इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1982 के हत्याकांड में दोषसिद्धि का फैसला वापस लेने की 30 से अधिक वर्षों से फरार आरोपी की याचिका खारिज की
Amir Ahmad
3 Oct 2025 12:17 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में 1982 के हत्याकांड के संबंध में आरोपी (हाईकोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता) की दोषसिद्धि की पुष्टि करने वाले इस वर्ष मार्च में पारित अपने फैसले को वापस लेने की मांग वाली याचिका खारिज की।
जस्टिस विवेक कुमार बिड़ला और जस्टिस प्रवीण कुमार गिरि की खंडपीठ ने कहा कि CrPC की धारा 362 के तहत इस आवेदन पर रोक है, जो आपराधिक अदालतों को लिपिकीय या अंकगणितीय त्रुटियों को ठीक करने के अलावा हस्ताक्षरित निर्णयों की समीक्षा या परिवर्तन करने से रोकती है।
अदालत ने आरोपी-अपीलकर्ता के आचरण पर भी विचार किया, जिसने अदालत में अपना पक्ष रखने के कई अवसर दिए जाने के बावजूद 30 से अधिक वर्षों से अदालती कार्यवाही से बचने का प्रयास किया।
संक्षेप में मामला
अपीलकर्ता का तर्क था कि आक्षेपित निर्णय (उसकी दोषसिद्धि की पुष्टि) उसकी अनुपस्थिति में पारित किया गया और उसे भगोड़ा माना गया, जबकि अपील स्वीकार कर ली गई थी और अपीलकर्ता को पहले ही ज़मानत मिल चुकी थी।
यह दलील दी गई कि उसके मूल वकील का बहुत पहले निधन हो चुका है। परिणामस्वरूप अपीलकर्ता को उसकी दोषसिद्धि को चुनौती देने वाली अपील की सुनवाई के बारे में सूचित नहीं किया जा सका।
याचिका में कहा गया कि यद्यपि उसके विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की गई। फिर भी वह अब अपने गांव में नहीं रह रहा था और पंजाब में अपने भाई के साथ रह रहा था।
यह भी दलील दी गई कि अपीलकर्ता को इस निर्णय के बारे में 30 मई, 2025 को ही पता चला, जिसके बाद वह 2 जून, 2025 को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट इटावा के समक्ष पेश हुआ और तब से जेल में है।
इस आधार पर उसके वकील ने तर्क दिया कि आदेश एकपक्षीय है और इसे वापस लिया जाना चाहिए।
धनंजय राय @ गुड्डू राय बनाम बिहार राज्य 2022 लाइव लॉ (एससी) 597 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा किया गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दोषसिद्धि के विरुद्ध पहले से स्वीकार की गई अपील को इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि अभियुक्त फरार है।
दूसरी ओर एडिशनल सरकारी वकील ने उसकी वापसी याचिका का विरोध किया, क्योंकि उनका तर्क था कि मार्च, 2025 का निर्णय चूक के कारण खारिज नहीं किया गया, बल्कि साक्ष्यों के पुनर्मूल्यांकन के बाद गुण-दोष के आधार पर दिया गया निर्णय था।
यह बताया गया कि अदालत ने पहले ही दर्ज कर लिया था कि अपीलकर्ता पिछले 30 वर्षों से लापता है और इटावा के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की कई रिपोर्टों ने भी पुष्टि की है कि प्रयासों के बावजूद अपीलकर्ता और उसके जमानतदारों का पता नहीं लगाया जा सका है।
आरंभ में न्यायालय ने विवादित निर्णय का अवलोकन किया और पाया कि अपीलकर्ता को उपस्थित होने का पर्याप्त अवसर दिया गया लेकिन उसने जानबूझकर तीन दशकों से अधिक समय तक कार्यवाही से परहेज किया।
अदालत ने कहा कि उसके खिलाफ गैर-जमानती वारंट भी जारी किए गए थे फिर भी वह फरार रहा।
अदालत ने आगे कहा,
"अपीलकर्ता ने ऐसा कोई दस्तावेज़ संलग्न नहीं किया, जिससे पता चले कि वह अपने घर से बाहर रह रहा है और वह कभी अपने घर नहीं गया। उसके परिवार के सदस्यों ने उसे कोई सूचना नहीं दी और वह पिछले तीस वर्षों से अदालती कार्यवाही से बच रहा था। आपराधिक अपील नंबर 1876/1983 के आदेश पत्र से पता चलता है कि आवेदक/अपीलकर्ता को कई अवसर दिए गए। उसके खिलाफ गैर-जमानती वारंट भी जारी किया गया, लेकिन वह अदालत में पेश नहीं हुआ और उसने यह गलत धारणा दी कि उसके ठिकाने के बारे में किसी को पता नहीं है।"
इसके अलावा, अदालत ने पाया कि धनंजय राय के मामले (सुप्रा) के विपरीत जहां अभियोजन न करने के कारण अपील खारिज कर दी गई, वर्तमान मामले में रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों का पूरी तरह से पुनर्मूल्यांकन करने के बाद निर्णय सुनाया गया।
उन्होंने यह भी कहा कि ज़मानत पर रिहा होने के बावजूद अपीलकर्ता ने फरार होने का विकल्प चुना और अपना पक्ष रखने के लिए उपस्थित नहीं हुआ। इसलिए हाईकोर्ट ने गुण-दोष के आधार पर अपील पर विचार और निर्णय किया।
हाईकोर्ट ने विक्रम बख्शी एवं अन्य बनाम आर.पी. खोसला एवं अन्य 2025 लाइवलॉ (एससी) 844 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का भी हवाला दिया, जिसमें यह दोहराया गया कि CrPC की धारा 362 आपराधिक न्यायालयों को हस्ताक्षरित निर्णयों की समीक्षा या परिवर्तन करने से रोकती है, सिवाय लिपिकीय या अंकगणितीय गलतियों को ठीक करने के।
खंडपीठ ने कहा कि CrPC की धारा 482 (अब BNSS की धारा 528) के तहत निहित शक्तियों का उपयोग इस प्रतिबंध को दरकिनार करने के लिए नहीं किया जा सकता।
इस पृष्ठभूमि में रिकॉल आवेदन सुनवाई योग्य न मानते हुए न्यायालय ने इस प्रकार टिप्पणी की,
"मामले के वर्तमान तथ्यों और परिस्थितियों में BNSS की धारा 528 के अंतर्गत दायर यह रिकॉल आवेदन विलंब क्षमा आवेदन के साथ सुनवाई योग्य नहीं है, क्योंकि यह CrPC की धारा 362 (BNSS की धारा 403) द्वारा वर्जित है।"

