जज पर बेईमानी और 'प्रोबिटी की कमी' के आरोप लगाने वाले वकील को हाईकोर्ट ने राहत देने से किया इनकार
Amir Ahmad
11 Nov 2025 1:32 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक वकील की अर्जी खारिज की, जिसमें उसने अदालत पर पक्षपात, बेईमानी और प्रोबिटी की कमी जैसे गंभीर आरोप लगाने के बाद शुरू की गई आपराधिक अवमानना कार्यवाही को वापस लेने और आदेश को रद्द करने की मांग की थी।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही वकील की बिना शर्त माफी स्वीकार कर ली गई लेकिन इससे उसकी अवमानना समाप्त नहीं होती और मामला अब भी डिवीजन बेंच के पास विचाराधीन रहेगा।
जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने कहा कि यदि इस प्रकार के वापस बुलाने की याचिका आवेदन स्वीकार किए गए तो अत्यंत गलत परंपरा स्थापित होगी और वकील अपने हित में बेंच बदलवाने के लिए ऐसे ही आरोप लगाने की रणनीति अपनाने लगेंगे।
यह पूरा विवाद एक हत्या आरोपी की जमानत अर्जी की सुनवाई के दौरान खड़ा हुआ। अप्रैल, 2024 से मामला लंबित था क्योंकि सूचनाकर्ता पक्ष के वकील लगातार स्थगन मांगते रहे।
16 मई को भी वकील ने तैयारी का अभाव बताते हुए समय मांगा और कोर्ट ने लिखित तर्क दाखिल करने का अवसर देकर आदेश सुरक्षित कर लिया।
लेकिन अगले दिन वकील ने जो लिखित प्रतिवेदन दाखिल किया, उसमें जमानत से जुड़े कोई कानूनी तर्क नहीं थे बल्कि कोर्ट पर पक्षपात और बेईमान होने के आरोप लगाए गए। वकील ने यहां तक लिख दिया कि उन्हें बेंच पर भरोसा नहीं है।
उन्होंने जज को कथित तौर पर यह कहते हुए उद्धृत किया,
“यह बेवकूफी की बहस है। यह बेवकूफी की बहस सुप्रीम कोर्ट में चलती है, हाईकोर्ट में नहीं।”
वकील ने अपनी लिखित सामग्री चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस हाईकोर्ट को भेजने की मांग भी की।
28 मई को जस्टिस सिद्धार्थ ने उक्त लिखित प्रतिवेदन को निंदनीय माना और कहा कि यह आपराधिक अवमानना का स्पष्ट मामला है। अदालत ने मामले को Contempt of Courts Act की धारा 15 के तहत डिवीजन बेंच को संदर्भित कर दिया और उत्तर प्रदेश बार काउंसिल को भी वकील के आचरण की जांच करने का निर्देश दिया।
इसके बाद जब अवमानना नोटिस जारी हुए तो वकील दोबारा उसी पीठ के सामने आ गया और आदेश वापस लेने लिखित प्रति वेदन लौटाने तथा अवमानना कार्यवाही समाप्त करने की विनती करते हुए एक वापस बुलाने की याचिका अर्जी दाखिल कर दी। उसने बिना शर्त माफी भी मांगी।
उधर इसी अर्जी के लंबित होने का हवाला देकर वकील ने समन्वय पीठ के सामने जमानत मामले की सुनवाई भी टलवा दी।
31 अक्टूबर के निर्णय में अदालत ने दो टूक कहा कि की अनुमति देने से न्यायिक प्रक्रिया की गंभीरता कम होगी और इससे अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलेगा। अदालत ने कहा कि वकील के आचरण से जमानत सुनवाई पाँच महीने तक ठप रही और उसने समन्वय पीठ के समक्ष हंगामा कर सुनवाई टालने की कोशिश की।
कोर्ट ने माना कि Contempt Act की धारा 12 के तहत माफी स्वीकार हो जाने मात्र से अवमानना स्वतः समाप्त नहीं होती बल्कि सजा देना कम करना या न देना पूरी तरह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।
जस्टिस सिद्धार्थ ने कहा कि वकील ने अदालत की गरिमा को नुकसान पहुँचाया है और उसकी टिप्पणी अदालत को अपमानित करना करने वाली थी। इसलिए अदालत केवल माफी स्वीकार कर रही है लेकिन आदेश को वापस लेने का कोई आधार नहीं है।
अंततः अदालत ने साफ किया,
लिखित प्रतिवेदन वापस नहीं होगा। इसके साथ ही 28 मई का आदेश वापस नहीं लिया जाएगा और आपराधिक अवमानना का संदर्भ और बार काउंसिल जांच पूरी तरह प्रभावी रहेगा।
कोर्ट ने कहा,
“जज के प्रति व्यक्तिगत भावना से नहीं बल्कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा देश की स्थिरता के लिए आवश्यक है।”

