तलाक लेने का अधिकार व्यक्ति का निजी अधिकार, बेटे की मौत के बाद परिवार कार्यवाही नहीं कर सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट
बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि तलाक लेने का अधिकार किसी व्यक्ति का निजी अधिकार है। इसे किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी उसके परिवार के सदस्यों तक नहीं बढ़ाया जा सकता।
जस्टिस मंगेश पाटिल और जस्टिस शैलेश ब्रह्मे की खंडपीठ ने पुणे के व्यक्ति की मां और भाइयों द्वारा दायर अपील खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया, जिन्होंने COVID-19 प्रकोप के दौरान उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी के खिलाफ आपसी सहमति से तलाक की कार्यवाही जारी रखने की मांग की थी।
जजों ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13बी(2) के तहत तलाक का आदेश पारित करने के लिए यह पूर्व शर्त है कि पक्षकारों (पति और पत्नी) द्वारा दूसरा प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाने के बाद ही ऐसा किया जाए।
दोनों पक्षों द्वारा ऐसा प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाने पर ही न्यायालय दोनों पक्षों की सुनवाई के लिए आगे बढ़ सकता है। आवश्यकतानुसार अपेक्षित जांच कर सकता है। यह संतुष्टि होने पर कि विवाह संपन्न हो चुका है। याचिका में दिए गए कथन सत्य हैं। न्यायालय आदेश पारित कर सकता है।
उपधारा (2) में उल्लिखित अवधि के पहलू को अलग रखते हुए न्यायालय को विवाह के निष्पादन और याचिका की विषय-वस्तु के बारे में अपने निर्णय पर पहुंचने के लिए आगे की जांच करने का अधिकार केवल एक प्रस्ताव के आधार पर ही प्राप्त होगा। पीठ ने कहा कि यह स्वतः नहीं होता।
जजों ने कहा,
"दूसरे शब्दों में आपसी सहमति से तलाक के लिए याचिका दायर किए जाने के बाद भी यदि पक्षकारों द्वारा संयुक्त रूप से कोई प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो न्यायालय द्वारा आगे कोई जांच किए जाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह केवल पति-पत्नी में से किसी एक के कहने पर नहीं हो सकता।”
खंडपीठ ने आगे कहा,
"तलाक लेने का अधिकार मृतक का व्यक्तिगत अधिकार था और सिद्धांत यह है कि व्यक्ति के साथ न्याय किया जाना चाहिए। इसलिए अपीलकर्ताओं के लिए कार्रवाई का कारण नहीं बचेगा और आपसी सहमति से तलाक के लिए याचिका समाप्त हो जाएगी, जैसा कि न्यायाधीश ने विवादित आदेश में सही ढंग से निष्कर्ष निकाला है।"
खंडपीठ व्यक्ति की मां और दो भाइयों द्वारा दायर अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें मृतक व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में खुद को रिकॉर्ड में दर्ज करने की मांग की गई, जिससे आपसी सहमति से तलाक की कार्यवाही को आगे बढ़ाया जा सके, जिसकी शुरुआत उस व्यक्ति और उसकी अलग रह रही पत्नी ने की थी।
खंडपीठ ने उल्लेख किया कि आपसी सहमति से तलाक के लिए आवेदन करने के बाद अब मृतक पति ने पत्नी को कुल 5 लाख रुपये गुजारा भत्ता देने पर सहमति व्यक्त की थी। उसने इसका पहला आधा हिस्सा (2.50 लाख रुपये) पत्नी को दिया और दूसरा प्रस्ताव पेश करने के बाद शेष राशि का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की।
हालांकि, इस बीच पति की मृत्यु हो गई। पत्नी ने तब फैमिली कोर्ट का रुख किया और पति के नहीं रहने के कारण तलाक की कार्यवाही को बंद करने की मांग की। हालांकि उसके परिवार के सदस्यों ने मृतक के कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में रिकॉर्ड पर लाने और कार्यवाही को आगे बढ़ाने की मांग की। हालांकि, इसे फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया और पत्नी के आग्रह पर कार्यवाही बंद कर दी गई।
खंडपीठ ने कहा,
"अधिनियम की धारा 13-बी की उपधारा (2) के तहत प्रस्ताव पेश करना आपसी सहमति से तलाक का आदेश पारित करने के लिए अनिवार्य शर्त है। वर्तमान मामले में ऐसा नहीं किया गया, पति की मृत्यु के बाद सहमति वापस लेना अनावश्यक था, क्योंकि दूसरा प्रस्ताव संयुक्त प्रस्ताव होना चाहिए। एक बार इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद मृतक के उत्तराधिकारी उसकी मां और दो भाई होने के नाते अपीलकर्ताओं को रिकॉर्ड पर आने का कोई अधिकार नहीं है, यहां तक कि उन्हें फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 19 के तहत अपील करने का कोई अधिकार नहीं मिलेगा।”
इन टिप्पणियों के साथ खंडपीठ ने अपील खारिज कर दी।
यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि पति की मृत्यु के बाद जिसने हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के तहत विवाह को शून्य घोषित करने के लिए आवेदन किया। उसके माता-पिता को आदेश 22 नियम 3 सीपीसी के तहत कार्यवाही को आगे बढ़ाने का अधिकार है, क्योंकि ऐसे वैवाहिक विवादों में उत्तराधिकार के प्रश्न शामिल होते हैं।