किसी महिला को सिर्फ अगवा करने से ही आईपीसी की धारा 366 के तहत मामला नहीं बनता : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

26 April 2018 12:57 PM GMT

  • किसी महिला को सिर्फ अगवा करने से ही आईपीसी की धारा 366 के तहत मामला नहीं बनता : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ किसी महिला को अगवा भर करने और और इस बात का कोई सबूत नहीं होने से कि ऐसा किसी व्यक्ति के साथ जबरन शादी करने या उसके साथ संभोग के लिए बाध्य करने के लिए किया जा रहा है, आईपीसी की धारा 366 के तहत मामला नहीं बनता।

    शुरू में जो एफआईआर दायर किया गया था उसमें आरोप लगाया गया था कि आरोपी जबरदस्ती उसको अपने घर ले गया। पांच दिन बाद, एक पूरक बयान दिया गया जिसमें शिकायतकर्ता ने कपड़े उतरवाने और गलत तरीके से छूने और छेड़खानी का आरोप भी शामिल कर दिया। शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील की जिसने आरोपी आईपीसी की धारा 366 के तहत आरोपों से को बरी कर दिया।

    न्यायमूर्ति एके सिकरी और न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल ने इस बात पर गौर किया कि शुरू में शिकायत में छेड़छाड़ की बात को शर्म के मारे शामिल नहीं किया गया। कोर्ट ने कहा, “इस बारे में जो बताया गया है वह आत्मविश्वास पैदा नहीं करता क्योंकि एफआईआर घटना के पांच दिनों के बाद दर्ज कराया गया। इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि उसने काफी सोच विचार के बाद इसे अपने बयान में शामिल किया। फिर एक सप्ताह के अंदर ही उसने क्यों यह विचार किया कि उसे छेड़छाड़ का मामला भी शामिल किया जाना चाहिए और उसे क्यों नहीं अब इस बारे में कोई शर्म आई? इसका कोई कारण नहीं बताया गया है।”

    पीठ ने कहा, “जहाँ तक आईपीसी की धारा 366 की बात है, सिर्फ यह बताना पर्याप्त नहीं है कि महिला को अगवा किया गया था, आगे यह भी साबित किया जाना जरूरी है कि आरोपी ने महिला को उससे शादी करने के लिए बाध्य करने या फिर उसके उसके साथ गैरकानूनी तरीके से सहवास के लिए बाध्य करने की मंशा से उसको अगवा किया।”

    कोर्ट ने कहा कि अगर यह साबित भी हो जाता है कि आरोपी उसको जबरदस्ती अपने घर ले गया, पर बाद में उसने जो बयान दिया कि उसकी इच्छा उससे शादी करने या उसको बहला फुसला कर उसके साथ संभोग करने की थी, वह महज एक बाद का विचार है।  ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि दोनों के बीच संबंध था और अचानक भावनात्मक आवेश में और असुरक्षा की भावना की वजह से ऐसा हुआ। पीठ ने अपील को खारिज करते हुए सुनवाई अदालत को निर्देश दिया कि वह अन्य अपराधों के मामलों में छह महीने के भीतर सुनवाई पूरी करे।


     
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