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प्रधान मंत्री मोदी डिग्री मामला : DU ने RTI आवेदकों की हस्तक्षेप अर्जी का विरोध किया,"सस्ता प्रचार स्टंट" बताया [पत्र पढ़ें]

LiveLaw News Network
23 May 2018 12:08 PM GMT
प्रधान मंत्री मोदी डिग्री मामला : DU ने RTI आवेदकों की हस्तक्षेप अर्जी का विरोध किया,सस्ता प्रचार स्टंट बताया [पत्र पढ़ें]
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मंगलवार को दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) ने 1978 के विश्वविद्यालय के बीए परीक्षा रिकॉर्ड के प्रकटीकरण की मांग को ठुकराने की कोशिश की, जिस साल प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी।

 विशेष रूप से आरटीआई कार्यकर्ताओं द्वारा दायर याचिका को "सस्ते प्रचार स्टंट" के रूप में साबित करने का प्रयास किया गया। रजिस्ट्रार टीके दासद्वारा प्रस्तुत एक हलफनामे ने पिछले महीने मुख्य हस्तक्षेपकर्ता पर भी इसी तरह के हमले किए थे तो अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मंगलवार को सभी तीन आवेदकों - आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज, निखिल डे और अमृता जोहरी पर आरोप लगाया कि वो “ व्यस्त लेकिन उकतानेवाले हस्तक्षेपकर्ता  के अलावा कुछ भी नहीं हैं. वर्तमान मामले में वो गुप्त रूप से हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रहे हैं।”

सुनवाई के दौरान जब हस्तक्षेप के अनुप्रयोगों का जोरदार विरोध किया गया तो न्यायमूर्ति राजीव शकधर  ने कहा कि जो कानूनी सवाल उनके द्वारा उठाए गए हैं कम से कम, उनकी सेवाओं का उपयोग अमिक्स क्यूरी के रूप में किया जा सकता है। मामला अब 23 अगस्त को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

 दिसंबर 2016 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इस विवाद को खारिज कर दिया था कि परीक्षा के रिकॉर्ड तीसरे पक्ष की जानकारी थी और डीयू को निर्देश दिया था कि "प्रासंगिक रजिस्टर का निरीक्षण करने दें जहां कला स्नातक में उत्तीर्ण सभी छात्रों के परिणाम के बारे में पूरी जानकारी हो। रोल नंबर के साथ वर्ष 1978 के छात्रों के नाम विश्वविद्यालय को उपलब्ध कराए गए पिता के नाम और अंक उपलब्ध और रजिस्टर से संबंधित पृष्ठों के निकालने की प्रमाणित प्रति प्रदान की जाए।

डीयू ने उच्च न्यायालय के समक्ष यह बताते हुए इस आदेश को चुनौती दी थी कि परीक्षा रिकॉर्ड तीसरे पक्ष की  जानकारी के तहत है और इन्हें आरटीआई अधिनियम के तहत तीसरे पक्ष को प्रदान नहीं किया जा सकता।

हस्तक्षेप याचिका में अब आरटीआई अधिनियम की धारा 8 (3) की ओर अदालत का ध्यान आकर्षित किया गया है जो बीस वर्ष से ज्यादा पुराने मामलों से संबंधित जानकारी से  अधिकांश छूट देने के लिए प्रदान करता है।

फिर वे प्रस्तुत करते हैं कि 1978 से संबंधित जानकारी की मांगने पर भरोसेमंद रिश्ते से संबंधित छूट का आह्वान नहीं किया जा सकता।

वे आगे कहते हैं, "इस मामले में यह मुद्दा दिल्ली विश्वविद्यालय के बैचलर ऑफ आर्ट्स, वर्ष 19 78 में रोल नंबर के साथ, पिता के नाम के साथ छात्रों के नाम, अंक के साथ आरटीआई अधिनियम के तहत जानकारी प्रस्तुत करना है। नतीजा कि वो पास हो गया या असफल रहा ... परीक्षा के लिए उपस्थित होने के लिए छात्रों द्वारा दी गई जानकारी को विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित दायित्वों और मानदंडों के तहत दिया जाता है और इसलिए ये ब्यौरा निश्चित रूप से एक भरोसेमंद क्षमता में नहीं दिया जा सकता।

 इसी प्रकार विश्वविद्यालय द्वारा अंकों और परिणाम को प्रदान करना विश्वविद्यालय का दायित्व, सांविधिक या अन्यथा भी है और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि विश्वविद्यालय ने अंक देने या परिणामस्वरूप एक भरोसेमंद क्षमता के बारे में जानकारी साझा की है। इसलिए ये याचिका कि परिणाम देने के बारे में जानकारी एक भरोसेमंद क्षमता में आयोजित की जाती है, योग्यता के बिना है और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा परिभाषित  एक भरोसेमंद रिश्ते का गठन करने की व्याख्या को ध्यान में रखते हुए नहीं है। "

इसके अलावा, आवेदक अपनी वेबसाइट और नोटिस बोर्डों पर प्रकाशन परिणामों के विश्वविद्यालय के अभ्यास पर भरोसा करते हैं, और इसलिए, " चूंकि विश्वविद्यालय स्वयं परिणामों को सक्रिय रूप से प्रकट करने के अभ्यास का पालन कर रहा है, यह विश्वविद्यालय  झूठ नहीं बोलता कि अब कहे कि  वो ऐसी जानकारी को "व्यक्तिगत जानकारी" के रूप में मानता है।

असल में स्नातक समारोहों के अप्रतिबंधित सार्वजनिक प्रसारण से पता चलता है कि विश्वविद्यालय इसे सार्वजनिक गतिविधि मानता है और निश्चित रूप से ऐसा नहीं है जो उनके परिणाम / विश्वविद्यालय से डिग्री  प्राप्त करने वालों की निजता के अनचाहे उल्लंघन का कारण बनता है  " फिर वे जोर देते हैं कि इस तरह की जानकारी को अस्वीकार करने के विश्वविद्यालय ने अचानक प्रयास किए हैं, “ संदेह बढ़ता है कि विश्वविद्यालय न केवल झूठ बोल रहा है बल्कि सूचना छुपाने का भी प्रयास कर रहा है।”

 इसके अलावा आवेदक व्यापक प्रसार धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, कदाचार, फर्जीवाड़ा और किसी की योग्यता के बारे में गलतफहमी के बड़े मुद्दों को भी उजागर करते हैं। इस प्रकार वे तर्क देते हैं कि आरटीआई अधिनियम के तहत ऐसी जानकारी का इनकार करना सार्वजनिक हितों के लिए काफी हानिकारक होगा।


 
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