" जज हत्यारे को माफ नहीं कर सकते" : मौत की सजा पाए दंपत्ति की पुनर्विचार याचिका पर CJI बोबडे ने कहा 

Update: 2020-01-24 04:50 GMT

गुरुवार को भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने अमरोहा हत्याकांड के दोषियों, सलीम और शबनम की ओर से मौत की सजा के खिलाफ दायर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के बाद अपना आदेश सुरक्षित रख लिया।

 2015 में शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मृत्युदंड देने के आदेश  की पुष्टि की थी जिसमें 2010 में सत्र न्यायालय द्वारा शबनम के परिवार के सात सदस्यों की हत्या के लिए उन्हें मौत की सजा देने के फैसले को बरकरार रखा गया था।

यह स्थापित किया गया है कि सलीम और शबनम ने शादी पर जोरदार विरोध करने पर शबनम के परिवार की हत्या कर दी थी,  जिसमें उसके पिता और उसके 10 महीने के भतीजे सहित सात लोग थे। ये अपराध 

15 अप्रैल, 2008 को किया गया था।

पीठ, जिसमें जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस संजीव खन्ना भी शामिल थे, ये दलील भी दी गई कि दोषी ठहराए जाने के बाद अच्छे व्यवहार के मद्देनज़र सजा को कम करने का आधार माना जाए। 

अदालत के लिए यहां पर विचार करने का मुद्दा यह है कि क्या जघन्य अपराध के दोषी ठहराए जाने के बाद अच्छे व्यवहार के चलते सुधार के आधार पर मौत की सजा को आजीवन कारावास की सजा की मांग की जा सकती है।

वरिष्ठ वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने अदालत को बताया कि शबनम ने जेल के अंदर साक्षरता कार्यक्रम शुरू किया और कैदियों को पढ़ा रही है। उन्होंने कहा कि सजा के पहले एक अपराध के विभिन्न पहलुओं और दोषी की जांच होनी चाहिए, और इस उदाहरण में, अपराधी पहली बार का दोषी था जिसने जेल में असाधारण आचरण का प्रदर्शन किया है। वो एक जघन्य अपराध अपराधी के समान नहीं है, जिसे सुधार की अनुमति दी जानी चाहिए।

हालांकि मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने सहमति व्यक्त की कि सुधार की संभावना वास्तव में सजा का एक महत्वपूर्ण पहलू है, उन्हें उस प्रभाव को देखना होगा क्या दोषी पाए जाने के बाद जेल में एक अपराधी के व्यवहार पर मौत की सजा पर विचार किया जा सकता है  

"यह मुकदमेबाजी की बाढ़ को खोल देगा", उन्होंने कहा।

अपराध की प्रकृति और एक अपराधी के तर्क के संबंध में मुख्य न्यायाधीश ने कहा,

"मनुष्य शुद्ध आत्माओं के साथ पैदा होते हैं, वे निर्दोष हैं, और जबकि कोई भी अपने दिल की गहराई में अपराधी नहीं है, "अदालतें अपराध के लिए दंडित करती हैं और व्यक्ति को नहीं। "हम समाज के लिए न्याय करते हैं, न कि इस आधार पर कि कैसे वो जेल में अन्य अपराधियों के साथ व्यवहार करते हैं।" 

 उन्होंने टिप्पणी करते हुए कहा कि 10 महीने के बच्चे का गला घोंटने के बाद आचरण 'असाधारण' हो गया था। पीठ ने यह कहा कि सजा अपराध के अनुपात में ही होनी चाहिए और यह मामला अपने ही परिवार के सात सदस्यों की हत्या को मृत्युदंड के साथ संतुलित करने के बारे में है। 

मुख्य न्यायाधीश ने कहा,

"यह कानून है जो अपराधियों से निपटता है ... एक न्यायाधीश नहीं ... एक इंसान होने के नाते, एक न्यायाधीश एक हत्यारे को माफ नहीं कर सकता है ...इसके असर के बारे में सोचिए कि जज ने एक हत्यारे को कहा कि 'मैंने तुम्हें माफ कर दिया!"

पीठ ने यूपी राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल  (SG) तुषार मेहता से पूछा कि क्या सजा को बदला जा सकता है यदि दोषी को सजा सुनाए जाने के बाद उनके तरीके बदल जाते हैं, तो SG ने कहा कि इस तरह से मौत की सजा नहीं बदलेगी। हर कोई कहेगा कि उन्हें सुधार दिया गया है, और वो इससे बाहर आ जाएगा। आप अपने माता-पिता को मार नहीं सकते हैं और फिर कहते हैं कि मैं अनाथ हो गया हूं इसलिए कृपया मुझ पर दया दिखाओ, मेहता ने कहा। 

दंपति के वकील, आनंद ग्रोवर ने उनकी ओर से दया का अनुरोध किया कि वे गरीब और अनपढ़ थे। हालांकि, पीठ ने यह कहकर जवाब दिया कि कई ऐसे हैं जो गरीब और अशिक्षित हैं, लेकिन पुनर्विचार याचिका की अनुमति देने के लिए कोई आधार नहीं है। सजा पर पुनर्विचार की दलील देते हुए, आपको सजा में त्रुटि दिखानी चाहिए, बेंच ने याद दिलाया और गलती के लिए आधार दिखाने को कहा।

सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने मृत्युदंड की सजा के संबंध में कुछ गंभीर टिप्पणियां भी कीं। इस बात पर जोर दिया गया कि मौत की सजा को अंतिम रूप देना बेहद महत्वपूर्ण है और निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए और उसे समय पर अंजाम दिया जाना चाहिए। 

2012 के दिल्ली गैंगरेप मामले (निर्भया) में हालिया नाटकीय मोड़ के बारे में संकेत देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि दोषियों को यह मानने की अनुमति नहीं होनी चाहिए कि सजा किसी भी समय चुनौती के लिए खुली है। उन्होंने कहा, "मुकदमेबाजी जारी नहीं रह सकती है।"

SG मेहता ने इस बिंदु पर भी उल्लेख किया है कि गृह मंत्रालय के माध्यम से केंद्र ने 2014 में शत्रुघ्न चौहान मामले में बनाए गए  'दोषी-केंद्रित' दिशानिर्देशों को संशोधित करने के लिए शीर्ष अदालत के समक्ष एक आवेदन दायर किया है। मौत की सजायाफ्ता कैदियों के समय पर फांसी देने के लिए 'पीड़ित-केंद्रित' दिशानिर्देश तैयार किए जाने चाहिएं। 

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