साझेदारी बैनामा मृतक पार्टनर के कानूनी वारिस पर बाध्यकारी नहीं : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2019-10-20 12:42 GMT

उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि साझेदारी बैनामा मृत पार्टनर के कानूनी वारिसों पर स्वत: बाध्यकारी नहीं होगा, यदि उन्होंने उस समझौते को मंजूर न किया हो।

जय नारायण मिश्रा और हशमतुन्निशा बेगम एक पार्टनरशिप फर्म में साझेदार थे। ट्रायल कोर्ट ने 1993 में बेगम के खिलाफ मुकदमे में मिश्रा के पक्ष में आदेश जारी किया था। दोनों की मौत के बाद मिश्रा के कानूनी वारिस बेगम के कानूनी वारिसों के खिलाफ हुक्मनामे पर अमल को लेकर याचिका दायर की थी। यह याचिका इस आधार पर निरस्त कर दी गयी थी कि बेगम के खिलाफ जारी किये गये हुक्मनामे पर अमल के लिए उसके कानूनी प्रतिनिधियों को नहीं कहा जा सकता।

'एस पी मिश्रा बनाम मोहम्मद लैकुद्दीन खान' मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह दलील दी गयी थी कि समझौता दस्तावेज की शर्तों के आधार पर किसी एक पक्ष की मौत के बाद उनके कानूनन वारिस संबंधित फर्म में स्वत: साझेदार बन जायेंगे तथा जब तक संबंधित उपक्रम साझेदारी में चलता रहेगा तब तक ये प्रतिनिधि साझेदार के तौर पर काम करेंगे। इतना ही नहीं, साझेदार बन चुके ऐसे कानूनी प्रतिनिधियों के सभी अधिकार एवं जिम्मेदारियां मृत साझेदार के पार्टनर की तरह ही उपलब्ध होंगे। उधर, दूसरे पक्ष की दलील थी कि वे साझेदारी विलेख में पार्टनर नहीं थे और यदि इस बैनामे का कोई भी उपबंध संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध है तो यह अमान्य है और ऐसे उपबंध सार्वजनिक नीति के खिलाफ हैं। यह भी अनुरोध किया गया था कि इस समझौता बैनामे में दो पार्टनर थे एवं एक पार्टनर की मौत के उपरांत साझेदारी अधिनियम, 1932 की धारा 42(सी) के प्रावधानों के तहत समझौता निरस्त हो जाता है।

न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी की खंडपीठ ने कहा कि धारा 42(सी) के तहत कोई पार्टनर फर्म समाप्त माना जायेगा, जब: -(ए) फर्म की निर्धारित अवधि समाप्त हो जायेगी, (बी) समझौते के तहत तय एक या अधिक उपक्रम समाप्त हो जायेंगे, (सी) किसी एक पार्टनर की मौत हो जायेगी तथा (डी) एक पार्टनर को दिवालिया घोषित कर दिया जायेगा।

पीठ ने कहा,

"स्वर्गीया श्रीमती हशमतुन्निशा के कानूनी वारिस 14 अप्रैल 1982 को तैयार मूल साझेदारी विलेख के तहत पार्टनर नहीं हैं। जब ऐसे कानूनी वारिस समझौते में पक्षकार नहीं हैं, तो इस समझौते के तहत संबंधित पक्षों को छोड़कर किसी तीसरे पक्ष पर कोई दायित्व सौंपा नहीं जा सकता। इसके लिए कोई और नहीं बल्कि साझेदारी करने वाले दोनों पक्ष ही जिम्मेदार होंगे। इस सिद्धांत को 'करार का अहदनामा' (प्रिविटी ऑफ कांट्रेक्ट) कहा जाता है।

जब भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 की धारा 42(सी) के प्रावधानों के तहत पार्टनरशिप समाप्त हो जाती है तो हुक्मनामे पर अमल का सवाल नहीं उठता है। मृतक पार्टनर के कानूनी वारिसों की मंजूरी एवं समझौते के बिना किसी भी करार को एकतरफा थोपा नहीं जा सकता। दोनों मूल साझेदारों के बीच किये गये समझौते में यदि तीसरे पक्ष के लिए कोई भी उपबंध रखा गया है, तो साझेदारी बैनामे के ऐसे उपबंध तीसरे पक्ष पर बाध्यकारी नहीं होंगे। भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के प्रावधानों के खिलाफ ऐसे उपबंध अमान्य और अप्रवर्तनीय होते हैं। ऐसे उपबंध सार्वजनिक नीति के खिलाफ भी होते हैं।"

खंडपीठ ने यह कहते हुए अपील खारिज कर दी कि बेगम के कानूनी वारिस साझेदारी बैनामे में पक्षकार नहीं थे तथा एक पक्ष की मौत के बाद साझेदारी खत्म हो गयी थी। इतना ही नहीं, बेगम के कानूनी वारिसों ने पार्टनरशिप फर्म की सम्पत्तियों का कोई लाभ नहीं उठाया था, ऐसी स्थिति में मिश्रा के पूर्ववर्ती को प्राप्त हुक्मनामा उनके खिलाफ अमल में लाने योग्य नहीं है। 

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