कर्मचारियों पर नियंत्रण खोना कदाचार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जेल अधीक्षक को राहत दी

Amir Ahmad

15 April 2025 5:01 PM IST

  • कर्मचारियों पर नियंत्रण खोना कदाचार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जेल अधीक्षक को राहत दी

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश रद्द करते हुए जेल अधीक्षक की पेंशन से तीन वर्षों तक 10% कटौती को अनुचित ठहराया।

    कोर्ट ने कहा कि कदाचार (Misconduct) और लापरवाही या निष्क्रियता (Carelessness or Inaction) अलग-अलग चीजें हैं और इस मामले में उत्तरदायी अधिकारी के खिलाफ नियम 351-A के तहत कोई सज़ा नहीं दी जा सकती थी।

    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस नियम के तहत केवल गंभीर कदाचार या राजकोष को वित्तीय नुकसान पहुँचाने की स्थिति में ही पेंशन रोकी जा सकती है न कि केवल अधीनस्थ अधिकारियों पर नियंत्रण न रहने की वजह से कैदी भागने की घटना पर।

    जस्टिस नीरज तिवारी ने आदेश देते हुए कहा,

    “यह स्पष्ट है कि जेल की सुरक्षा का मुख्य उत्तरदायित्व अधीनस्थ अधिकारियों पर है और जेल अधीक्षक की भूमिका केवल पर्यवेक्षण (Supervisory) की होती है। आरोपित अन्य कर्मचारी, जैसे जेलर और डिप्टी जेलर, उन आदेशों को लागू करने के लिए अधिक जिम्मेदार हैं, जो याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए।”

    मामले की पृष्ठभूमि

    याचिकाकर्ता को 1994 में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा डिप्टी जेलर के पद पर नियुक्त किया गया। पदोन्नति के बाद उन्होंने 01.07.2017 को जेल अधीक्षक, इटावा के रूप में कार्यभार संभाला।

    बाद में उन पर आरोप लगा कि दो सजायाफ्ता कैदी जेल से भाग गए। इस संबंध में 11.11.2019 को उनके खिलाफ आरोपपत्र जारी कर जांच शुरू की गई।

    आरोपपत्र में कहा गया कि याचिकाकर्ता का अधीनस्थ अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं था, जिस कारण वे आवश्यक सुरक्षा उपाय नहीं अपना पाए और दो कैदी जेल से भाग निकले।

    जांच रिपोर्ट 30.07.2020 को प्रस्तुत की गई।

    याचिकाकर्ता 30.11.2021 को रिटायर हो गए लेकिन नियम 351-A के तहत अनुमति लेकर जांच जारी रही। विभागीय कार्यवाही के बाद उनके पेंशन का 15% हिस्सा काटने का आदेश पारित किया गया, जबकि जेलर और दो डिप्टी जेलरों को केवल प्रत्यायोजन (Censure) की हल्की सज़ा दी गई।

    इस आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने 11.01.2022 को हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। सुनवाई के दौरान राज्य ने विवादित आदेश को वापस ले लिया और मामले को उत्तरदाता संख्या 3 को दोबारा विचार हेतु भेजा, जिसके बाद पहली याचिका समाप्त कर दी गई।

    बाद में याचिकाकर्ता ने एक और याचिका दाखिल की, जिसे स्वीकार करते हुए कोर्ट ने 6 हफ्तों में निर्णय देने का निर्देश दिया।

    21.06.2023 को पारित आदेश में याचिकाकर्ता की पेंशन से 10% राशि तीन वर्षों के लिए काटने का निर्देश दिया गया। इस आदेश को फिर से हाईकोर्ट में चुनौती दी गई।

    हाईकोर्ट का निर्णय

    कोर्ट ने माना कि जेल की स्थिति खराब थी, सीसीटीवी कैमरे काम नहीं कर रहे थे और सुरक्षा कर्मचारियों की संख्या कम थी। याचिकाकर्ता ने बार-बार पत्र लिखकर इस स्थिति की जानकारी दी थी लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

    कोर्ट ने कहा,

    “अतः याचिकाकर्ता को किसी लापरवाही या कर्तव्यच्युति के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, विशेषकर जब उसने बार-बार जेल की स्थिति सुधारने के लिए पत्र लिखे हों, जिन्हें नजरअंदाज किया गया।”

    कोर्ट ने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल के अनुसार, जेलर और डिप्टी जेलर अधिक जिम्मेदार होते हैं, लेकिन उन्हें हल्की सज़ा और याचिकाकर्ता को सख्त सज़ा देना भेदभावपूर्ण था।

    कोर्ट ने मामले में यह भी स्पष्ट किया कि अधीनस्थों पर नियंत्रण न रख पाना नियम 351-A के तहत गंभीर कदाचार की श्रेणी में नहीं आता।

    कोर्ट ने सुरेंद्र पांडे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे मामलों में पेंशन रोके जाने का आधार नहीं बनता।

    अतः कोर्ट ने विवादित आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को कटौती की गई पूरी राशि 9% ब्याज के साथ तथा सभी अनुपरिणामी लाभ (Consequential Benefits) सहित वापस दी जाए।

    केस टाइटल: राज किशोर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, प्रमुख सचिव, जेल प्रशासन एवं सुधार विभाग, लखनऊ और अन्य

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