सतेंद्र कुमार अंतिल फैसले की गलत व्याख्या से जमानत में भ्रम: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जताई चिंता
Amir Ahmad
12 Nov 2025 12:31 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सोमवार को कहा कि ज़िला कोर्ट और एडवोकेट कभी-कभी सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध निर्णय सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2021) की गलत व्याख्या कर देते हैं जिससे जमानत संबंधी कार्यवाही में भ्रम पैदा होता है।
जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की सिंगल बेंच ने स्पष्ट किया कि सतेंद्र कुमार अंतिल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशा-निर्देश केवल उन परिस्थितियों में लागू होते हैं, जब पुलिस द्वारा आरोपपत्र (चार्जशीट) दाखिल किया जा चुका हो। अदालत ने कहा कि यह आदेश उन मामलों पर लागू नहीं होता जिनमें जांच अभी जारी है और आरोपपत्र दाखिल नहीं हुआ।
जस्टिस देशवाल ने कहा,
“सुप्रीम कोर्ट ने चार श्रेणियों के मामलों में यह निर्देश दिए कि फाइनल पुलिस रिपोर्ट दाखिल होने के बाद ही आरोपी की जमानत याचिका पर विचार किया जाए। यह निर्देश जांच के दौरान दाखिल जमानत अर्जियों पर लागू नहीं होते।”
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि इस आदेश की प्रति न्यायिक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान (JTRI) के निदेशक को भेजी जाए ताकि न्यायिक अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट के 2022 के फैसले की सही व्याख्या से अवगत कराया जा सके।
यह टिप्पणी अदालत ने ऐसे आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिस पर हत्या के प्रयास की कोशिश (IPC की धारा 308) का आरोप है। सुनवाई के दौरान अदालत ने पाया कि मामले में मेडिकल और पुलिस रिकॉर्ड में गंभीर विसंगतियां हैं।
सीटी स्कैन रिपोर्ट में पीड़ित के सिर में गंभीर फ्रैक्चर पाया गया था जबकि एक महीने बाद कराए गए एक्स-रे में किसी प्रकार की हड्डी टूटने की पुष्टि नहीं हुई। अदालत ने इस विरोधाभास को पूर्णतः असंभव बताया और पूछा कि जब चोट की गंभीरता हत्या के प्रयास की श्रेणी में आती थी, तो विवेचक ने केवल 308 आईपीसी में चार्जशीट क्यों दाखिल की।
अदालत ने कहा कि विवेचक ने ग़लत एक्स-रे रिपोर्ट के आधार पर जल्दबाज़ी में चार्जशीट दाखिल कर दी, जो पहले की सीटी स्कैन रिपोर्ट के विपरीत थी।
इस पर सख्त रुख अपनाते हुए अदालत ने फिरोजाबाद के सीनियर पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिया कि विवेचक की भूमिका की जांच की जाए और यदि लापरवाही पाई जाए तो उचित कार्रवाई की जाए। साथ ही मुख्य चिकित्साधिकारी को यह भी जांच करने को कहा गया कि क्या एक्स-रे रिपोर्ट जानबूझकर इस तरह तैयार की गई ताकि पीड़ित की खोपड़ी में फ्रैक्चर न दिखे।
जस्टिस देशवाल ने यह भी माना कि जांच करने वाले डॉक्टर की भूमिका में गंभीर लापरवाही रही। हालांकि उनके रिटायरमेंट होने के कारण दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई। फिर भी अदालत ने उन पर 10,000 का जुर्माना लगाया, जो जिला विधिक सेवा प्राधिकरण फिरोजाबाद में जमा कराने का निर्देश दिया गया।
अदालत ने कहा कि आपराधिक न्याय व्यवस्था के संचालन में शामिल सभी पुलिस अधिकारी और सार्वजनिक सेवक निष्पक्षता और ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करें, क्योंकि किसी भी सार्वजनिक सेवक की लापरवाही या पक्षपात जनता के राज्य के प्रति विश्वास को कमजोर कर सकती है और संविधान के उद्देश्यों को नुकसान पहुंचा सकती है।
जस्टिस देशवाल ने सेशन जज फिरोजाबाद, सुनील कुमार सिंह की भी सराहना की, जिन्होंने पहले आरोपी की जमानत अर्जी खारिज की थी यह मानते हुए कि अपराध की गंभीरता सात वर्ष से अधिक दंडनीय है। उन्होंने सीटी स्कैन रिपोर्ट समेत साक्ष्यों का विचार कर सही दृष्टिकोण अपनाया।
अदालत ने अंततः आरोपी को यह देखते हुए जमानत दे दी कि आरोपपत्र दाखिल हो चुका है, आरोपी का कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और आगे पुलिस हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता नहीं है।

