1984 सिख विरोधी दंगे : दिल्ली हाईकोर्ट ने कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई [निर्णय पढ़ें]
LiveLaw News Network
17 Dec 2018 5:42 PM IST
दिल्ली हाईकोर्ट ने सोमवार को 1984 के सिख विरोधी दंगे में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को दोषी ठहराते हुए उसे उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई है। न्यायमूर्ति एस मुरलीधर और न्यायमूर्ति विनोद गोयल की पीठ ने निचली अदालत के फ़ैसले को ख़ारिज करते हुए कहा, “पीड़ितों को यह आश्वासन देना ज़रूरी है कि चुनौतियों के बावजूद, सच जीत की होगी।”
सज्जन कुमार को उम्र क़ैद की सज़ा दी गई है और 31 दिसम्बर 2018 तक आत्मसमर्पण करने को कहा गया है। सज्जन पर पाँच लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है।
क्या है मामला
सज्जन कुमार के ख़िलाफ़ 1984 कि सिख दंगों में एक ही परिवार के केहर सिंह, गुरप्रीत सिंह, रघुवेंद्र सिंह, नरेंद्र पाल सिंह और कुलदीप सिंह को जान से मारने का आरोप है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 31 अक्टूबर 1984 को यह दंगा फैला था।
आरोपी के ख़िलाफ़ मामला न्यायमूर्ति जीटी नानावटी आयोग के सुझाव के आधार पर 2005 में दायर हुआ था। निचली अदालत ने 2013 में पाँच लोगों को दोषी माना था जिसमें बलवान खोखर, महेंद्र यादव, किशन खोखर, गिरधारी लाल और कैप्टन भागमल शामिल था जबकि सज्जन कुमार को बरी कर दिया था। लेकिन सीबीआई ने सज्जन कुमार के ख़िलाफ़ यह कहते हुए अपील की कि लोगों को उकसाने वाला सज्जन कुमार ही था।
हाईकोर्ट ने सज्जन के अलावा तीन अन्य दोषियों- कैप्टन भागमल, गिरधारी लाल और कांग्रेस के पार्षद बलवान खोखर की उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा। बाकी दो दोषियों- पूर्व विधायक महेंद्र यादव और किशन खोखर की सजा तीन साल से बढ़ाकर 10 साल कर दी है ।
फ़ैसला एक नज़र में
(i) पुलिस पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़की हिंसा के मामले की जाँच करने में पूरी तरह विफल रही थी। (पैरा 136)
(ii) इस मामले में जो पाँच लोगों की हत्या की गई उसकी अलग-अलग प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई। दिल्ली पुलिस इस मामले की ठीक से जाँच नहीं की और इस हिंसा में सक्रिय रूप से उसकी मिलीभगत रही।(पैरा 146 और 149)
(iii) प्रधानमंत्री की हत्या के बाद जो मौत का तांडव हुआ वह अविश्वसनीय था। इसमें 2,700 से अधिक सिखों की हत्या हुई। क़ानून और व्यवस्था पूरी तरह टूट चुकी थी और सब अपनी मनमर्ज़ी कर रहे थे।(पैरा 152)
(iv) इस मामले में फ़ैसले पर पहुँचना मुश्किल था क्योंकि उसके ख़िलाफ़ मामले को दबाने का प्रयास था और मामला दर्ज भी नहीं किया गया था। अगर दर्ज हुआ तो उसकी ठीक से जाँच नहीं हुई।अगर कोई जाँच हुई तो उसे आगे नहीं बढ़ाया गया और कोई चार्जशीट दाख़िल नहीं हुआ। बचाव पक्ष ने भी माना कि एफआईआर नम्बर 416/1984 में मामले को बंद करने की रिपोर्ट तैयार कर दी गई है और इसे दायर कर दिया गया है पर एमएम ने अभी तक इस पर ग़ौर नहीं किया है।(पैरा 159)
(v) PW-1 एक साहसी और सच्चा गवाह है। जब तक उसे यह नहीं लगा की उसके बयान देने से किसी उद्देश्य की पूर्ति होगी, वह गवाही देने नहीं आइ। उसकी गवाही में कुछ भी असत्य नहीं है और उसकी गवाही को स्वीकार किया जाता है। (पैरा 219 और 220)
(vii) PW-4 भी इस मामले में एक निश्चित गवाह है और अभियोजन का समर्थन करता है।(पैरा 232)
(viii) PW-6 ऐसा व्यक्ति है जिसके साथ हादसा हुआ और वह किसी को झूठा फँसाएगा, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। (पैरा 242)
(ix) दिल्ली के दंगा प्रकोष्ठ द्वारा PWs 3, 4, 6, 7, 9 और 12 से पूछताछ नहीं करना और दलजीत कौर और हरभजन कौर से भी किसी तरह की पूछताछ का नहीं होना यह बताता है कि दंगा प्रकोष्ठ ने ठीक से काम नहीं किया। इस तरह की किसी जाँच का हिस्सा नहीं बनकर PW-1 ने सही किया।(पैरा 280 और 281)
(x) सीबीआई की दलील के बावजूद निचली अदालत ने उन अभियोगों का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। आक्रमणकारियों ने दो तरह की नीति बनाई थी - वे सिखों को मार रहे थे और उनकी सम्पत्तियों को भी नष्ट कर रहे थे जिसकी वजह से महिलाएँ और बच्चे निराश्रित हो रहे थे। राजनगर गुरुद्वारे पर हमला निश्चित रूप से एक साम्प्रदायिक साज़िश थी। (पैरा 288 और 294)
(xi) 1 से 4 नवम्बर 1984 के बीच जो दिल्ली और देश में दंगे हुए वे राजनीतिकों द्वारा कराए गए थे और क़ानून को लागू करने वाली एजेंसियाँ उनकी मदद कर रही थीं। इस तरह के अपराध के साथ निपटने के लिए अलग तरह की कोशिश की ज़रूरत है और अन्य स्थानों पर हुए इस तरह की हिंसा से सीख ली जा सकती है। (पैरा 367.1 और 367.10)
(xii) अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना सामूहिक अपराध है जिसमें आक्रमण राजनीतिक नेताओं के इशारे पर होता है और क़ानून को लागू करने वाली एजेंसियाँ इसमें मदद करती हैं। सामूहिक अपराध के लिए ज़िम्मेदार अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा है और वे सज़ा से बचते रहे हैं। इस तरह के अपराधियों को क़ानून के हवाले करना हमारी क़ानून व्यवस्था के लिए चुनौती रही है। दशकों गुज़र गए, इनको सज़ा नहीं मिली। इसे देखते हुए क़ानून व्यवस्था को मज़बूत करने की आवश्यकता है। ना तो मानवता के ख़िलाफ़ अपराध और ना ही नरसंहार ही अपराध संबंधी हमारे देशी क़ानून के तहत आता है। इस कमी को शीघ्र दूर करने की ज़रूरत है। (पैरा 367.6)
(xiii) निचली अदालत द्वारा A-1 को बरी करने के फ़ैसले को ख़ारिज किया जाता है। उसे उसे आईपीसी की धारा 120B सहित धारा 302, 436, 295, और 153A (1) (a) और (b) के तहत आपराधिक साज़िश का दोषी क़रार दिया जाता है।(पैरा 307)