क्या माफ़ी स्वीकार करना अवमानना के दोष को दूर करने के लिए पर्याप्त है? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बताया, सज़ा क्यों दी जा सकती है?
Amir Ahmad
14 Nov 2025 3:37 PM IST

न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971 की धारा 12 की व्याख्या करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि अवमाननाकर्ता द्वारा की गई माफ़ी को न्यायालय स्वीकार तो कर सकता है लेकिन इससे अवमानना स्वतः ही समाप्त नहीं हो जाती या अवमाननाकर्ता को दोषमुक्त नहीं कर देता।
न्यायालय के विरुद्ध अपमानजनक आरोप लगाने के कारण आपराधिक अवमानना का सामना कर रहे एक वकील की वापसी और माफ़ी की याचिका पर विचार करते हुए जस्टिस सिद्धार्थ की पीठ ने कहा कि माफ़ी स्वीकार करना दोषमुक्ति के समान नहीं है।
पीठ ने आगे कहा कि अवमानना की गंभीरता के आधार पर न्यायालय को यह निर्णय लेने का पूर्ण विवेकाधिकार प्राप्त है कि अवमाननाकर्ता को दोषमुक्त किया जाए या फिर सज़ा दी जाए।
पीठ ने कहा,
"किसी सज़ा को कम करने में एक सदिच्छापूर्ण माफ़ी को निश्चित रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिए लेकिन यह अवमाननाकर्ता को दोषमुक्त नहीं करता। वह अधिकार के रूप में दोषमुक्त होने का दावा नहीं कर सकता।"
संक्षेप में मामला
अवमाननाकर्ता-वकील ने पहले अपने लिखित तर्क में जज की टिप्पणी यह फ़्फ़ी की बहस है (अनुवाद: यह एक मूर्खतापूर्ण तर्क है) का हवाला दिया था। उन्होंने ज़मानत याचिका की सुनवाई के दौरान अदालत पर पक्षपात, बेईमानी और ईमानदारी की कमी का भी आरोप लगाया।
बाद में उन्होंने बिना शर्त माफ़ी मांगी और तर्क दिया कि एक बार अदालत ने उनकी माफ़ी स्वीकार कर ली तो वह अदालत की अवमानना अधिनियम की धारा 12 के तहत आगे कार्रवाई नहीं कर सकती या सज़ा नहीं दे सकती।
इस तर्क को खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि धारा 12 के प्रावधान में स्पष्ट रूप से दो संभावनाएं हैं, अवमाननाकर्ता को उन्मुक्त करना या सज़ा में छूट (शमन)।
इसमें आगे कहा गया कि प्रावधान में उन्मुक्त और परिहार दोनों शब्दों का प्रयोग यह दर्शाता है कि विधानमंडल ने माफ़ी स्वीकार करने को उन्मुक्ति का स्वतः आधार बनाने के बजाय जानबूझकर विवेकाधिकार अदालत पर छोड़ दिया।
जस्टिस सिद्धार्थ ने आगे बताया कि रिमिट शब्द के दो अर्थ हैं, या तो पूर्ण क्षमा या सजा में आंशिक कमी।
न्यायालय ने स्पष्ट किया,
"माफ़ी स्वीकार करने के बाद भी न्यायालय के पास यह विवेकाधिकार है कि वह अवमाननाकर्ता को कोई दंड न दे या उसे कम दंड दे। विधानमंडल ने परंतुक में दोनों ही शब्दों का प्रयोग अकारण नहीं किया है। यदि विधानमंडल का आशय कुछ और होता तो वह परंतुक में कुछ ऐसे शब्द जोड़ सकता था जैसे बशर्ते कि न्यायालय की संतुष्टि के अनुसार क्षमा याचना करने पर अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया जाएगा।"
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि क्षमा याचना स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि अभियुक्त स्वतः दोषमुक्त हो जाता है और यह केवल एक ऐसा कारक है, जो दंड में कमी लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
न्यायालय ने अपर सत्र जज हरदोई बनाम बनवारी लाल एआईआर 1948 अवध 114: (1948) 49 क्रि एलजे 108 में निर्धारित अनुपात का उल्लेख किया, जहां यह माना गया कि माफ़ी, हालांकि अक्सर अपराध को कम करती है, अपराधी को अधिकार के रूप में दोषमुक्ति का अधिकार नहीं देता।
सिंगल जज ने आगे कहा कि अवमानना की गंभीरता निर्णायक भूमिका निभाती है। यदि अवमानना मामूली है तो बिना शर्त और सद्भावनापूर्ण क्षमायाचना उसे शुद्ध करने के लिए पर्याप्त हो सकती है। लेकिन गंभीर मामलों में केवल क्षमायाचना स्वीकार करना न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता।
न्यायालय ने कहा कि अवमाननाकर्ता केवल इसलिए दोषमुक्ति का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी क्षमायाचना स्वीकार कर ली गई थी।
हाईकोर्ट ने जज पर बेईमान होने और ईमानदारी की कमी का आरोप लगाने वाले वकील को राहत देने से इनकार कर दिया।

