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अल्ट्रासोनोग्राफी के लिए आवश्यक प्रशिक्षण का मामला : सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाया [आर्डर पढ़े]

LiveLaw News Network
15 March 2018 1:32 PM GMT
अल्ट्रासोनोग्राफी के लिए आवश्यक प्रशिक्षण का मामला : सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाया [आर्डर पढ़े]
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दिल्ली हाई कोर्ट ने प्री-कन्सेप्शन और प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेकनीक्स (प्रोहीबिशन ऑफ़ सेक्स सिलेक्शन) अधिनियम में फैसला दिया था कि क़ानून के अंतर्गत या केंद्र सरकार के किसी निकाय को यह अधिकार नहीं है कि वह अल्ट्रासाउंड इमेजिंग उपकरण की मदद से चिकित्सा के लिए योग्यता का सुझाव दे या इसकी योग्यता के लिए पाठ्यक्रम या इसकी अवधि सुझाए। सुप्रीम कोर्ट ने अब हाई कोर्ट के इस फैसले पर रोक लगा दिया है।

दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि पीएनडीटी अधिनियम के तहत सोनोलोजिस्ट को परिभाषित करने वाली धारा 2(p) खराब है क्योंकि इसमें उन व्यक्तियों को भी शामिल किया है जिनके पास अल्ट्रासोनोग्राफी की स्नातकोत्तर की डिग्री है क्योंकि इस तरह की योग्यता को एमसीआई मान्यता नहीं देता और पीएनडीटी अधिनियम या केंद्र सरकार के तहत गठित वैधानिक निकाय को यह अधिकार नहीं देता कि वे कोई नई योग्यता का निर्धारण करें।

भारत सरकार ने हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के इस बारे में दिए गए निर्णय को निष्प्रभावी करता है।

इस अधिनियम के प्रावधानों की चर्चा करते हुए पीठ ने कहा कि संसद ने केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया है कि वह जेनेटिक काउंसेलिंग सेंटर, प्रयोगशालाओं और क्लीनिकों में नियुक्ति किए जाने वाले व्यक्ति के लिए योग्यता का निर्धारण करे। कोर्ट ने कहा, “...योग्यता के बारे में स्पष्टता इस बात को समझने में मदद करेगा कि प्रशिक्षण के बारे में योग्यता क्या होनी चाहिए। इसके पीछे तर्क यह है कि प्रशिक्षण उस व्यक्ति को इस कार्य और क़ानून के उद्देश्य के लिए तैयार करेगा जिसे संसद ने बनाया है ताकि लिंग-चुनाव की जांच जैसे सामाजिक बुराइयों से लड़ा जा सके। जन्म-पूर्व जांच की प्रक्रिया के दुरूपयोग का गंभीर ख़तरा होता है”।

कोर्ट ने आगे कहा कि इस नीति को लागू करने के बारे में विधायिका के विचारों को न्यायालय के पुनर्विचार के न्यायिक अधिकार से बदला नहीं जा सकता।

पीठ ने हाई कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए कहा, “प्रथम दृष्टया दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला विधायी नीति का अतिक्रमण है। न्यायिक पुनरीक्षण विधायिका के अधिकारक्षेत्र तक नहीं जा सकता...इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 और पीसीपीएनडीटी अधिनियम दोनों को संसद ने पास किया है। संसद के पास ऐसा करने की योग्यता है। प्रशिक्षण नियम 2014 का निर्धारण संसद द्वारा दिये गए अधिकार के तहत केंद्र सरकार ने किया। प्रथम दृष्टया, ये नियम मूल क़ानून के बाहर नहीं हैं और न ही ये मनमानेपन का प्रदर्शन करते हैं।”.


 
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