मृत्यु की घोषणा के लिए सिविल मुकदमा केवल इसलिए विशिष्ट राहत अधिनियम की धारा 34 के तहत वर्जित नहीं कि आगे राहत का दावा नहीं किया गया: इलाहाबाद हाइकोर्ट

Update: 2024-04-01 12:17 GMT

इलाहाबाद हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया कि मृत्यु की घोषणा के लिए सिविल मुकदमा केवल इसलिए सुनवाई योग्य है और विशिष्ट राहत अधिनियम 1963 की धारा 34 के तहत वर्जित नहीं है, क्योंकि वादी ने आगे राहत का दावा नहीं किया।

जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने आगे कहा कि 1963 अधिनियम की धारा 34 के तहत किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु की घोषणा के लिए सिविल मुकदमा दायर करने पर कोई रोक नहीं है। यदि वादी ऐसे व्यक्ति का कानूनी उत्तराधिकारी है। मृत्यु का ऐसा कानूनी चरित्र उसके लाभ के लिए है और इसे ऐसे कानूनी चरित्र के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है।

न्यायालय ने ये टिप्पणियां एकल न्यायाधीश द्वारा रईसा बानो द्वारा अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, लखनऊ के 2016 के फैसले को चुनौती देने वाली दूसरी अपील स्वीकार करते हुए कीं। इस फैसले ने सिविल जज (सीनियर डिवीजन), मोहनलालगंज, लखनऊ द्वारा मुकदमे को खारिज करना बरकरार रखा।

संक्षेप में मामला

मूलतः वादी/अपीलकर्ता ने वर्ष 2015 में यह राहत पाने के लिए मुकदमा दायर किया कि उसका पति 13 वर्षों से अधिक समय से लापता है; इसलिए साक्ष्य अधिनियम की धारा 108 के तहत उसे मृत घोषित किया जा सकता।

अपनी शिकायत में उसने विशेष रूप से कहा कि उसने अपने पति (अख्तर अली) के 13 वर्षों से अधिक समय से लापता होने के संबंध में जिला मजिस्ट्रेट, लखनऊ को एफआईआर, समाचार पत्र में प्रकाशन और आवश्यक प्रारूप के साथ-साथ धारा 80 सीपीसी के तहत नोटिस भी दर्ज कराया।

शिकायत में यह भी दलील दी गई कि उसका पति बिजली विभाग में काम करता था, लेकिन वह 13 वर्षों से अधिक समय से अपनी ड्यूटी पर नहीं आया और जब तक उसे मृत घोषित नहीं किया जाता तब तक वह उसका सेवा लाभ नहीं ले पाएगी।

किसी भी प्रतिवादी ने उपरोक्त मुकदमे का विरोध नहीं किया। यहां तक ​​कि राज्य ने भी वादी-अपीलकर्ता के दावे का समर्थन किया, लेकिन सिविल न्यायालय ने इस आधार पर इसे खारिज कर दिया कि बिना किसी अतिरिक्त राहत के केवल सिविल मृत्यु की घोषणा करने का मुकदमा 1963 अधिनियम की धारा 34 के तहत वर्जित है।

हाईकोर्ट के समक्ष वादी-अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि ऐसा मुकदमा स्वीकार्य होगा। यह भी दलील दी गई कि अपने पति की मृत्यु की घोषणा न करने के कारण वह विद्युत विभाग से अपने पति के सेवा लाभों से वंचित हो गई, क्योंकि वह विद्युत विभाग का कर्मचारी था।

हाईकोर्ट की टिप्पणियां

शुरू में न्यायालय ने नोट किया कि विचाराधीन मुकदमा न केवल सिविल मृत्यु की घोषणा थी, बल्कि लापता व्यक्ति की पत्नी को सेवा लाभ दिलाने के लिए भी था, जो विद्युत विभाग में लाइनमैन के रूप में काम करती थी।

इसके अलावा 1963 अधिनियम की धारा 34 के अधिदेश की जांच करते हुए न्यायालय ने कहा कि प्रावधान किसी व्यक्ति की सिविल मृत्यु की घोषणा के लिए वाद पर रोक नहीं लगाता, बल्कि यह केवल उस वाद को नियंत्रित करता है, जो बिना किसी अतिरिक्त राहत की मांग किए मात्र घोषणा की तरह है, जिसे वादी मांग सकता है। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि जब अतिरिक्त राहत की कोई आवश्यकता नहीं है तो अतिरिक्त राहत की मांग करना आवश्यक नहीं है।

न्यायालय ने आगे कहा कि किसी व्यक्ति की सिविल मृत्यु की घोषणा करना पर्याप्त राहत है। इसका तत्काल परिणामी प्रभाव होता है। किसी व्यक्ति की मृत्यु की घोषणा पर मृत घोषित व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारियों को लाभ प्राप्त होता है। इसलिए अतिरिक्त राहत की आड़ में ऐसे सभी लाभों की राहत अस्पष्ट रूप से नहीं मांगी जा सकती है।

न्यायालय ने टिप्पणी की,

"यहां तक ​​कि अधिनियम 1963' की धारा 34 भी अतिरिक्त राहत के बिना घोषणा की मांग करने की अनुमति देती है। सिवाय उन मामलों को छोड़कर जहां राहत मांगे बिना केवल घोषणा का कोई प्रभाव नहीं होता है और कानूनी उत्तराधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति की सिविल मृत्यु की घोषणा में ऐसी स्थिति नहीं है।”

इसके अलावा मामले के तथ्यों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि मुकदमे का आधार ही स्वर्गीय अख्तर अली को विद्युत विभाग से सेवा लाभ दिलवाना। इसके लिए स्वर्गीय अख्तर अली की मृत्यु की घोषणा आवश्यक है।

न्यायालय ने प्रथम अपीलीय आदेश खारिज करते हुए कहा,

"स्वर्गीय अख्तर अली की सिविल मृत्यु की घोषणा पर परिणाम यह होगा कि उनकी पत्नी अन्य कानूनी उत्तराधिकारियों के साथ कानून के अनुसार स्वर्गीय अख्तर अली की संपत्ति और सेवा लाभ की हकदार होंगी। इसके लिए राहत की मांग करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सिविल मृत्यु की घोषणा के बाद यह राहत स्वतः ही उन्हें मिल जाएगी। इसलिए भले ही विद्युत विभाग के खिलाफ कोई विशेष राहत नहीं मांगी गई हो, फिर भी अपीलकर्ता के पति की मृत्यु की घोषणा के लिए मुकदमा अधिनियम 1963 की धारा 34 के तहत पोषणीय नहीं होने के कारण खारिज नहीं किया जा सकता है।”

परिणामस्वरूप मामले को सिविल जज, सीनियर डिवीजन, मोहनलालगंज, लखनऊ को 3 महीने के भीतर उपरोक्त अवलोकन के प्रकाश में एक नया आदेश पारित करने के लिए वापस भेज दिया गया।

केस टाइटल - रईसा बानो बनाम तबस्सुम जहान एवं अन्य

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