बेदख़ली की याचिका पर सुनवाई के लंबित रहने के दौरान अगर मकान मालिक कोई और व्यवसाय करता है तो उसकी ‘वास्तविक ज़रूरत’ पर संदेह नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-12-16 15:35 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मकान मालिक और उसके बेटे (जिसके लिए मकान चाहिए) मामले का फ़ैसला होने तक यह साबित करने के लिए कि उन्हें मकान की वास्तव में ज़रूरत है, बेकार बैठे रहेंगे और कोई काम नहीं करेंगे इसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

हुकुम चंद्र बनाम नेमी चंद जैन मामले में मकान मालिक ने मध्य प्रदेश एकोमोडेशन कंट्रोल ऐक्ट, 1961 की धारा  12(1)(f) के तहत मामला दायर कर अपने किरायेदार को मकान ख़ाली करने के लिए कोर्ट के आदेश की मांग की थी ताकि वह अपने बेटे को यह रहने के लिए दे सके। निचली अदालत ने इस मामले को यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि बेटा पहले से ही अपना स्वतंत्र व्यवसाय कर रहा है और वह बेरोज़गार नहीं है।

प्रथम अपीली अदालत ने इस फ़ैसले को पलट दिया और कहा कि यह अपेक्षा करना कि मकान मालिक का बेटा इस मामले पर फ़ैसला होने तक कोई काम नहीं करेगा उचित नहीं होगा। हाईकोर्ट ने प्रथम अपीली अदालत की इस बात को भी सही बताया कि मकान मालिक यह बताने में सफल रहा है कि उसके बेटे को अपना व्यवसाय चलाने के लिए घर की ज़रूरत है।

हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ किरायेदार की अपील पर न्यायमूर्ति आर बनुमती और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने कहा की इस बात का कोई सबूत नहीं है कि मकान मालिक का बेटा मामला दायर करने के समय बर्तन का कारोबार करता था।

पहली अपीली अदालत के फ़ैसले को सही ठहराते हुए पीठ ने कहा, “वर्तमान मामले में इस तथ्य से कि राजेंद्र कुमार का ‘राजेंद्र बर्तन भंडार’ नामक बर्तन का कारोबार है, इंकार नहीं किया जा सकता और उसे इस मकान की ज़रूरत है। प्रतिवादी के बेटे से इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती कि मामले का फ़ैसला होने तक वह बेकार बैठा रहेगा और कोई काम नहीं करेगा …बर्तन का व्यवसाय करना उन्हें मकान को ख़ाली कराने के फ़ैसले से वंचित रखने का आधार नहीं हो सकता।”

इस अपील को ख़ारिज करते हुए कोर्ट ने किरायेदार को मकान ख़ाली करने के लिए तीन महीने का समय दिया और कहा की इस अवधि के अंदर वह यह मकान मकान मालिक को सुपुर्द कर दें।


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