सबरीमाला मामला में न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा बहुमत से असहमत; कहा, किसी धर्म की किस परम्परा को समाप्त किया जाए यह कोर्ट का काम नहीं बशर्ते कि यह सती जैसी कोई सामाजिक बुराई का मामला हो

LiveLaw News Network

30 Sep 2018 2:25 PM GMT

  • सबरीमाला मामला में न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा बहुमत से असहमत; कहा, किसी धर्म की किस परम्परा को समाप्त किया जाए यह कोर्ट का काम नहीं बशर्ते कि यह सती जैसी कोई सामाजिक बुराई का मामला हो

    शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने सभी उम्र की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की ऐतिहासिक इजाजत दे दी। यह फैसला बहुमत से सुनाया गया पर पाँच जजों की इस पीठ में शामिल एकमात्र महिला जज न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा ने बहुमत के इस फैसले के विरोध में अपना फैसला दिया। मल्होत्रा ने कहा कि “भक्तिभाव लैंगिक भेदभाव का विषय नहीं हो सकता”।

     जो चार जज बहुमत के फैसले के साथ खड़े हुए वे हैं मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़।

     न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा ने अपनी असहमति के फैसले में निम्न बातें कही -

     न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा ने कहा कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए सुप्रीम कोर्ट कोई तभी आए जब अनुच्छेद 32 के तहत उसके अधिकारों का हनन होता है और यह इस बात पर आधारित होना चाहिए कि मंदिर में पूजा को लेकर याचिकाकर्ता के निजी अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।

    इसके बाद उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं लगता कि याचिकाकर्ता आयप्पा स्वामी के भक्त हैं। इसलिए इस याचिका को स्वीकार करने का मतलब यह हुआ कि कोर्ट को उन लोगों के कहने पर धार्मिक मुद्दों पर फैसले करने होंगे जो उस धर्म को मानते ही नहीं।

     धार्मिक मामलों में जनहित याचिकाओं की अनुमति देकर बिचौलियों के हस्तक्षेप के लिए द्वार खोल दिये जाएंगे जो धार्मिक विश्वास और परम्पराओं पर उँगलियाँ उठाएंगे इसके बावजूद कि वह व्यक्ति इस धर्म का नहीं है,  ही वह उस विशेष मठ में पूजा करने वालों में से है। अगर इस तरह के आवेदनों को स्वीकार किया गया तो यह स्थिति धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए और भी ज्यादा नुकसानदेह होगा”

     न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा, “धर्म या धर्म की कोई परिपाटी उदार है कि नहीं इसके संदर्भ के बिना, किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म को मानने का अधिकार संविधान के तहत मौलिक अधिकार है। धार्मिक परिपाटी को संविधान के अनुच्छेद 25 और 26(b) के तहत संरक्षण मिला हुआ है। अदालतें अमूमन धार्मिक परम्पराओं के मामले में दखल नहीं देती हैं विशेषकर जब पीड़ित व्यक्ति उस धर्म विशेष या पंथ का नहीं है”

    नियम 3(b) अधिनियम 1965 के बाहर है

    याचिकाकार्ताओं ने केरल हिन्दू पूजा स्थल (प्रवेश का अधिकार) नियम, 1965 की संवैधानिकता को चुनौती दी है जिसके तहत महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं है... इस नियम की धारा 3 कहती है कि पूजा स्थल हिन्दू धर्म के सभी वर्गों के लिए खुले हुए हैं।

     न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा कि नियम 3(b) इस अधिनियम के बाहर नहीं है और 1965 के अधिनियम की धारा 3 किसी धार्मिक समूह के लाभ के लिए सार्वजनिक पूजा को लेकर अपवाद बनाता है। दूसरे शब्दों में, धार्मिक समूह को यह निर्णय करने का अधिकार है कि वे अपने धार्मिक मामले को किस तरह चलाना चाहते हैं।

     अनुच्छेद 14

     न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा कि धार्मिक मामले और धार्मिक कार्यों के मामलों में अनुच्छेद 14 की शरण में वही व्यक्ति जा सकता है जो उस धर्म, संप्रदाय या मत को मानता है।

     इसके अलावा उन्होंने कहा कि यह निर्धारित करना कोर्ट का काम नहीं है कि किसी धर्म या संप्रदाय में किस परिपाटी को समाप्त कर दिया जाए अगर वह परिपाटी सती जैसा कोई जघन्य, उत्पीड़क सामाजिक बुराई नहीं है तो।

     अनुच्छेद 15

     अनुच्छेद 15 लिंग के आधार पर किसी को विभेदात्मक व्यवहार की अनुमति नहीं देता है।

    उन्होंने संविधान सभा में हुई बहस का हवाला दिया कि सभा ने ‘पूजा स्थलों’ या मंदिरों को अनुच्छेद 9 के प्रारूप में शामिल करने को उचित नहीं माना जो कि संविधान के अनुछेद 15 का हिस्सा है।

     धर्म के मामले में सवैधानिक नैतिकता

     न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा कि अदालत का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह सभी लोगों के अधिकारों में सामंजस्य बैठाए ताकि लोग अपने धर्मों और मतों को मान सकें।

     उन्होंने कहा कि सबरीमाला मंदिर में आयप्पा स्वामी की पूजा करनेवाले एक समान मत को मानते हैं और उनके विश्वास और उनकी परिपाटी एक हैं।

     आवश्यक परिपाटी का सिद्धान्त

     न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा कि क्वांरापन और सादगी सबरीमाला मंदिर के भगवान की विशिष्ट विशेषता है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 25(1) का “समान रूप से हकदार” का अर्थ यह है कि हर अनुयायी को अपने धर्म, विश्वास और मत के अनुरूप उसके नियमों और परिपाटियों को मानने का अधिकार है।

     प्रतिबंध अस्पृश्यता नहीं है

    याचिकाकर्ताओं का कहना है कि अधिसूचित उम्र में महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध अनुच्छेद 17 के तहत एक तरह से अस्पृश्यता है। न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने कहा कि हर तरह का बहिष्करण अस्पृश्यता के दायरे में नहीं आता।

     

    Next Story