सबरीमाला की विशिष्ट परंपरा हिन्दू धर्म का न तो ऐसा आवश्यक और न ही अविभाज्य अंग है जिसके बिना वह जीवित नहीं रहेगा : सीजेआई दीपक मिश्रा

LiveLaw News Network

29 Sep 2018 4:52 AM GMT

  • सबरीमाला की विशिष्ट परंपरा हिन्दू धर्म का न तो ऐसा आवश्यक और न ही अविभाज्य अंग है जिसके बिना वह जीवित नहीं रहेगा : सीजेआई दीपक मिश्रा

    सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर को सभी उम्र की महिलाओं के लिए खोल दिया है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, आरएफ नरीमन, डीवाई चंद्रचूड़ ने अलग अलग फैसले लिखे हैं पर सबने यह कहा कि महिलाओं को इस मंदिर में प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकता जिसके भगवान आयप्पा हैं जो कुँवारे हैं। दिलचस्प यह है कि पीठ की एकमात्र महिला जज इन्दु मल्होत्रा ने बहुमत के खिलाफ फैसला दिया है।

    सीजेआई दीपक मिश्रा ने कहा कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं में प्रवेश की मनाही न तो जरूरी है और न ही ऐसा करना हिन्दू धर्म का अविभाज्य हिस्सा है और जिसके बिना हिन्दू धर्म, जिसको आयप्पा के अनुयायी मानते हैं, जीवित नहीं रहेगा।

    संक्षिप्त में, सीजेआई ने कहा कि आयप्पा का कोई अलग धार्मिक अस्तित्व नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25(1) के तहत जो अधिकार मिले हैं उसका लिंग से कोई लेना देना नहीं है या विशेष रूप से महिलाओं की किसी शारीरिक क्रिया से कोई मतलब नहीं है और उनको इस मंदिर में जाने की इजाजत नहीं देना उनको उनके अधिकारों से वंचित करना है।

    कुल 95 पृष्ठ के इस फैसले के आधे से अधिक हिस्सों में विभिन्न पक्षों की दलीलों का जिक्र है। प्रस्तुतु है इनमें से कुछ दलील के मुख्य अंश -

    शिरुर मठ

    शिरुर मठ के बारे में सीजेआई ने कहा कि इस तरह के कोई रेकॉर्ड नहीं हैं कि आयप्पा के भक्तों में एक ऐसी आम विशेषता है जिसके बारे में उनको लगता है कि यह उनके आध्यात्मिक उन्नयन के अनुरूप है और यह हिन्दू धर्म से अलग है। इसलिए आयप्पा के भक्त हिन्दू ही हैं और यह कोई अलग धार्मिक समूह नहीं है।

    महिलाओं को अपने आराध्य की पूजा करने देना हिन्दू धर्म का आवश्यक हिस्सा

    सीजेआई ने कहा कि महिलाओं को सबरीमाला में पूजा के लिए जाने देने का मतलब यह नहीं है कि इससे हिन्दू धर्म की प्रकृति मौलिक रूप किसी तरह से बदल जाएगी।

    सीजेआई मिश्रा ने कहा, “किसी भी परिस्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि किसी भी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश नहीं करने देना हिन्दू धर्म के आवश्यक चलन का हिस्सा है। बल्कि इसके उलट, महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने देना हिन्दू धर्म का अभिन्न हिस्सा है।  इस बारे में किसी भी तरह के साक्ष्य किसी ग्रंथ में नहीं हैं और इसलिए इनके अभाव में हम सबरीमाला मंदिर की परंपरा को हिन्दू धर्म का एक आवश्यक अंग का दर्जा नहीं दे सकते”।

    जिन परिपाटियों में बदलाव लाया जा सकता है वे धर्म के मर्म नहीं हो सकते

    कोर्ट ने कहा कि देवस्वोम बोर्ड ने हाईकोर्ट के समक्ष यह स्वीकार किया 10 से 50 वर्ष की उम्र की महिलाएं हर माह पाँच दिन के लिए अपने बच्चों को चावल खिलाने के समारोह के सिलसिले में पहले मंदिर में पूजा करने आती थीं। बोर्ड ने यह भी कहा कि सिर्फ मंडलम, माकारविलक्कु और विशु के मौकों पर ही महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध होता था।

    सीजेआई ने कहा, “कोई भी यह नहीं कह सकता कि उनके धर्म का कोई आवश्यक प्रचलन किसी विशेष तिथि से या घटना के बाद बदल गया। इस तरह के बदलने वाले हिस्से को किसी के धर्म का मर्म नहीं कहा जा सकता...इसे सिर्फ धर्म के गैर आवश्यक हिस्से की सजावट मात्र कहा जा सकता है”।

    इस फैसले के कुछ प्रमुख बिन्दु -




    1. सबरीमाला मंदिर में 1965 के नियम के 3(b) की आड़ में जिस तरह की भेदभावपूर्ण व्यवस्था चल रही है उससे अपने धर्म का स्वतंत्र होकर पालन करने और आयप्पा भगवान के प्रति अपने भक्तिभाव को दर्शाने के हिन्दू महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन है। इसकी वजह से पूजा करने के उनके अधिकार का हनन होता है। इस अनुच्छेद 25(1) के तहत अपने धर्म को मानने का अधिकार सभी उम्र के महिला और पुरुष दोनों को समान रूप में उपलब्ध है।

    2. नियम 1965 का कथित नियम 3(b) जिसे 1965 के अधिनियम के तहत बनाया गया है और जिसके तहत 10 से 50 वर्ष की उम्र की महिलाओं को इस मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया है, वह अपने धर्म को मानने के बारे में भारतीय महिलाओं को मिले अधिकार का उल्लंघन है और इस तरह यह अनुच्छेद 25(1) के तहत प्राप्त धर्म के अधिकार को निष्क्रिय कर देता है।

    3.  फिर, संविधान के अनुच्छेद 25(1) में जो ‘नैतिकता’ शब्द आता है उसे संकीर्ण अर्थों में नहीं देखा जा सकता और यह इस बात पर निर्भर नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति, किसी धर्म का एक वर्ग उसका क्या अर्थ लगाता है। चूंकि संविधान इस देश की जनता ने खुद को दिया है और इसे स्वीकार किया है, इसलिए अनुच्छेद 25 में सार्वजनिक नैतिकता शब्द को उचित तरीके से समझने की जरूरत है और यह संवैधानिक नैतिकता का समानार्थी है।

    4. सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य किसी धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने के रास्ते में बाधा उत्पन्न करने और 10 से 50 वर्ष की उम्र की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में कानूनी रूप से प्रवेश करने के अधिकार की इजाजत नहीं देकर उनके साथ भेदभाव करने के लिए प्रयोग में नहीं लाए जा सकते।

    5. सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं देने के चलन को धर्म का आवश्यक हिस्सा नहीं माना जा सकता जैसा कि बोर्ड ने कहा है।

    6. जैसा कि आनंद मार्ग के मामले में इस अदालत ने कानून का निर्धारण किया है, जिस तरह की विशिष्ट परिपाटी सबरीमाला मंदिर में चलाया जा रहा है, उसके बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अगर उसका पालन नहीं किया गया तो इससे हिन्दू धर्म की प्रकृति बदल जाएगी। फिर, यह विशिष्ट परिपाटी निर्बाध नहीं चलती आ रही है जैसा कि देवस्वोम बोर्ड ने हाईकोर्ट के समक्ष स्वीकार किया है कि 10 से 50 वर्ष के उम्र की महिलाओं को पहले मंदिर में हर महीने पाँच दिन तक पूजा करने की इजाजत थी जब वे अपने बच्चों को पहली बार चावल खिलाने का समारोह मनाते थे।


    इस तरह कोर्ट ने 1965 के अधिनियम के नियम 3(b) को अवैधानिक करार दिया।


     
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