मुख्य न्यायाधीश द्वारा नहीं सौंपे गए मामलों को न्यायाधीशों द्वारा लेना 'घोर अनुचितता' का कार्य : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि न्यायाधीशों को उन मामलों को लेने से बचना चाहिए जो विशेष रूप से न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा उन्हें नहीं सौंपे गए हैं। यदि नहीं, तो मुख्य न्यायाधीश द्वारा अधिसूचित रोस्टर का कोई मतलब नहीं होगा, कोर्ट ने कहा।
शीर्ष अदालत ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा नहीं सौंपे गए मामलों को उठाना 'घोर अनुचितता' का कार्य है।
जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस पंकज मित्तल की पीठ ने कहा,
“ अगर अदालतें इस तरह की कठोर चलन की अनुमति देती हैं तो मुख्य न्यायाधीश द्वारा अधिसूचित रोस्टर का कोई मतलब नहीं होगा। न्यायाधीशों को अनुशासन का पालन करना होगा और किसी भी मामले को तब तक नहीं लेना चाहिए जब तक कि यह मुख्य न्यायाधीश द्वारा विशेष रूप से सौंपा न जाए। एक न्यायाधीश किसी मामले की सुनवाई कर सकता है बशर्ते कि या तो उस श्रेणी के मामले उसे अधिसूचित रोस्टर के अनुसार सौंपे गए हों या विशेष मामला मुख्य न्यायाधीश द्वारा विशेष रूप से सौंपा गया हो। मुख्य न्यायाधीश द्वारा विशेष रूप से नहीं सौंपे गए मामले को उठाना घोर अनुचितता का कार्य है।"
सुप्रीम कोर्ट ने ये तीखी टिप्पणियां राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा एक सिविल रिट याचिका में पारित एक आदेश के संबंध में कीं, जिसमें कुछ एफआईआर को एक साथ जोड़ने की प्रार्थना की गई थी। हाईकोर्ट ने यह निर्देश देकर अंतरिम राहत दी थी कि संबंधित आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी।
शीर्ष अदालत ने कहा कि न्यायाधीश को एफआईआर को क्लब करने के लिए ऐसी नागरिक याचिका पर विचार नहीं करना चाहिए, जब ऐसे मामलों का क्षेत्राधिकार आपराधिक पक्ष पर है।
शीर्ष अदालत ने कहा, "हालांकि एक सिविल रिट याचिका दायर की गई थी, लेकिन विद्वान न्यायाधीश को इसे एक आपराधिक रिट याचिका में परिवर्तित कर देना चाहिए था, जिसे केवल आपराधिक रिट याचिकाएं लेने वाले रोस्टर जज के समक्ष ही रखा जा सकता था।"
न्यायालय ने उन आरोपी व्यक्तियों फटकारा, जिन्होंने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत एफआईआर को रद्द करने के लिए दायर आपराधिक विविध याचिकाओं में हाईकोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश द्वारा अंतरिम राहत से इनकार किए जाने के बाद नागरिक याचिका के साथ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
अपीलकर्ता के कहने पर कुछ एफआईआर दर्ज की गई थीं, उसने आरोप लगाया कि एफआईआर के समेकन की प्रार्थना के साथ सिविल रिट याचिका रोस्टर जज से बचने के लिए दायर की गई थी, जिन्होंने आपराधिक याचिकाओं में अंतरिम राहत नहीं दी थी। न्यायालय ने यह भी कहा कि शिकायतकर्ताओं को सिविल रिट याचिकाओं में पक्षकार नहीं बनाया गया था। न्यायालय ने इस तथ्य पर भी विशेष ध्यान दिया कि दीवानी और आपराधिक दोनों मामलों में एक ही वकील ने आरोपी व्यक्तियों (शीर्ष न्यायालय के समक्ष दूसरे से चौथे प्रतिवादी) का प्रतिनिधित्व किया था।
न्यायालय ने दूसरे से चौथे उत्तरदाताओं की कार्रवाई को 'कानून की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग' और 'फोरम हंटिंग का क्लासिक मामला' करार दिया।
कोर्ट ने कहा,
“ यह कानून की प्रक्रिया के घोर दुरुपयोग का मामला है। हमें आश्चर्य है कि एफआईआर को एक साथ जोड़ने के लिए सिविल रिट याचिका पर कैसे विचार किया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश द्वारा अधिसूचित रोस्टर में आपराधिक रिट याचिकाओं के लिए एक अलग रोस्टर है।”
अदालत ने रुपये का जुर्माना लगाते हुए कहा, "यह एक उपयुक्त मामला है जहां दूसरे से चौथे उत्तरदाताओं पर जुर्माना देने का बोझ डाला जाना चाहिए।"
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि दूसरे से चौथे उत्तरदाताओं के आचरण को उनके खिलाफ एफआईआर को रद्द करने के लिए दूसरे से चौथे उत्तरदाताओं द्वारा दायर सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिकाओं की सुनवाई के लिए संबंधित न्यायालय के ध्यान में लाने की जरूरत है।
केस टाइटल : अंबालाल परिहार बनाम राजस्थान राज्य और अन्य, 2023 की आपराधिक अपील नंबर 3233
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