‘ पति पत्नी का मास्टर नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार की IPC की धारा 497 को असंवैधानिक करार देकर रद्द किया [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

27 Sept 2018 9:00 PM IST

  • ‘ पति पत्नी का मास्टर नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार की IPC की धारा 497 को असंवैधानिक करार देकर रद्द किया [निर्णय पढ़ें]

    सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया  जो व्यभिचार को अपराध करार देती है। पीठ ने कहा कि ये  महिला को गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करती है जिसके परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है।

    मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संविधान पीठ ने ये फैसला सुनाया।

    मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने जस्टिस एएम खानविलकर के साथ मुख्य फैसला सुनाते हुए कहा , "महिलाओं की व्यक्तिगत गरिमा और समानता को प्रभावित करने वाले कानून के किसी भी प्रावधान ने संविधान के क्रोध को आमंत्रित किया है। यह स्पष्ट रूप से मनमाना है और यह कहने का समय है कि पति पत्नी का मास्टर नहीं है। अन्य लिंग पर एक लिंग की कानूनी संप्रभुता गलत है। धारा 497 स्पष्ट रूप से मनमानी है।”

    सीजेआई ने कहा कि व्यभिचार का अपराध  राज्य को वास्तविक निजी क्षेत्र में प्रवेश करने देगा। मौजूदा प्रावधान के तहत, पति को पीड़ित व्यक्ति के रूप में माना जाता है और पत्नी को पीड़ित के रूप में नजरअंदाज कर दिया जाता है। वर्तमान में, प्रावधान त्रिपक्षीय भूलभुलैया का प्रतिबिंबि है। एक स्थिति की कल्पना की जा सकती है जहां स्थिति की समानता और मामले को दर्ज करने का अधिकार पत्नी को दिया जा सकता है।

    सीजेआई ने कहा कि पूरा परिदृश्य बेहद निजी है। व्यभिचार अपराध की अवधारणा में फिट नहीं है। यदि इसे अपराध के रूप में माना जाता है, तो वैवाहिक क्षेत्र की अत्यधिक निजता में अत्यधिक घुसपैठ होगी। व्यभिचार के मामले में कानून उम्मीद करता है कि पक्षकार वफादार रहें, निष्ठा बनाए रखें।

    सीजेआई ने कहा कि एक कानून है जो निजता के मूल में आता है। इसके अलावा यह एक भेदभावपूर्ण और सामाजिक-नैतिक भी है। जब विवाह के पक्ष संबंधों की नैतिक प्रतिबद्धता खो देते हैं  तो यह विवाह में एक दरार पैदा करता है और यह पार्टियों पर निर्भर करेगा कि वे स्थिति से कैसे निपटते हैं। कुछ लोग अकेले रह सकते हैं और एक साथ रह सकते हैं और कुछ तलाक ले सकते हैं। यह पूरी तरह से अपने शिखर पर निजता का विषय है।

    सीजेआई ने कहा कि  कुछ स्थितियों में व्यभिचार एक दुखी विवाह का कारण नहीं हो सकता है। यह परिणाम हो सकता है। पूर्ण परिस्थितियों में ऐसी परिस्थितियों को समझना मुश्किल है। यदि अधिनियम को अपराध के रूप में माना जाता है और दंड प्रदान किया जाता है  तो यह उन लोगों को दंडित करने की ताकत रखता है जो वैवाहिक संबंधों में नाखुश हैं।

    सीजेआई ने नोट किया कि चीन के जनवादी गणराज्य, जापान, ऑस्ट्रेलिया और कुछ अन्य देशों में अपराध के रूप में व्यभिचार अधिक प्रचलित नहीं है। उन्होंने कहा कि धारा 497  असंवैधानिक है और इसे व्यभिचार के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने 1985 के फैसले को खारिज कर दिया जिसने धारा को बरकरार रखा था।

    जस्टिस आर एफ नरीमन ने अपने फैसले में कहा कि धारा 497 एक पुरातन प्रावधान है जिसने अपना तर्क खो दिया। जस्टिस नरीमन ने कहा कि ये कानून महिलाओं को समानता, गरिमा के अधिकार से वंचित करता है।

    जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपनी अलग लेकिन सहमतिजनक राय में कहा कि धारा 497 महिला की प्रतिष्ठा के लिए विनाशकारी है। स्वायत्तता मानवनिर्धारित मानव अस्तित्व में अंतर्निहित है। धारा 497 ने महिला के चुनने के अधिकार से इंकार कर दिया। उसे इस कानून में संपत्ति माना गया।

    जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा कि धारा 497 उस सिद्धांत पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि एक महिला विवाह के साथ अपनी पहचान और कानूनी अधिकार खो देती है।ये उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। यह सिद्धांत संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है। उन्होंने कहा कि ये अनैतिक हो सकता है, गैरकानूनी नहीं।

    इससे पहले व्यभिचार की IPC की  धारा 497 की वैधता को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर सुनवाई पूरी कर सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया था।

    वहीं सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की ओर से पेश ASG पिंकी आनंद ने  कानून का समर्थन करते हुए कहा था कि  व्यभिचार विवाह संस्थान के लिए खतरा है और परिवारों पर भी इसका असर पड़ता है। भारतीय समाज में हो रहे विकास और बदलाव के मद्देनजर किसी कानून को देखा जाना चाहिए ना कि पश्चिमी देशों के लिहाज से। दो अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया था कि व्यभिचार कानून में ये तर्कसंगत आधार नहीं है कि वह केवल पुरुष को दंडित करे, उसे आरोपी के रूप में पेश करे और महिला को पीड़ित के रूप में माने जबकि इसमें दोनों पक्षों को समान लाभ प्राप्त होता है।


     
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