“यह बताना सन्दर्भ के बाहर नहीं होगा कि महाराष्ट्र पुलिस का उद्देश्य “सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय” और इसका आदर जरूरी है। जिन लोगों पर आपराधिक क़ानून लागू करने की जिम्मेदारी है, उन्हें यह अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ उनके सामने जो अपराधी एक व्यक्ति के रूप में मौजूद है उसी के प्रति उनकी जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि राज्य और समुदाय के प्रति भी वे जिम्मेदार हैं।”
हिरासत में एक व्यक्ति की मौत के लिए जिम्मेदार कुछ पुलिस अधिकारियों को सुनाई गई सजा को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट नेdemocratic policing की परिकल्पना विकसित करने की जरूरत पर जोर दिया जिसमें सिर्फ अपराध पर नियंत्रण ही उद्देश्य नहीं होना चाहिए पर इस उद्देश्य को कैसे प्राप्त किया जाता है, यह भी महत्त्वपूर्ण हो।
न्यायमूर्ति एनवी रमना और न्यायमूर्ति एमएम शांतनागौदर की पीठ के लिए लिखे अपने फैसले में न्यायमूर्ति रमना ने कहा,“...हमारी पुलिस के लिए यह जरूरी है कि वह democratic policing को विकसित करे और उसको महत्त्व दे जिसमें सिर्फ अपराध को नियंत्रित करना ही उद्देश्य न हो बल्कि इस उद्देश्य को किस तरह से प्राप्त किया जाता है, वह भी महत्त्वपूर्ण है। फिर, इस मामले में ऐसा कुछ हुआ है जो हमें यह समझने के लिए बाध्य करता है कि “आप चाहे जितना ऊंचा जाइए, क़ानून हमेशा ही आपसे ऊपर रहेगा”!
गश्त पर तैनात महाराष्ट्र पुलिस के अधिकारियों ने चोरी के एक संदिग्ध जोइनास को उठा लिया और रात के एक बजे उसे हिरासत में ले लिया। आरोप यह है कि पुलिस दल ने जोइनास को बाहर बिजली के एक खंभे से बाँध दिया और पुलिस वालों ने उसे लाठियों से पीटा। विभिन्न स्थानों पर ले जाने के क्रम में उसे बीच बीच में पीटा जाता रहा। सुबह 3.55 बजे उसे हवालात में बंद कर दिया गया और अगले दिन वह मृत पाया गया। निचली अदालत ने इन पुलिस अधिकारियों को दोषी पाया और उन्हें तीन साल की कैद की सजा सुनाई। हाईकोर्ट ने भी उनकी सजा को सही ठहराया।
प्रथम आरोपी पुलिस अधिकारी की मृत्यु हो जाने की वजह से इनके खिलाफ मामला रुक गया था। अन्य दोषी पुलिस अधिकारियों ने कहा की वे तो सिर्फ प्रथम आरोपी पुलिस अधिकारी के आदेशों का पालन कर रहे थे। इस बारे में पीठ ने कहा, “सिर्फ यही नहीं है की आरोपी अपीलकर्ताओं को यह साबित करना है कि उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों का पालन किया है बल्कि उन्हें कोर्ट में यह भी साबित करना है कि जो आदेश दिया गया था वह कानूनी रूप से सही था।”
पीठ ने कहा, “...ऐसा नहीं है की आरोपी अपीलकर्ता तथ्यों और परिस्थितियों से वाकिफ नहीं थे...बल्कि इसमें सभी की भागीदारी थी। उपलब्ध रिकॉर्ड को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि इस बहस को सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही उठाया गया है ताकि इस पर दुबारा सुनवाई हो सके और इस तरह की कोशिश पर यहाँ कोई विचार नहीं हो सकता है।”
पीठ ने कहा कि पुलिस मृतक की पहचान से वाकिफ थी और शुरू में वे इस मामले की जांच करना चाहते थे और मृतक और उसके परिवार के सदस्यों को जिस तरह से हिरासत में लिया गया उससे अराजकता की स्थिति का पता चलता है और यह पुलिस के आचरण के अनुरूप नहीं है।
“जोइनास को जिस तरह उसके घर से आधी रात को जांच के लिए उठाया गया वह इस देश ने अपने नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिया है, वह उसकी अनदेखी करता है। यह रिकॉर्ड में है कि उस व्यक्ति को अपराध कबूल करवाने के उद्देश्य से चोट पहुंचाई गई। इस तरह की कार्रवाई के पीछे गलत इरादे का होना स्पष्ट है...और इसके लिए और सबूत की जरूरत नहीं है,” कोर्ट ने कहा।
आरोपियों की सजा को कम करते हुए कोर्ट ने कहा, “इस मामले से संबद्ध पुलिस अधिकारियों ने ही क़ानून को तोड़ा है जिन पर क़ानून की सुरक्षा और संरक्षण की जिम्मेदारी थी, इसलिए इस तरह के मामले में सजा समानुपातिक रूप से कठोर होना चाहिए ताकि यह प्रभावी रूप से अन्य को ऐसा काम करने से रोक सके और समाज में आत्मविश्वास भर सके...निचली अदालत ने इन्हें तीन साल के कैद की जो सजा सुनाई है वह अपर्याप्त और गैर-समानुपातिक है। हमें इनकी सजा को आईपीसी की धारा 330 के तहत अधिकतम, जैसे सात साल का सश्रम कारावास करने की जरूरत है। निचली अदालत द्वारा लगाया गया जुर्माना भी लागू रहेगा।”