दिल्ली के उपहार अग्निकांड पर लिखी पेंगुइन बुक्स से आई किताब 'अग्नि परीक्षा' आजकल चर्चा में है जो उस अग्निकांड के बाद न्याय की लड़ाई लड़ रहे एक ऐसे दंपत्ति ने लिखी है जिनके दो बच्चे इस अग्निकांड की भेंट चढ़ गए थे. उपहार अग्निकांड को आज बाईस साल हो गए हैं. ठीक आज ही के दिन यानि 13 जून 1997 को दक्षिणी दिल्ली के उपहार सिनेमा में जब लोग 'बॉर्डर' फिल्म देख रहे थे तो एक भयंकर अग्निकांड में 59 लोग मारे गए थे. इसमें नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति के बच्चे उन्नति और उज्ज्वल भी शामिल थे.
ये पूछे जाने पर कि इस किताब का नाम उन्होंने 'अग्नि परीक्षा' क्यों रखा, तो नीलम कृष्णमूर्ति ने कहा कि 'इस देश में न्याय की लड़ाई अग्नि परीक्षा ही है. बाईस साल से न्याय की लड़ाई जारी है. सभी जानते हैं कि हादसा हुआ, सभी जानते हैं कि उपहार के मालिक कौन हैं लेकिन अदालत में इसे साबित करना अग्नि परीक्षा से कम नहीं है.'
नीलम की लड़ाई अपने बच्चों के लिए और उन 57 लोगों के लिए न्याय दिलाने की लड़ाई है जिन्हें अभी तक उचित सजा नहीं मिल पाई है. वे कहती हैं, 'इस लड़ाई में मैं समझ गयी हूं कि न्याय सिर्फ पैसे वालों के लिए है.'
इस पुस्तक में बच्चों के खोने के दर्द है, न्याय न मिलने की पीड़ा है, सिस्टम में मौजूद तरह-तरह के अवरोध हैं, न्याय व्यवस्था की पेंचीदगी और उस व्यवस्था पर कई सवाल हैं जो बताते हैं कि भारत में न्याय मिलना कितना मुश्किल है. वास्तविक घटना पर आधारित यह किताब आप को किसी फिल्मी कहानी सरीखी ये बताती है कि अदालतों में तारीख पर तारीख कैसे मिलती है, पैसे वाले रसूख़दार लोगों के पक्ष में यह सिस्टम कितना झुका हुआ है और कैसे मुकदमे वापस ले लेने या कमजोर करने के लिए पैसे का लालच और धमकिया तक दी जाती है. नीलम कृष्णमूर्ति कहती हैं, '20 साल बाद इस केस का फ़ैसला आया जिसमें सिनेमा हॉल के एक मालिक को एक साल की सज़ा दी गई, एक को छोड़ दिया गया। 30 करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया गया। न्याय का मखौल नहीं है यह तो क्या है? क्या किसी के जान की क़ीमत पैसों से चुकाई जा सकती है?'
यह हिंदुस्तान जैसे देश में ही हो सकता है कि इतने प्रत्यक्ष सबूतों, विस्तृत टेलीविजन कवरेज़ और मीडिया में इतने बड़े पैमाने पर छपने के बावजूद न्यायतंत्र ने असंल बंधुओं के अपराध को 'नागरिक सुविधाओं के प्रति घनघोर उपेक्षा' भर माना, उन्हें हत्या या हत्या में शामिल व्यक्ति नहीं. ये किताब विस्तार से ये बताती है कि कैसे अदालत ने अंसल बंधुओं को कुछेक साल और महीनों की सजा और जुर्माना देकर छोड़ दिया और वह न्याय की लड़ाई बदस्तूर जारी है.
हद की बात तो ये भी थी कि अंसल बंधुओं ने 59 लोगों की हत्या की बात स्वीकारने और सार्वजनिक माफी मांगने के बजाय उलटे पीड़ितों को पैसे के बल पर खरीदना चाहा.
यह किताब आप को दिल्ली नगर निगम की नागरिक सुविधाओं, नियम-कानूनों, सार्वजनिक इमारतों में अग्नि सुरक्षा के मानकों, पुलिस और सीबीआई की जांच के तौर तरीकों, उन पर पड़ने वाले दबाव और सबसे बड़ी बात हमारी न्याय व्यवस्था की उच्चवर्गीय मानसिकता(इलीटिस्ट माइंड-सेट) को भी दर्शाती है.
अग्नि परीक्षा सिर्फ एक न्याय की लड़ाई का दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह किताब इस देश में अग्नि सुरक्षा मानकों को पालन करवाए जाने का भी एक आन्दोलन है जिस वजह से हर साल भारत में न जाने कितने सौ या हजार लोगों की दर्दनाक मौत हो जाती है.