सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 पर दाखिल सभी याचिकाओं पर नोटिस जारी किये
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं पर नोटिस जारी किया। हालांकि बेंच ने मामलों के निपटारे तक अधिनियम के संचालन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है।
सीजेआई बोबडे और जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की बेंच ने केंद्र से जनवरी 2020 के दूसरे सप्ताह तक जवाब दाखिल करने को कहा है।
अलग अलग याचिकाओं में कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से गैर-मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता देने के लिए उदारता देने वाला यह अधिनियम धर्म आधारित भेदभाव को बढ़ावा देता है।
याचिकाओं के अनुसार, पूरी तरह से धार्मिक वर्गीकरण, किसी भी निर्धारित सिद्धांत से रहित, धर्मनिरपेक्षता के मौलिक संवैधानिक मूल्य और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है। अधिनियम न केवल अनुचित वर्गीकरण करता है, बल्कि संविधान की मूल संरचना का भी उल्लंघन करता है।
सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर एक दर्जन से अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं, जो नए कानून को चुनौती देती हैं, जिसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से गैर-मुस्लिम प्रवासियों के लिए नागरिकता प्राप्त करने की शर्तों में ढील दी गई है।
अधिनियम के अनुसार, हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से यात्रा दस्तावेजों के बिना भारत आ गए हैं, उन्हें अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। इस कानून के खिलाफ पहली याचिका भारतीय संघ मुस्लिम लीग द्वारा दायर की गई थी।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश और टीएन प्रतापन, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी नए कानून को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। नागरिकता संशोधन कानून लागू होते ही सुप्रीम कोर्ट में करीब 12 याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं। सभी याचिकाओं में इस कानून को असंवैधानिक, मनमाना और भेदभावपूर्ण करार देते हुए रद्द करने का अनुरोध किया गया है। इस मामले में TMC सासंद महुआ मोइत्रा के अलावा कांग्रेसी नेता जयराम रमेश ने भी याचिका दाखिल की है।
जयराम रमेश ने याचिका में कहा है कि ये कानून भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान का उल्लंघन करता है। भेदभाव के रूप में यह मुस्लिम प्रवासियों को बाहर निकालता है और केवल हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, ईसाइयों, पारसियों और जैनियों को नागरिकता देता है। उन्होंने याचिका में कहा कि कानून संविधान की मूल संरचना और मुसलमानों के खिलाफ स्पष्ट रूप से भेदभाव करने का इरादा है। ये संविधान में निहित समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है और धर्म के आधार पर बहिष्कार करके अवैध आप्रवासियों के एक वर्ग को नागरिकता देने का इरादा रखता है। याचिका में कहा गया कि प्रत्येक नागरिक समानता के संरक्षण का हकदार है।
यदि कोई विधेयक किसी विशेष श्रेणी के लोगों को निकालता है तो उसे राज्य द्वारा वाजिब ठहराया जाना चाहिए। नागरिकता केवल धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जन्म के आधार पर हो सकती है। प्रश्न है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में नागरिकता योग्यता की कसौटी कैसे हो सकती है। ये कानून समानता और जीने के अधिकार का उल्लंघन है और इसे रद्द किया जाना चाहिए। वहीं एक वकील एहतेशाम हाशमी ने भी याचिका दाखिल की है। इसके अलावा पीस पार्टी, जन अधिकार मंच, रिहाई मंच और सिटीजनस अगेंस्ट हेट NGO ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है।