मुकदमा शुरू न करना पत्नी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 21 वर्षों से लंबित क्रूरता मामले में प्रतिदिन सुनवाई का आदेश दिया

Amir Ahmad

16 Aug 2025 12:25 PM IST

  • मुकदमा शुरू न करना पत्नी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 21 वर्षों से लंबित क्रूरता मामले में प्रतिदिन सुनवाई का आदेश दिया

    क्रूरता मामले की सुनवाई शुरू करने के लिए निचली अदालत को निर्देश देने की पत्नी की प्रार्थना पर विचार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि यह खेदजनक है कि FIR और आरोपपत्र दाखिल करने के दो दशक से अधिक समय बाद भी मुकदमा शुरू नहीं हुआ।

    जस्टिस विनोद दिवाकर ने कहा कि निचली अदालत के कार्यभार के प्रति न्यायालय सचेत है।

    उन्होंने कहा,

    “FIR दर्ज होने के दो दशक से अधिक समय बीत जाने के बावजूद यह खेदजनक है कि निचली अदालत इस मामले में कोई प्रभावी कार्यवाही शुरू करने या संचालित करने में विफल रही है। निचली अदालत की यह लंबी और अस्पष्ट निष्क्रियता न केवल समय पर न्याय से वंचित करती है, बल्कि कानून के शासन का गंभीर क्षरण और याचिकाकर्ता के निष्पक्ष एवं शीघ्र सुनवाई के मौलिक अधिकार का उल्लंघन भी है।”

    इसमें आगे कहा गया,

    “इस तरह की न्यायिक जड़ता याचिकाकर्ता के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की रक्षा, न्याय का उचित प्रशासन सुनिश्चित करने और न्याय की किसी भी और विफलता को रोकने के लिए माननीय न्यायालय के तत्काल हस्तक्षेप की मांग करती है।”

    बता दें, दोनों पक्षकारों के बीच 2003 में विवाह संपन्न हुआ था। कथित दहेज की मांग के कारण याचिकाकर्ता पत्नी को 2004 में उसके बच्चों के बिना उसके ससुराल से जबरन निकाल दिया गया। इसके बाद उसने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498ए (क्रूरता), 504, 506 (आपराधिक धमकी), 323 के साथ दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3/4 के तहत FIR दर्ज कराई। अभियुक्तों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां उन्हें मुकदमे की समाप्ति तक गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान की गई, बशर्ते कि वे न्यायालय द्वारा निर्धारित मुआवज़ा का भुगतान करें।

    आरोप पत्र दाखिल होने के बाद मेरठ के अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा सम्मन जारी किए गए। हालांकि, 2005 में हाईकोर्ट ने इन पर रोक लगा दी, जिसे अंततः 2010 में हटा दिया गया।

    अभियोजन पक्ष के अभाव में समन के खिलाफ मामला अंततः खारिज कर दिया गया। इस बीच अभियुक्तों के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किए गए। केवल अभियुक्तों के एक आवेदन के आधार पर, गैर-जमानती वारंट वापस ले लिए गए।

    न्यायालय ने पाया कि 21 वर्षों से मामले में कोई प्रगति नहीं हुई। यहां तक कि अभियुक्तों को पुलिस रिपोर्ट और दस्तावेज़ भी नहीं दिए गए।

    याचिकाकर्ता-पत्नी ने दलील दी कि अभियुक्त प्रभावशाली व्यक्ति हैं और जिला न्यायपालिका और राजनीति में लोगों से जुड़े हैं। इसलिए उनका मामला नहीं लिया जा रहा है और उन्हें कार्यस्थल पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है।

    न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए मामले में तत्काल हस्तक्षेप आवश्यक है। निचली अदालत के रिकॉर्ड का अवलोकन करते हुए न्यायालय ने पाया कि अभियुक्त मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए 35 बार अदालत के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ।

    कोर्ट ने कहा,

    "आपराधिक न्यायशास्त्र के प्रमुख सिद्धांतों में से एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और शीघ्र सुनवाई का अधिकार है। जब इस अधिकार का सम्मान नहीं किया जाता तो वादी अनिवार्य रूप से न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास खो देते हैं। यदि निचली अदालत बिना किसी उचित कारण के गवाहों को छूट देती रहती है और उन्हें उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं करती है तो सुनवाई प्रक्रिया की अखंडता ही खतरे में पड़ सकती है।"

    याचिका स्वीकार करते हुए न्यायालय ने निर्देश दिया कि निचली अदालत किसी भी पक्ष को अनावश्यक स्थगन दिए बिना कारण दर्ज करके दैनिक और/या साप्ताहिक आधार पर सुनवाई जारी रखे और उसे शीघ्रता से निपटाए।

    हाईकोर्ट ने कहा,

    "प्रार्थना खंड में उल्लिखित दोनों मामलों के अभियुक्तों को अगली निर्धारित तिथि पर और उसके बाद सभी क्रमिक तिथियों पर निचली अदालत के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिया जाता है। पर्याप्त और न्यायोचित कारण के बिना उपस्थित न होने की स्थिति में निचली अदालत व्यक्तिगत छूट के किसी भी आवेदन पर विचार करते समय विस्तृत कारण दर्ज करेगी। इसके अलावा, अदालत प्रत्येक आगामी आदेश में एक रिकॉर्ड रखेगी, जिसमें यह दर्शाया जाएगा कि कितनी बार व्यक्तिगत छूट के ऐसे आवेदन दायर किए गए हैं और उनमें उल्लिखित आधार क्या हैं।"

    अगला आदेश यह भी कहा गया कि यदि अभियुक्त बिना किसी वैध कारण के उपस्थित नहीं होते हैं तो उनके जमानत बांड जब्त कर लिए जाएंगे, उनकी गिरफ्तारी के लिए गैर-जमानती वारंट जारी किए जाएंगे और उन्हें हिरासत में लेकर बिना किसी और देरी के मुकदमे का सामना करने के लिए निचली अदालत के समक्ष पेश किया जाएगा।

    न्यायालय ने अंत में कहा कि ये निर्देश इसी विशेष मामले में जारी किए जा रहे हैं और इन्हें बाध्यकारी मिसाल नहीं माना जाना चाहिए।

    केस टाइटल: सुधा अग्रवाल उर्फ सुधा गर्ग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 10 अन्य

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