सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिगता को अपराध बताने वाले 157 साल पुराने कानून को रद्द किया, कहा LGBT को भी सामान्य नागरिक की तरह अधिकार [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

6 Sep 2018 10:48 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिगता को अपराध बताने वाले 157 साल पुराने कानून को रद्द किया, कहा LGBT को भी सामान्य नागरिक की तरह अधिकार [निर्णय पढ़ें]

    एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ ने समलैंगिकता को भारतीय दंड संहिता ( IPC) की धारा 377 के तहत अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को करीब एक घंटे तक चार जजों ने अपने फैसले को सुनाया और कहा कि LGBT समुदाय को भी देश के सामान्य नागरिक की तरह संविधान से मौलिक अधिकार प्राप्त हैं और धारा 377 सहमति से दो व्यस्कों द्वारा यौन संबंध बनाने को लेकर समानता, निजता और गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकारों का हनन करती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के सुरेश कौशल बनाम भारत सरकार के फैसले को पलट दिया।

    संविधान पीठ में  मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं और ये फैसला 493 पेज का है।

    जस्टिस एएम खानविलकर के साथ मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने फैसले की शुरुआत शेक्सपीयर से करते हुए कहा कि LGBT समुदाय को भी समान अधिकार हैं जो देश के अन्य नागरिकों को मिलते हैं। यौन प्राथमिकता जैविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है और इसमें किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन है।अतंगरता और निजता किसी की व्यक्तिगत इच्छा है और दो समलैंगिक व्यस्कों के बीच सहमति से यौन संबंध पर धारा 377 संविधान के  अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करती है और मनमानी है।  हालांकि जबरन या असहमति से बनाए संबंध इस धारा के तहत अपराध बने रहेंगे।

    वहीं जस्टिस रोहिंटन ने कहा कि  समलैंगिगता कोई मानसिक विकार नहीं है और LGBT समुदाय को बिना किसी कलंक के देखना होगा।सरकार को इसके लिए बड़े पैमाने पर प्रचार करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट भी भूमिका उस वक्त और महत्वपूर्ण हो जाती है जब अल्पसंख्यक ग्रुप के अधिकार प्रभावित होते हैं।

    जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यौन प्राथमिकताओं के अधिकार से इनकार करना निजता के अधिकार को देने से इनकार करना है। राज्य की किसी नागिरक की निजता में घुसपैठ नहीं कर सकता। इस अधिकार को अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत पहचान मिली है। भारत भी इसकी इसका साझेदार है। LGBT समुदाय को भी दूसरों की तरह समान अधिकार हैं। ये कानून 158 साल पहले बना और 87 साल बाद भारत आजाद हुआ लेकिन ये कानून बना रहा।जस्टिस इंदु मल्होत्रा मल्होत्रा ने भी सभी से सहमति जताते हुए कहा कि जिस तरीके से सालों से अल्पसंख्यक समुदाय को डर व कलंक के साये में रखा गया, इतिहास को उनसे माफी मांगनी चाहिए।

    दरअसल सुप्रीम कोर्ट में नवतेज सिंह जौहर, सुनील मेहरा, अमन नाथ, रितू डालमिया और आयशा कपूर, केशव सूरी व अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को समलैंगिकों के संबंध बनाने पर IPC धारा 377 के कार्रवाई के अपने फैसले पर विचार किया जाए।  उनका कहना है कि इसकी वजह से वो डर में जी रहे हैं और ये उनके अधिकारों का हनन करता है।इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 को सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध माना था। 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने IPC धारा 377 को अंसवैधानिक करार दिया था। इस मामले में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी और फिलहाल पांच जजों के सामने क्यूरेटिव बेंच में मामला भेज दिया था।


     
    Next Story