इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दहेज हत्या के कष्टप्रद मामले में अपील के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना की, 2 लाख मुआवज़ा देने का आदेश दिया
Amir Ahmad
8 Aug 2025 12:09 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक व्यक्ति को 2 लाख रुपये का मुआवज़ा देने का आदेश दिया, जिसे दहेज हत्या के मामले में अदालत द्वारा सम्मानपूर्वक बरी किए जाने के बाद राज्य की अपील में कष्टप्रद आपराधिक अभियोजन का सामना करना पड़ा।
जस्टिस सिद्धार्थ और जस्टिस अवनीश सक्सेना की खंडपीठ ने कहा,
"हमारा दृढ़ मत है कि बरी होने की स्थिति में यह अपील प्रस्तुत करने के लिए लोक अभियोजक को निर्देश देने से पहले राज्य ने अपनी न्यायिक समझ का प्रयोग नहीं किया। इस तथ्य पर विचार किए बिना कि अभियुक्त, जो एक आपराधिक मामले में अपनी निर्दोषता के दोहरे अनुमान का आनंद ले रहा है, उसका जीवन और स्वतंत्रता दो बार खतरे में पड़ चुकी है। इसलिए उसे उचित मुआवज़ा दिया जाना चाहिए।"
प्रतिवादी की पत्नी ने कथित दहेज की मांग और पति द्वारा कथित बच्चे को अपना मानने से इनकार करने के कारण फांसी लगा ली थी। उसके शव के पास एक सुसाइड नोट मिला और पोस्टमार्टम में पता चला कि उसकी मौत पंखे से लटकने के कारण हुई थी।
प्रतिवादी-अभियुक्त पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498-ए, 304-बी, 504, 506 और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3, 4 के तहत मुकदमा चलाया गया। निचली अदालत ने उसे सभी आरोपों से बाइज्जत बरी कर दिया। राज्य सरकार ने निचली अदालत के आदेश के खिलाफ इस आधार पर अपील दायर की कि साक्ष्यों पर उचित विचार नहीं किया गया और बरी करने का फैसला अनुमानों और अटकलों पर आधारित था।
यह दलील दी गई कि दहेज की मांग से पहले शादी के 7 साल के भीतर हुई अप्राकृतिक मौत के बारे में गवाहों के बयानों को निचली अदालत ने नजरअंदाज कर दिया।
हाईकोर्ट ने माना कि जहां अभियुक्त को बरी करने का फैसला उसके पक्ष में निर्दोषता की धारणा पर आधारित हो वहां अपीलीय अदालतें हस्तक्षेप करने से हिचकिचाती हैं। रमेश बाबूलाल दोशी बनाम गुजरात राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि दोषमुक्ति को चुनौती देने के मामले में साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन करने से पहले निचली अदालत के आदेश में विकृतियों को देखा जाना चाहिए। साधु शरण सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दोषमुक्ति के आदेश में हस्तक्षेप करने के लिए विकृतियों का निर्धारण किया जाना चाहिए, क्योंकि दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील से भिन्न स्तर की होती है।
बशीरा बेगम बनाम मोहम्मद इब्राहिम और कली राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि जहां दो दृष्टिकोण संभव हों, दोषसिद्धि और दूसरा दोषमुक्ति तो बाद वाले को विशेष रूप से तब लिया जाना चाहिए, जब अभियुक्त के अपराध को सिद्ध करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर विचार किया जा रहा हो।
यह देखते हुए कि सुसाइड नोट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि आत्महत्या दहेज की मांग के कारण नहीं, बल्कि पढ़ाई के तनाव के कारण हुई थी, न्यायालय ने प्रतिवादी को सम्मानजनक दोषमुक्ति के विरुद्ध सरकार की अपील को खारिज कर दिया।
न्यायालय ने पाया कि CrPC की धारा 378/BNSS की 419 के तहत बरी किए जाने के विरुद्ध अपील अभिलेख में उपलब्ध साक्ष्यों और निचली अदालत के निष्कर्षों पर विचार किए बिना और उनका मूल्यांकन किए बिना दायर की जा रही थी।
न्यायापलय ने कहा,
“CrPC की धारा 378 (BNSS की 419) के प्रावधान को कानून बनाते समय विधायिका इसे दोषसिद्धि के विरुद्ध एक अपवाद मानती है, न कि एक नियम के रूप में। इसलिए CrPC की धारा 378 की उप-धारा (1)(क), (1)(ख) में जानबूझकर 'निर्देश' शब्द शामिल किया गया ताकि सरकारी अभियोजक को बरी किए जाने के विरुद्ध अपील दायर करने का 'निर्देश' देने की इस शक्ति का प्रयोग संयम और सावधानी से किया जा सके। इससे पता चलता है कि इस निर्देश का प्रयोग बिना सोचे-समझे और सरसरी तौर पर नहीं किया जा सकता।”
इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि जांच अधिकारी ने सुसाइड नोट और गवाहों की अस्थिर अविश्वसनीय गवाही, दोनों पर भरोसा किया और पत्नी की पहली शादी के तथ्य पर विचार नहीं किया। निचली अदालत द्वारा साक्ष्यों पर विचार करने और विवेक का प्रयोग करने की सराहना करते हुए न्यायालय ने कहा कि यह बेहद निराशाजनक है कि राज्य ने बरी करने के फैसले को चुनौती दी।
राजेश प्रसाद बनाम बिहार राज्य और अन्य मामलों पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने कहा कि सरकार का यह कर्तव्य है कि वह बरी करने के विरुद्ध अपील के दायरे का पालन करे जैसा कि न्यायालयों द्वारा समय-समय पर तैयार किया जाता है और बरी करने के आदेश को नियमित रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती।
न्यायालय ने आगे कहा,
“राज्य सरकार लोक अभियोजक को अपील प्रस्तुत करने का निर्देश देने से पहले स्पष्ट शब्दों में यह बताने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है कि उसके निर्देश में पर्याप्त और ठोस कारण, अच्छे और पर्याप्त आधार, अत्यंत प्रबल परिस्थितियां, विकृत निष्कर्ष और स्पष्ट त्रुटि है, जिसके कारण अपील की जानी चाहिए। केवल इन वाक्यांशों को लिखना पर्याप्त नहीं है, बल्कि CrPC की धारा 378(3)/BNSS की धारा 419(3) के तहत अपील की अनुमति के लिए आवेदन में इसे स्पष्ट और सुस्पष्ट किया जाना चाहिए।”
यह मानते हुए कि प्रतिवादी के जीवन और स्वतंत्रता को बिना उचित विचार किए दो बार खतरे में डाला गया, न्यायालय ने उसे 2 लाख रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया।
केस टाइटल: उत्तर प्रदेश राज्य बनाम धीरेंद्र कुमार पुत्र नंद किशोर जायसवाल

