बॉम्बे हाईकोर्ट ने दोहराया , बर्ख़ास्तगी का आदेश अगर जारी नहीं हुआ है तो ग्रेच्युटी को ज़ब्त नहीं किया जा सकता, पढ़िए फैसला
अदालत प्रतिवादी की दलील से सहमत नहीं हुई और कहा कि याचिकाकर्ता को कभी भी बर्ख़ास्तगी का नोटिस नहीं दिया गया और इस तरह उसको कभी भी सेवा से बर्खास्त नहीं किया गया....बेहतर होता अगर उसे बर्ख़ास्तगी का नोटिस दिया जाता।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने दोहराया है कि अगर किसी कर्मचारी की सेवा समाप्त करने का आदेश नहीं दिया गया है तो ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम 1972 की धारा 4(6)(b) के तहत उस कर्मचारी का ग्रेच्युटी ज़ब्त नहीं किया जा सकता है।
यह था मामला
महाराष्ट्र राज्य परिवहन निगम में बस कंडक्टर के पद पर कार्यरत एक कर्मचारी ने एक रिट याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ता को 7/07/2003 को उसके विभाग ने कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था और पूछा था कि दुर्व्यवहार के लिए उसका नौकरी से क्यों नहीं निकाल दिया जाए। हाईकोर्ट ने इस विभागीय नोटिस पर रोक लगाकर याचिकाकर्ता की नौकरी पर यथास्थिति बनाए रखने को कहा। बाद में प्रतिवादी ने 16/12/2011 को एक नोटिस जारी कर उसकी ग्रेच्युटी ज़ब्त कर ली जिसे उसने रिट याचिका में चुनौती दी।
याचिकाकर्ता की दलील
याचिकाकर्ता ने कहा कि 07/07/2003 को उसको जो नोटिस जारी किया गया उस पर अमल नहीं हुआ क्योंकि अदालत ने उस पर रोक लगा दी। याचिकाकर्ता को उसकी सेवा से बर्खास्त नहीं किया गया और वह अपने सेवा से रिटायर हुआ है। उसने दलील दी की चूँकि उसे सेवा से हटाया नहीं गया है इसलिए अधिनियम 1972 की धारा 4(6)(b) के तहत उसका ग्रेच्युटी ज़ब्त नहीं किया जा सकता। इसलिए जो नोटिस जारी किया गया है वह ग़ैरक़ानूनी है।
उसने यह भी कहा कि उसके ख़िलाफ़ उपरोक्त प्रावधान लागू भी नहीं होते क्योंकि उसके ख़िलाफ़ इस तरह के आरोप नहीं हैं कि उसकी वजह से किसी भी तरह का नुक़सान या घाटा हुआ है। इस बारे में उसने यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया एवं अन्य बनाम सीजी अजय बाबू एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसला पर अपना भरोसा जताया।
प्रतिवादी ने कहा कि विभागीय जाँच में उसे दोषी पाया गया और नौकरी से हटाना महज़ एक औपचारिकता ही रह गई थी। उसने डिवीजनल पर्सनल ऑफ़िसर, दक्षिण रेलवे एवं अन्य बनाम टीआर चेल्लप्पन मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अमल की दलील दी।
यह भी कहा गया कि याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका वापस ले ली थी इसलिए प्रतिवादी उसके ख़िलाफ़ बर्ख़ास्तगी का आदेश जारी नहीं कर सकता था।
फ़ैसला
अदालत प्रतिवादी की दलील से सहमत नहीं हुई और कहा कि याचिकाकर्ता को कभी भी बर्ख़ास्तगी का नोटिस नहीं दिया गया और इस तरह उसको कभी भी सेवा से बर्खास्त नहीं किया गया, इसलिए ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम 1972 की धारा 4(6)(b) की ज़रूरत पूरी नहीं की गई।
न्यायमूर्ति नितिन डब्ल्यू संब्रे ने जसवंत सिंह गिल बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का ज़िक्र किया। बेहतर होता अगर उसे बर्ख़ास्तगी का नोटिस दिया जाता। अदालत ने यह भी कहा कि प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता द्वारा अपनी याचिका वापस लेने का कभी विरोध नहीं किया।
अदालत ने अंततः इस आदेश को निरस्त कर दिया और प्रतिवादी (महाराष्ट्र राज्य परिवहन निगम) को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ता की ग्रेच्युटी का भुगतान वाजिब ब्याज के साथ करे। याचिकाकर्ता की पैरवी वैभव आर गायकवाड़ ने और प्रतिवादी का पक्ष जीएस हेगड़े ने रखा।