंध में निर्देश प्राप्त करने का अवसर दिया।
कोर्ट ने देखा कि वर्तमान में मामले पर अंतिम रूप से निर्णय नहीं लिया जा सकता है। पीठ ने अंतरिम राहत को एक और वर्ष के लिए बढ़ाना उचित समझा, जिसके भीतर वह अपील को सुनवाई के लिए निर्धारित कर देगी।
"हमारा विचार है कि अंतरिम व्यवस्था जो पहले रिट याचिका संख्या 28032/2018 में उच्च न्यायालय के फैसले और दिनांक 23.09.2019 के अन्य संबंधित मामलों के संदर्भ में तीन साल की अवधि के लिए लागू थी, एक साल की अवधि के लिए बढ़ाई जाए।“
याचिका में कहा गया है कि हालांकि याचिकाकर्ता संगठन ने स्वीकार किया था कि वह अपने छात्रों को तमिल भाषा पढ़ाएगा, राज्य सरकार ने सभी अल्पसंख्यक भाषाओं को अनिवार्य भाषाओं की सूची से हटाने का एक चरम कदम उठाया है। यह इस बात पर जोर देता है कि जिन भाषाओं को हटा दिया गया है, वे भाषाई अल्पसंख्यकों की मातृभाषाएं हैं और उन्हें सीखने से वंचित करना भारत के संविधान द्वारा परिकल्पित उनके मौलिक अधिकार का हनन है।
याचिका में आगे तर्क दिया गया कि राज्य सरकार छात्रों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती है।
यह भी तर्क है कि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर भाषा चुनने का अधिकार छात्र और उनके माता-पिता पर छोड़ दिया जाना चाहिए, अन्यथा यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19, 21ए, 29 और 30 के तहत उनके अधिकारों का घोर उल्लंघन होगा।
पिछली सुनवाई में, अपीलकर्ता की ओर से पेश वकील ने खंडपीठ को अवगत कराया था कि तमिलनाडु तमिल लर्निंग एक्ट, 2006 प्रभावी रूप से राज्य में प्रवास करने वाले छात्रों को इसके दायरे से बाहर रखता है। हालांकि, इस छूट को भाषाई अल्पसंख्यकों तक नहीं बढ़ाया गया है। उन्होंने खंडपीठ से राज्य सरकार को भाषाई अल्पसंख्यकों को छूट देने या उनकी मातृभाषा में शिक्षा बहाल करने का निर्देश देने का अनुरोध किया।
[केस टाइटल: तमिलनाडु का भाषाई अल्पसंख्यक फोरम बनाम तमिलनाडु राज्य और अन्य। एसएलपी(सी) सं. 16727-16728/2022]
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