सुप्रीम कोर्ट ने कहा, राज्यसभा में “नोटा” की अनुमति लोकतंत्र की पवित्रता को नजरअंदाज करेगा; इसकी अनुमति संबंधी चुनाव आयोग के सर्कुलर को खारिज किया [निर्णय पढ़ें]
LiveLaw News Network
22 Aug 2018 12:47 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि राज्यसभा के चुनावों में ‘नोटा’ (एनओटीए - ऊपर में से कोई नहीं) के विकल्प की अनुमति नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि प्रत्यक्ष चुनाव में यह ‘अमृत’ का काम कर सकता है पर राज्यसभा चुनावों में इसका प्रयोग न केवल राज्यसभा की पवित्रता को नजरअंदाज करेगा बल्कि यह राज्य परिषदों में इसकी अनुमति दी गई तो यह दलबदल और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने कहा, “नोटा एक वोट की कीमत और प्रतिनिधित्व की परिकल्पना को नष्ट कर देगा और यह दलबदल को बढ़ावा देगा जो कि भ्रष्टाचार का दरवाजा खोल देगा और यह मर्ज निरंतर बढ़ती ही जाएगी।
…किसी प्रत्यक्ष चुनाव में नोटा को लागू करना प्रथम दृष्टया आकर्षक लगता है पर जब इसकी करीब से पड़ताल की जाती है तो यह धराशायी हो जाता है क्योंकि यह चुनाव में चुनावकर्ता की भूमिका को पूरी तरह नजरअंदाज कर देता है और लोकतांत्रिक मूल्यों को नष्ट कर देता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि यह विचार आकर्षक लग सकता है पर इसको व्यावहारिक तौर पर लागू करने से यह अप्रत्यक्ष चुनाव में जो निष्पक्षता छिपी है उसको पराजित कर देता है।”
याचिकाकर्ता की दलील
कोर्ट कांग्रेस के मुख्य सचेतक शैलेश मनुभाई परमार की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। इस याचिका में चुनाव आयोग के उस सर्कुलर को चुनौती दी गई है जिसमें आयोग ने राज्यसभा चुनावों में नोटा को लागू करने की बात कही है।
परमार ने इस सर्कुलर को यह कहते हुए चुनौती दी कि यह संविधान के अनुच्छेद 80(4) और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है।
अनुच्छेद 80(4) के अनुसार राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्य विधायिकाओं के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा सामानुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था के अनुरूप एकल स्थानांतरनीय वोट द्वारा होगा। पीयूसीएल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मतदाताओं को नोटा के उपयोग का विकल्प अवश्य की उपलब्ध कराया जाना चाहिए क्योंकि यह राजनीतिक दलों को अच्छे और ईमानदार उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा करने को बाध्य करेगा।
परमार ने यह भी कहा कि इससे जन प्रतिनिधित्व क़ानून और चुनाव कराने के नियमों, 1961 का उल्लंघन होता है।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष चुनावों में कोई अंतर नहीं : चुनाव आयोग
चुनाव आयोग ने पीयूसीएल के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि प्रत्यक्ष और परोक्ष चुनाव में कोई अंतर नहीं होता और नोटा का विकल्प चुनावकर्ता के अधिकारों को लागू करने के लिए दिया गया है। आयोग ने आगे कहा कि इसके बावजूद कि राज्यसभा चुनावों में गोपनीयता का कोई आवश्यकता नहीं है, इसके बावजूद यह चुनावकर्ता से नोटा के विकल्प का अधिकार छीन नहीं सकता।
कोर्ट का फैसला
कोर्ट ने कहा कि प्रत्यक्ष और परोक्ष चुनाव में अंतर है। इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए कोर्ट ने कहा कि अगर नोटा को अप्रत्यक्ष चुनाव में लागू किया जाता है तो इसका नकारात्मक असर पड़ेगा। कोर्ट ने कहा कि मतदान की गोपनीयता का राज्य परिषद के चुनावों में कोई जगह नहीं है और इस तरह के चुनावों में राजनीतिक पार्टियों और उनके सदस्यों का अनुशासन मायने रखता है।
कोर्ट ने कहा, “...नोटा राज्य परिषदों के चुनावों में नोटा को लागू करना लोकतंत्र के मौलिक मानदंडों के खिलाफ होगा जो कि संविधान की आधारभूत विशेषता है।”
कोर्ट ने आगे कहा कि अगर राज्यसभा में नोटा की अनुमति दी जाती है तो “जिस दलबदल पर रोक लगाया गया है वह अपनी पूरी ताकत से वापस आ जाएगा”। अंततः कोर्ट ने कहा कि विकल्प न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर के शब्दों में “स्थूलता के ब्रह्माण्ड” की पड़ताल पर खड़ा नहीं उतर सकता है विशेषकर तब जब चुनावकर्ता के मत की कीमत हो और वोट की यह कीमत स्थानांतरनीय हो।
“हम कह सकते हैं कि नोटा का विकल्प प्रत्यक्ष चुनावों में अमृत का काम कर सकता है पर राज्य परिषदों के चुनावों में जो कि जैसा कि ऊपर कहा गया है कि अलग है, यह न केवल लोकतंत्र की पवित्रता की अनदेखी करेगा बल्कि दलबदल और भ्रष्टाचार जैसे शैतान की मदद करेगा,” कोर्ट ने कहा।
इसलिए कोर्ट ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया और चुनाव आयोग के उस सर्कुलर को निरस्त कर दिया।