न्यायाधीश दीपक मिश्रा के वे फैसले जिन्हें आपको अवश्य ही पढ़ना चाहिए

LiveLaw News Network

3 Oct 2018 3:39 PM GMT

  • न्यायाधीश दीपक मिश्रा के वे फैसले जिन्हें आपको अवश्य ही पढ़ना चाहिए

    सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो गए हैं। 65 साल के हो जाने के बाद 1 अक्तूबर उनके कार्यकाल का अंतिम दिन था। दीपक मिश्रा के चाचा रंगनाथ मिश्रा भी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं।

    दीपक मिश्रा ने उड़ीसा हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की और 1996 में इसके जज नियुक्त हुए। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में काफी दिनों तक रहने के बाद उन्हें पटना हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इसके बाद वे दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुए और फिर 10 अक्तूबर 2011 को वे सुप्रीम कोर्ट के जज बने। 28 अगस्त 2017 को वे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुए।

    पर जजों का आकलन हम उनके फैसलों की गुणवत्ता से करते हैं। अपने हर फैसले के लिए उनके हिस्से में प्रशंसा और आलोचना आती है और न्यायमूर्ति मिश्रा इसके अपवाद नहीं रहे। यहाँ प्रस्तुत है कुछ ऐसे फैसले जिसका सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में वे हिस्सा रहे -

    उनकी अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के फैसले

    सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति

    यह मामला दीपक मिश्रा का एक मुख्य न्यायाधीश के रूप में अंतिम फैसला था। उन्होंने खुद और न्यायमूर्ति एएम खानविलकर के लिए इसका फैसला लिखा। अपने फैसले में उन्होंने कहा कि सबरीमाला में महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं देना हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है और ऐसा नहीं है कि इसके बिना हिन्दू धर्म नहीं बचेगा। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 25(1) के तहत मिले अधिकार का जेंडर से कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने कहा कि महिलाओं को बाहर नहीं बल्कि मंदिर में प्रवेश करने देना हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग है।

    आधार मामला

    आधार पर फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ के प्रमुख भी वही थे पर उन्होंने इस मामले में कोई फैसला नहीं लिखा। न्यायमूर्ति मिश्रा और एएम खानविलकर ने इस मामले में न्यायमूर्ति सिकरी के फैसले से सहमति जताई। इस फैसले में आधार के कुछ प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया पर बहुमत से इसे गैर संवैधानिक नहीं बताया। इस मामले में न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने इस मामली में असहमति का फैसला दिया। उन्होंने पूरी आधार परियोजना को ही असंवैधानिक करार दिया और आधार अधिनियम को धन विधेयक के रूप में पारित कराने को संविधान के साथ धोखा बताया।

    व्यभिचार को अपराधमुक्त करना  

    न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने एक और महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया। यह फैसला था 158 साल पुराने आईपीसी की धारा 497 से जुड़ा हुआ है जिसके तहत किसी महिला या पुरुष के विवाहेत्तर संबंध दंडनीय अपराध माना गया था। न्यायमूर्ति मिश्रा ने अपने फैसले में कहा की पत्नी या बेटी किसी की संपत्ति नहीं है कि उस पर स्वामित्व जताया जा सके।

    समलैंगिकता अपराध नहीं

    संविधान पीठ ने इस मामले में बहुमत से फैसला सुनाया और आईपीसी की धारा 377 को अपराधमुक्त कर दिया। फैसले में कहा गया कि दो वयस्कों के बीच निजी रूप से सहमति से यौन संबंध आपराधिक नहीं है।  मिश्रा ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय को भी वे सारे अधिकार उपलब्ध हैं जो किसी सामान्य नागरिक को और उनके यौनिक अनुस्थापन उनके निजता के अधिकार का आवश्यक हिस्सा है। उन्होने कहा कि यह धारा बहुसंख्यकों के हाथों में हथियार की तरह है।

    इच्छामृत्यु पर फैसला

    इस साल मार्च में उनकी अध्यक्षता वाली पीठ ने यह फैसला दिया। उन्होंने फैसला दिया कि सभी वयस्क जिसको सम्मति देने की क्षमता है, उसको चिकित्सा लेने से इनकार करने और स्व-निरधारा का अधिकार है। पर उन्होंने कहा कि डॉक्टर किसी मरीज की सहमति के अधिकार से बंधा होगा।

    उम्मीदवारों की अयोग्यता का मामला  

    मुख्य न्यायाधीश मिश्रा की अध्यक्षता में पाँच जजों की पीठ ने फैसला दिया कि सिर्फ इसलिए कि किसी उम्मीदवार के खिलाफ किसी आपराधिक मामले में अभियोग लगाया गया है, वह चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं हो जाता है। पीठ की ओर से मिश्रा ने विधायिका से कहा कि वह राजनीति को अपराधमुक्त करने के लिए कानून बनाने का आह्वान किया।

    कोर्ट का क्षेत्राधिकार

    गत वर्ष दिसंबर में सीजेआई मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की पीठ ने कहा कि कोर्ट के क्षेत्राधिकार जो कि उसे एक कानून के तहत प्राप्त है, को किसी ऊंचे न्यायालय के भिन्न तरह के हस्तक्षेप के कारण न तो बदला जा सकता है और न ही उसे लचीला बनाया जा सकता है ।इस फैसले ने इससे पहले इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया।

    सीजेआई मिश्रा के अन्य महत्त्वपूर्ण मामले

    हादिया मामला   

    इस मामले में आने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया जिसने अपने फैसले में हादिया की शफ़िन जहां से हुई शादी को अवैध करार दिया था। मिश्रा ने फैसले में कहा कि कोई कौन सा धर्म चुनता है यह उसके मौलिक अधिकार का हिस्सा है।

    लिंचिंग और भीड़तंत्र

    न्यायमूर्ति मिश्रा ने भीड़ द्वारा लोगों को मारे जाने पर चिंता जताई और कहा कि इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती है। उन्होंने कहा कि कानून और व्यवस्था की मशीनरी सक्षमता से काम करती है यह सुनिश्चित करना राज्य का काम है ताकि देश के धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी तानेबाने को बचाया जा सके।

    खाप पंचायत

    किसी दो वयस्क को आपस में शादी करने के लिए किसी परिवार और समुदाय की अनुमति की जरूरत नहीं है। इस बारे में फैसला न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ ने सुनाया। पीठ ने इस तरह की शादी में रुकावट डालने या उन्हें ऐसा करने से रोकने को गैर कानूनी बताया।

    कावेरी विवाद  

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ ने कावेरी जल विवाद अधिकरण के आदेश के खिलाफ कर्नाटक की दलील को मान लिया। पीठ ने कर्नाटक को 192 की बजाय 177.25 टीएमसी जल छोड़ने का आदेश दिया।

    मीशा पर प्रतिबंध से इंकार  

    सीजेआई की पीठ ने मलयालम उपन्यास ‘मीशा’ पर कोई प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया। आरोप लगाया गया था कि इस उपन्यास से हिंदुओं की भावनाएँ आहत हुई हैं। उन्होंने कहा कि हम लोग किसी अधिनायकवादी शासन व्यवस्था में नहीं जी रहे हैं बल्कि लोकतन्त्र में हैं जहां सबको अपनी बात कहने की आजादी है।

    राष्ट्र गान पर अपने ही फैसले को बदला

    सीजेआई मिश्रा ने अपनी अगुवाई वाली पीठ के राष्ट्र गान पर दिये गए फैसले को बदल दिया। अपने पूर्व के फैसले में उन्होंने देश के सभी सिनेमा हॉल में राष्ट्र गान को बजाना अनिवार्य कर दिया था। बाद में उन्होंने इस फैसले को बादल दिया और ऐसा करना सिनेमा हॉल के निर्णय पर छोड़ दिया।

    प्रिया प्रकाश वर्रीएर का मामला

    सीजेआई मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने अभिनेता प्रिया प्रकाश वर्रीएर और मलयालम फिल्म के निर्माता और निर्देशकओरु अदार लव के खिलाफ तेलंगाना और महाराष्ट्र में दायर आपराधिक एफआईआर को निरस्त कर दिया। शिकायत में कहा गया था कि उन्होंने मुस्लिमों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाया है।

    पद्मावत को दिखाये जाने पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया

    अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता पर ज़ोर डालते हुए न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ ने फिल्म पद्मावत को दिखाये जाने पर लगे प्रतिबंध को समाप्त कर दिया।

    अन्य महत्त्वपूर्ण मामले जिस पर उनकी अध्यक्षता वाली पीठ ने सुनाये फैसले




    • कोर्ट की कार्यवाही को सीधा दिखाने का निर्णय

    • भीमा कोरेगांव मामले में एसआईटी के गठन की अनुमति नहीं देना

    • भीड़ द्वारा तोड़फोड़ के खिलाफ निर्देश

    • मुख्य न्यायाधीश की वरीयता का मामला

    • जज लोया के मामले की जांच की अनुमति नहीं देना

    • अयोध्या मामले को बड़ी पीठ को सौंपने से इंकार करना


    अन्य फैसले जिसका वे मुख्य न्यायाधीश बनने से पहले हिस्सा रहे

    आपराधिक मानहानि का कानून असंवैधानिक नहीं

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता में दो जजों की पीठ ने आईपीसी की धारा 499/500 को वैध होने का फैसला सुनाया।

    एफआईआर को अपलोड करने का मामला

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अगर मामला संवेदनशील (उग्रवाद, आतंकवाद, यौन उत्पीड़न पोकसो अधिनियम से संबंधित) नहीं है तो एफआईआर को दर्ज किए जाने के 24 घंटे के अंदर पुलिस के वेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए।

    निर्भया मामले में मौत की सजा  

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ ने निर्भया बलात्कार मामले में अभियुक्तों की मौत की सजा को सही ठहराया।

    याक़ूब को फांसी

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ ने याक़ूब मेमन को फांसी देने के मामले की आधी रात को सुनवाई की। फैसला सुनाये जाने के कुछ घंटों बाद उसे फांसी दे दी गई।

    महात्मा गांधी पर किसी अनाम कवि की सजा को जायज ठहराया

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ ने कहा कि कलात्मक स्वतन्त्रता, आलोचनात्मक सोच और रचनात्मक विचारों की दुहाई देकर कोई लेखक या कवि महात्मा गांधी जैसे किसी ऐतिहासिक रूप से आदरणीय व्यक्ति के बारे में अश्लीलता की अनुमति नहीं दे सकता

    बलात्कार के मामले से कोई समझौता नहीं

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के मामले में समझौते की बात किसी भी स्थिति में सोची भी नहीं जानी चाहिए। कोर्ट ने इस मामले में मध्यस्थता से भी मना किया।

    सीयारपीसी की धारा 165(3) के तहत आवेदन के साथ हलफनामा होना चाहिए

    न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि सीयारपीसी की धारा 156(3) के तहत दिये गए आवेदन के साथ हलफनामा होना चाहिए ताकि मजिस्ट्रेट कोई आदेश देने से पहले अपना दिमाग सावधानी से इसमें लगा सके।

    करनन के खिलाफ अवमानना का मामला

    न्यायमूर्ति करनन को अवमानना का दोषी मानने वाले पीठ का भी न्यायमूर्ति मिश्रा हिस्सा रहे।

    Next Story