इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बलात्कार मामले में 4 लोगों को बरी करने का फैसला बरकरार रखा
Amir Ahmad
22 Oct 2024 4:27 PM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में वर्ष 2009 के एक कथित बलात्कार मामले के संबंध में 4 लोगों को बरी करने के फैसले को बरकरार रखा, क्योंकि यह ट्रायल कोर्ट के इस दृष्टिकोण से सहमत था कि पीड़िता सहमति देने वाला पक्ष प्रतीत होता है।
जस्टिस राजीव गुप्ता और जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की खंडपीठ ने कहा कि यह स्थापित सिद्धांत है कि अपीलीय शक्तियों का प्रयोग करते समय भले ही रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य के आधार पर दो उचित विचार/निष्कर्ष संभव हों, अपीलीय न्यायालय को ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज किए गए बरी करने के निष्कर्ष को बाधित नहीं करना चाहिए।
इस संबंध में न्यायालय ने शैलेंद्र राजदेव पासवान बनाम गुजरात राज्य (2020) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि यदि अपीलीय न्यायालय ट्रायल कोर्ट के बरी करने के आदेश को पलट देता है तो उसे अभियुक्त के पक्ष में निर्दोषता की धारणा और इस सिद्धांत पर उचित वजन और विचार देना चाहिए कि इस तरह की धारणा ट्रायल कोर्ट द्वारा पुष्ट और मजबूत की गई।
इसके मद्देनजर अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों ट्रायल के दौरान साबित किए गए दस्तावेजों पक्षों के वकीलों द्वारा पेश की गई दलीलों और ट्रायल कोर्ट के फैसले की सावधानीपूर्वक जांच करने पर न्यायालय को तत्काल मामले में अपील करने की अनुमति देने का कोई अच्छा आधार नहीं मिला, जिसे तदनुसार अस्वीकार कर दिया जाता है।
परिणामस्वरूप सरकार की अपील को प्रवेश के चरण में ही खारिज कर दिया गया।
केस ब्रीफ
मामले के तथ्यों के अनुसार 22 अप्रैल 2009 को वास्तविक शिकायतकर्ता मुन्ना लाल ने कानपुर देहात के एक पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई कि उनकी नाबालिग बेटी को 7 अप्रैल 2009 को आरोपी बलवान सिंह और अखिलेश ने अगवा कर लिया।
उसकी तलाश करने के बाद शिकायतकर्ता को अखिलेश नामक व्यक्ति से पता चला कि उसके भाई सिया राम और उसके बहनोई ने उसकी बेटी को अगवा कर लिया। उसकी सुरक्षा के डर से उसने पुलिस को घटना की सूचना दी।
पुलिस द्वारा की गई तलाश के बाद पीड़िता को आखिरकार 3 मई 2009 को आरोपी बलवान सिंह के साथ रेलवे स्टेशन के पास से बरामद किया गया। आरोपी बलवान को हिरासत में ले लिया गया और पीड़िता को मेडिकल जांच के लिए भेज दिया गया।
मेडिकल जांच में कोई चोट नहीं पाई गई। हालांकि पीड़िता की योनिच्छद फटी हुई पाई गई और रेडियोलॉजिकल मूल्यांकन के आधार पर उसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक पाई गई। महिला डॉक्टर की राय में पीड़िता को यौन संबंध बनाने की आदत थी और बलात्कार के बारे में कोई निश्चित राय नहीं दी गई।
आरोपी-अपीलकर्ताओं [बलवान सिंह, अखिलेश, सिया राम और विमल चंद्र तिवारी] के खिलाफ धारा 376 और 366 आईपीसी के तहत आरोप तय किए गए।
आरोपी को बरी करने वाले अपने फैसले में ट्रायल कोर्ट ने अपने सामने पेश किए गए सबूतों के आधार पर पाया कि पीड़िता, जो कि बालिग है, स्वेच्छा से आरोपी के साथ घर से चली गई। मदद मांगने के अवसर मिलने के बावजूद उसने किसी को सचेत करने या अपने कथित अपहरण के बारे में अलार्म बजाने का कोई प्रयास नहीं किया। इससे यह साबित हुआ कि वह स्वेच्छा से आरोपी के साथ गई थी।
यह पाया गया कि उसे न तो आरोपी ने उसकी इच्छा के विरुद्ध ले जाया था और न ही उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके साथ यौन संबंध बनाए गए। इसलिए आरोपियों को आरोपों से बरी कर दिया गया।
अपने बरी होने के फैसले को चुनौती देते हुए राज्य ने इस आधार पर हाईकोर्ट में याचिका दायर की कि निचली अदालत ने सुनवाई के दौरान प्रस्तुत साक्ष्य को गलत पढ़ा, क्योंकि तथ्यों के दोनों गवाहों, पीडब्लू 1 (सूचनादाता/शिकायतकर्ता), पीड़िता के पिता और पीडब्लू 2 (पीड़िता) ने आरोपी प्रतिवादियों के अपराध को पूरी तरह साबित कर दिया था।
यह भी तर्क दिया गया कि पीड़िता ने अपने साक्ष्य में स्पष्ट रूप से कहा कि आवेदक ने बुरा काम किया, जिसका तात्पर्य है कि उसके साथ बलात्कार किया गया। इस प्रकार यह प्रार्थना की गई कि उनकी बरी को रद्द किया जाए।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां
इस पृष्ठभूमि के विरुद्ध जब खंडपीठ ने मामले के तथ्यों की जांच की तो उसने पाया कि घटना के 15 दिन बाद एफआईआर दर्ज की गई और अभियोजन पक्ष ने इस अत्यधिक देरी को ठीक से स्पष्ट नहीं किया।
पीठ ने यह भी उल्लेख किया कि इंफॉर्मेंट (पीडब्लू-1) प्रत्यक्षदर्शी नहीं था और मुख्य गवाह रोहित (पीड़िता का भाई) था लेकिन अभियोजन पक्ष को ही ज्ञात कारणों से मुकदमे के दौरान उससे पूछताछ नहीं की गई।
अदालत ने आगे उल्लेख किया कि पीड़िता अपनी गवाही के अनुसार 25-26 दिनों तक आरोपी बलवान के साथ रही। फिर भी उसने यात्रा के दौरान राहगीरों से सहायता मांगने के लिए कभी कोई शोर नहीं मचाया या आरोपी के परिवार के सदस्यों की पत्नी से शिकायत नहीं की, जिनके घर में उसे कथित रूप से बंधक बनाकर रखा गया था।
न्यायालय ने इस तथ्य पर भी विचार किया कि उसकी मेडिकल-लीगल जांच रिपोर्ट यौन उत्पीड़न के आरोपों की पुष्टि नहीं करती, क्योंकि उसके शरीर पर बाहरी या आंतरिक चोट का कोई निशान नहीं पाया गया। उसकी मेडिकल आयु निर्धारण रिपोर्ट में उसकी आयु लगभग 18 वर्ष से अधिक पाई गई।
इसे देखते हुए न्यायालय ने राज्य की अपील को प्रवेश चरण में ही खारिज कर दिया, क्योंकि उसे ट्रायल कोर्ट के फैसले पर संदेह करने का कोई कारण नहीं मिला।
केस टाइटल - उत्तर प्रदेश राज्य बनाम बलवान सिंह और 3 अन्य